" परचिन्तन से पतन "
संयोगवश एक दिन साधु और कसाई - दोनों की मृत्यु हो गई। जब दोनों धर्मराज के पास पहुँचे तो धर्म राज ने दोनों को अपने - अपने कर्मो का वर्णन करने को कहा। तब कसाई बोला - मालिक , मै तो जात का कसाई था, बकरा काटना मेरा धंधा था। मेरी रोजी रोटी थी। इसलिए मै अपनी रोजी - रोटी के खातिर यह पाप - कर्म करता था। पाप कर्म के लिए मै ईश्वर से क्षमा माँगता था। दान - पुण्य आदि भी करता था। फिर धर्मराज ने साधु से पूछा - अब तुम अपने कर्मो का वर्णन करो। धर्मराज के सवाल के जवाब में साधु बोला - यह कसाई दिन में कम से कम १० - १५ बकरियाँ काटता था, जिसे ५० - ६० व्यक्ति (जो फलाना - फलाना है ) खरीदने आते थे। ये सब पापी है, ये सब नर्क के हकदार है। यह सुनकर धर्मराज बोले - मैंने तुम से केवल तुम्हारे अपने कर्मो का वर्णन करने को कहा है, न कि दूसरों के कर्मो का। क्यों कि तुमने सारा जीवन दूसरों के अवगुणों को देखने और वर्णन करने में ही बिताया, कभी अपने कर्मो का ख्याल भी नहीं किया कि में क्या कर रहा हूँ। साधु होकर भी तुमने कोई साधुत्व वाला कर्म नहीं किया। बस, परचिन्तन तथा व्यर्थ चिन्तन में ही अपना समय गवाया। तुम से तो वह कसाई अच्छा है। जो कुछ समय प्रभु - चिन्तन में गुजरता था व अपने पापों के लिए ईश्वर से क्षमा माँगता था दूसरों के दुःख - दर्द में साथी बनता था। परन्तु तुमने साधु होकर भी सिवाय परचिन्तन के कुछ भी नहीं किया। तुम्हारे भाग्य के खाते में पुण्य का लेश मात्र भी स्थान नहीं है। बस "पाप ही पाप है "।
सीख - परचिन्तन पतन कि झड़ है। इस लिये सदा स्व - चिन्तन करो और शुभ कामना करो। शुभ भावना और शुभ कामना येही उत्तम सेवा का आधार है।
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