"दुआयें दें और दुआयें लें"
बचपन में दुआओ के बारे में एक कहानी पढ़ी थी। एक राजा की सौतेली लड़की को उसकी सौतेली माँ ने थोड़ा खाने के सामान के दूर जंगल में भेज दिया। राजकुमारी के मन में सब के लिए दया और प्रेम था इस लिए राजकुमारी सौतेली माँ के कहने पर जंगल आ गई। थेड़ी देर घूमने के बाद राजकुमारी एक नदी के पास आ गई ,तब राजकुमारी ने सोचा चलो स्नान कर लेते है। अब राजकुमारी स्नान करने नदी में गई। उतने में एक नाग -रानी जिसने अभी - अभी अपने बच्चे को जन्म दिया था और वह बहुत भूखी थी , तो उसने राजकुमारी का सब खाना का लिया। तत्पश्चात् नाग - रानी थोड़ी जाकर बैठ गई और सोचने लगी - मैंने जिनका खाना खाया है वह क्या सोचती है या कहती है ? राजकुमारी जब स्नान करके वापस आई तो उसने अपने सामान से खाने की चीजें ख़त्म हुई देखी तो राजकुमारी ने प्रेम से दुआयें देते हुए कही - कोई हर्जा नहीं , या खाना जैसे मेरे पेट में शान्ति देता , ऐसे खाने वाले को भी पेट में शान्ति देगा। राजकुमारी कि इन दुआओ भरे शब्दों को सुनकर नागरानी खुश हुई और उसने राजकुमारी को अनेख रत्न दिए। और राजकुमारी रत्नों लेकर अपने पिता के पास गई। अब ये देखकर सौतेली माँ को बड़ा ईर्षा हुई। और दूसरे दिन सौतेली माँ ने अपनी लड़की को बहुत अच्छा खाना देखर जंगल भेज दिया। अब जैसे ही लड़की जंगल में आई तो वह भी नदी के पास अपना खाना छोड़ कर स्नान करने के लिए नदी में उतर गई और उसी समय नागरानी वह से गुजर रही थी ,तो उसने अच्छा खाना देख उस खाने को खा लिए और दूर जाकर बैठ कर देखने लगा कि अब क्या होगा। कुछ ही देर बाद लड़की नदी से बहार आई तो उसने खाना न देखकर गुस्से से खाने वाले को बददुआ देने लगी। और नागरानी को ये अच्छा नहीं लगा उसने लड़की को डस लिया जिसके कारन लड़की काली हो गई और वह जब राज महल में आयी तो ये देखकर सौतेली माँ को बहुत दुःख हुआ।
सीख - इस कहानी से हमको ये सीख मिलाती है कि जाने अनजाने में सदा दुआये देते रहो ,क्या पता कब किसकी दुआए काम में आ जाये। …दुआओ से सुख मिलता है और बददुआयों से दुःख मिलता है। ऐसा संस्कार बच्चों में डाले ताकि दुवाये लेना - देना स्वाभाविक संस्कार बन जाये।
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