Thursday, April 24, 2014

Hindi Motivational Stories - " महाराज रघु का दान "

महाराज रघु का दान 

                        महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवन श्री राम के पितामह थे। उनके नाम से ही उनको  क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते है। एक बार महाराज रघु ने एक बड़ा यज्ञ किया। और जब यज्ञ पूरा हुआ तो महराज ने ब्राह्मणों तथा दीन -दुःखियों को अपना सब धन दान कर दिया। महराज इतने बड़े दानी थे कि उन्होंने अपना आभूषण, सुन्दर वस्त्र और सब बर्तन तक दान में दे दिया और खुद साधारण वस्त्र पहनकर रह गये। और वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे। यज्ञ में सब कुछ दान करने के बाद कुछ ही समय बाद उनके पास वरतन्तु ऋषि के एक शिष्य कौत्स नाम का ब्राह्मण कुमार आये। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के गडुवेसे उनके पैर धोये। स्वागत-सत्कार किया और ब्राह्मण जब जाने लगा  तो महारज ने पूछा - ' आप मेरे पास कैसे पधारे है ? मैं क्या सेवा करूँ ?

                 कौत्स ने कहा - ' महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था: किन्तु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप - जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा। ' लेकिन महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की - ' आप  अपने आने का उदेश्य तो बता दें। ' तब कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा - 'बेटा ! तूने यहाँ रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे में बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी। तू संकोच मत कर। ख़ुशी से घर जा। ' लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया तब गुरुदेव को क्रोध आ गया। और वे बोले - ' तूने मुझसे चौदह विधाएँ पढ़ी है, इस लिए हर एक विधा के लिए एक करोड़ सोने की मोहरें लाकर दे। ' और वाही गुरुदक्षिणा के चौदह करोड़ सोने की मोहरें लेने कौत्स अयोध्या आये थे।

          महाराज ने कौत्स की बात सुनकर कहा - 'जैसे आपने यहाँ तक आने की कृपा की है, वैसे ही मुझ पर थोड़ी- सी कृपा और करें। तीन दिन तक आप मेरी अग्निशाला में ठहरो। रघु के यहाँ से एक ब्राह्मण और वो भी कुमार निराश लौट जाय, यह तो बड़े दुःख और कलंक की बात होगी। मैं तीन दिन में आपकी गुरुदक्षिणा का कोई - न - कोई प्रबन्ध अवश्य कर दूँगा। ' कौत्स ने महाराज की आज्ञा पर अयोध्या में रुकना स्वीकार कर लिया।

          महाराज ने अपने मन्त्री को बुलाकर कहा - ' यज्ञ में सभी सामन्त नरेश कर दे चुके है। उनसे दुबारा कर लेना न्याय नहीं है। लेकिन कुबेर जीने मुझे कभी कर नहीं दिया। वे देवता है तो क्या हुआ, कैलाश पर रहते है। इस लिए पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को उन्हें कर देना चाहिये। मेरे सब अश्त्र-शस्त्र मेरे रथ में रखवा दो। मैं कल सबेरे कुबेर पर चढ़ाई करूँगा। आज रात मैं उसी रथ में सोऊँगा। और जब तक ब्राह्मण कुमार को गुरुदक्षिणा न मिले, मैं राजमहल में पैर नहीं रख सकता। ' उस रात महाराज रघु रथ में ही सोये।

            जैसे ही सुबह हुई बड़े सबेरे उनका कोषाध्य्क्ष उनके पास दौड़ा आया और कहने लगा - ' महाराज ! खजाने का घर सोने की मोहरों से ऊपर तक भरा पड़ा है। कल रात में उसमें मोहरों की वर्षा हुई है। ' महाराज समझ गये कि कुबेर जी ने ही मोहरों की वर्षा की है। महाराज ने सब मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्स से बोले - ' आप इस धन को ले जाएं !'  कौत्स ने कहा - ' मुझे तो गुरुदक्षिणा के लिये चौदह करोड़ मोहरें चाहिये। उससे अधिक एक मोहरा भी मैं नहीं लूँगा। ' महाराज ने कहा - ' लेकिन यह धन आपके लिए आया है। और ब्राह्मण का धन हम अपने यहाँ नहीं रख सकते। आपको ही ये सब लेना पड़ेगा। ' तब कौत्स बड़ी दृढ़ता से कहा - ' महाराज! मैं ब्राह्मण हूँ। धन का मुझे करना क्या है। आप इस का चाहे जो करें, मैं तो एक मोहरा अधिक नहीं लूँगा। ' और कौत्स चौदह करोड़ मोहरें लेकर चले गये। शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मणों को दान कर दिया।

सीख - इस कहानी से हमें सीख मिलता है की सच्चे ब्राह्मण की निशानी है। सदा जीवन उच्च विचार उसे धन मोहरें आदि से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए तो ये कांकड़ पत्थर  है और ब्राह्मण के पास तो इस से बड़ा ज्ञान का खजाना है। ज्ञान का धन है सब से बड़ा तो हम सब को पहले ज्ञान धन को ग्रहण करना चाहिये।


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