Wednesday, July 2, 2014

Hindi Motivational Stories..............................भामाशाह का त्याग

भामाशाह का त्याग 

     ये उस समय की बात है जब चित्तौड़ पर अकबर की सेना ने अधिकार कर लिया था। महाराणा प्रताप अरावली पर्वतो के वनों में अपने परिवार तथा राजपूत सैनिकों के साथ जहाँ-तहाँ भटकते-फिरते थे। महाराणा तथा उनके छोटे बच्चों को कभी-कभी दो-दो, तीन-तीन दिनों तक घास के बीजों की बनी रोटी तक नहीं मिलती थी। चित्तौड़ के महाराणा और सोने के पलंग पर सोने वाले उनके बच्चे भूखे-प्यासे पर्वत की गुफाओं में घास-पत्ते खाते और पत्थर की चट्टान पर सोया करते थे। लेकिन महाराणा प्रताप को इन सब कष्टों की चिन्ता नहीं थी। उन्हें एक ही धुन थी कि शत्रुओं से देश का चित्तौड़ की पवित्र भूमि का उद्धार कैसे किया जाय।

   किसी के पास काम करने का साधन न हो तो उसका अकेला उत्साह क्या काम आवे। महाराणा प्रताप और दूसरे सैनिक भी कुछ दिन भूखे-प्यासे रह सकते थे: किन्तु भूखे रहकर युद्ध कैसे चलाया जा सकता है। छोड़ो के लिये, हथियारों के लिए, सेना को भोजन देने के लिए तो धन चाहिये। और महाराणा के पास फूटी कौड़ी नहीं थी। उनके राजपूत और भील सैनिक अपने देश के लिये मर-मिटने को तैयार थे। उन देशभक्त वीरों को वेतन नहीं लेना था: किन्तु बिना धन के घोड़े कहाँ से आवें, हथियार कैसे बने, मनुष्य और घोड़ो को भोजन कैसे दिया जाय। इतना भी प्रबन्ध न हो तो दिल्ली के बादशाह की सेना से युद्ध कैसे चले। महराणा प्रताप को बड़ी निराशा हो रही थी येही सब बातें सोचकर। और अंत में एक दिन महाराणा ने अपने सरदारों से बिदा ली, भीलों को समझकर लौटा दिया। प्राणों से प्यारी जन्म-भूमि को छोड़कर महराणा राजस्थान से कहीं बाहर जाने को तैयार हुए।

      जब महाराणा अपने सरदारों को रोता छोड़कर महारानी और बच्चों के साथ वन के मार्ग से जा रहे थे, महाराणा के मन्त्री भामाशाह घोडा दौड़ाते आये और घोडे से कूदकर महाराणा के पैरों पर गिरकर फुट-फुटकर रोने लगे -'आप हम लोगों को अनाथ करके कहाँ जा रहे है ?'

    महाराणा प्रताप भामाशाह को उठाकर ह्रदय से लगाया और आँसू बहाते हुए कहा - 'आज भाग्य हमारे साथ नहीं है। अब यहाँ रहने से क्या लाभ ? मैं इसलिये जन्म-भूमि छोड़कर जा रहा हूँ कि कहीं से कुछ धन मिल जाय तो उस से सेना एकत्र करके फिर चित्तौड़ का उद्धार करने लौटूँ। आप लोग तब तक धैर्य धारण करें। ' भामाशाह ने हाथ जोड़कर कहा -'महाराणा ! आप मेरी एक प्रार्थना मान लें। ' राणाप्रताप बड़े स्नेह से बोले -'मन्त्री ! मैंने आपकी बात कभी टाली है क्या ?'

      भामाशाह के पीछे उनके बहुत-से-सेवक घोड़ों पर अशर्फियों के थैले लादे ले आये थे। भामाशाह ने महाराणा के आगे उन अशर्फियों का बड़ा भारी ढेर लगा दिया और फिर हाथ जोड़कर बड़ी नम्रता से कहा - 'महाराणा ! यह सब धन आपका ही है। मैंने और मेरे बाप-दादाओ ने चित्तौड़ के राजदरबार की कृपा से ही इन्हें इकट्टा किया है। आप कृपा करके इसे स्वीकार कर लीजिये और इस से देश का उद्धार कीजिये। '

     महाराणा प्रताप भामाशाह को गले से लगा लिया। उनकी आँखों से आँसू की बुँदे टपक रही थी। वे बोले - ' लोग प्रताप को देश का उद्धारक कहते है, किन्तु इस पवित्र भूमि का उद्धार तो तुम्हारे-जैसे उद्धार पुरुषों से होगा। तुम धन्य हो भामाशाह !'

  उस धन से महाराणा प्रताप ने सेना इकट्ठी की और फिर मुगलसेना पर आक्रमण किया। मुगलों के अधिकार की बहुत सी भूमि महाराणा प्रताप ने जीत ली और उदयपुर में अपनी राजधानी बना ली।

सीख - महाराणा प्रताप की वीरता जैसे राजपूताने के इतिहास में विख्यात है, वैसे ही भामाशाह का त्याग भी विख्यात है। ऐसे त्यागी पुरुष ही देश के गौरव होते है। जो व्यक्ति समय पर अपना सहयोग देता है उसे कही जन्मों का पुण्य प्राप्त होता है।

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