Saturday, April 5, 2014

Hindi Motivational Stories - ' विवेक युक्त भावना कल्याणकारी '

विवेक युक्त भावना कल्याणकारी

             एक पवित्र सुन्दर स्थान पर आश्रम बना था। वहाँ श्रेष्ठ दिव्य - चरित्र निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। वहाँ के गुरूजी कि महीमा बहुत थी। वे अपने शिष्यों को बड़े प्यार से शिक्षा देते उनके बातो में रहस्य छुपा होता था। और इस बात को शिष्य जनते थे। हुआ कुछ ऐसा की एक दिन गुरु जी को कहीं लम्बे समय के लिए विदेश - भ्रमण पर जाना था। तब शिष्यों की परीक्षा का उचित समय था। गुरु जी ने अपने मुख्य दो शिष्यों को बुलाकर कुछ अनाज के दाने दिये। और कहा प्यारे बच्चों ! मै कुछ समय के लिए बाहर यात्रा पर जा रहा हूँ। मैंने जो बीज दिये है इन्हें अपनी इच्छा अनुसार सदुपयोग में लाना। बहुत प्यार - से - रहना और आश्रम की देखभाल ध्यान से करना। दोनों शिष्यों ने अपने गुरूवर की बात को ध्यान से सुना और बोले आप किसी प्रकार की चिंता न करें। हम अच्छी तरह से आश्रम की देखभाल करेंगे। और दोनों शिष्य गुरु जी को बहुत दूर तक विदा देने गये। फिर आदर सहित प्रणाम कर लौट आये।

             समय पंख लगाकर उड़ता गया। दिन महीने साल गुजरते गए। परन्तु गुरु जी लौटे नहीं। शिष्य अपने गुरु का हर साल इंतज़ार करते रहे। और एक दिन पुरे पाँच साल बाद छठे वर्ष में गुरूजी लौटे। दोनों शिष्य अपने गुरु जी को आया देख आनंद विभोर हो उठे। आदर सहित आश्रम में ले आये। आश्रम पहुंचने पर गुरु जी ने दोनों शिष्यों को अपने पास बुलाया।  दोनों शिष्य उनके पास आये।  सब से पहले बड़े शिष्य से गुरु ने पूछा, बच्चे यात्रा पर जाते समय मैंने तुम्हें कुछ अनाज के दाने दिये थे उनका तुमने क्या किया ? गुरु जी आप रुकिये मै अभी आया कहा कर वह अपने कामरे से एक संदूक उठा लाया और गुरु जी को दिया जिस पर लाल रंग का कपड़ा लिपटा हुआ था। और अगरबत्ती की खुशबु से महक रहा था वह छोटा सा संदूक। और बोला - गुरुदेव, यह आपका दिया हुआ प्रसाद था। इस लिए इस का मै रोज बड़ी श्रद्धा - भावना से पूजा करता था और अगरबत्ती लगता था। गुरूजी ने संदूक खोला तो क्या देखते है, कि सारा अनाज सड़ गया है। एक भी बीज काम का न रहा। सब को कीड़े खा गए है। यह देख गुरु जी को बहुत अफसोस हुआ। पर गुरु ने कुछ नहीं कहा।

                फिर दूसरे की ऒर मुड़कर पूछा - बच्चे तुमने मेरे दिये अनाज का क्या किया ? दूसरा शिष्य ने गुरु जी को अपने साथ चलने को कहा।  गुरूजी शिष्य के पीछे चल दिया। और रस्ते में शिष्य बताने लगा गुरूजी आपके दिये बीज को मैंने उसी वर्ष आश्रम के पास की उपजाऊ भूमि में बो दिया। और धरती माँ ने एक का सौ गुना करके दिया। एक वर्ष में इतना अनाज हुआ की मैंने उसको फिर से सारे जमीन में बो दिया। और फिर से धरती माँ ने उसका भी सौ गुना दिया।अध्यन करने के बाद जो समय मिलता वो समय मै इसी कार्य में लगता। और मेहनत का फल भगवन देता है। सो तीसरे साल जब बहुत अनाज मिला तो उस में कुछ धन पाकर मैंने कुँआ बनाया और फिर उसके बाद फल, सब्जी भी मिलने लगा तो और धन इकट्टा हुआ,जिस से आश्रम को सुन्दर बनाया और एक नया धर्म शाला बना दिया और फिर एक बगीचा और अब एक सुन्दर फलों का वन यह बना रहे है आपके लिए हाथ के इशारे से शिष्य गुरु जी को बता रहा था।

              गुरु जी यह सब देख अपने विवेकशील शिष्य को अपने गले से लगा लिया। यह देख कर बड़ा शिष्य तो शर्म के मारे झुक गया। फिर गुरु जी बोले, बच्चो ! श्रद्धा तो जीवन में होनी ही चाहिए। परन्तु विवेक भी साथ में चाहिए। बिना श्रदा भावना के विवेक शुन्य बनकर रह जाता है। और बिना विवेक के भावना सुन्दर नहीं लगती। जहाँ भावना जीवन का मिठास है वहाँ विवेक जीवन का नमक है। एक जीवन को मधुर बनाता है दूसरा जीवन को सुरक्षित रखता है।



सीख - हमें अपने जीवन में भावना और विवेक का सन्तुलन बनाकर अच्छी समझदारी से कार्य करने है जिस से मात - पिता और गुरुजनों का प्यार व आशिर्वाद मिलता रहे।                                                                                                                                                                                                                                                    




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