Sunday, March 16, 2014

Hindi Motivational & Inspirational Stories - " करुणा की भाषा "

करुणा की भाषा 

            किसी वन के आश्रम में एक ऋषि अपने शिष्य रघुवीर के साथ रहते थे। रघुवीर एक आज्ञाकारी शिष्य था।  एक दिन ऋषि बोले - वत्स रघुवीर , तुमने बहुत समय तक मेरी सेवा की है। इस अवधि में मेरे पास जो कुछ भी ज्ञान था, वह सब मैंने तुम्हें सिखला दिया है। मै बहुत समय तक इसी आश्रम में रहा। इस कारण मै मात्र दो ही भाषाये सीखा पाया हूँ। लेकिन मै चाहता हूँ कि तुम अनेक स्थानों का भ्रमण करो। इस अवधि में तुम संसार की अधिकधिक भाषाये सीख कर वापस आऒ। आज्ञाकारी रघुवीर देश देश घूमने निकल पड़ा। उसने मन ही मन संकल्प लिया - मै संसार की अधिक से अधिक भाषाये सीख कर वापस लौंटूँगा। रधुवीर नए - नए स्थानों से गुजरता रहा। लगभग दस वर्ष बीत गये। उसने संसार की अनेक भाषाये सीख ली और कुछ धन भी इकट्टा कर लिया। सब कुछ लेकर वह दस साल के बाद गुरु के आश्रम पहुंचा।


            एक लम्बी यात्रा के पश्चात् वह आश्रम आया, उसने उत्साह पूर्वक आश्रम में प्रवेश किया परन्तु यह क्या ! गुरूजी रुग्णवस्था में शैय्या पर पड़े थे। यह देख कर उसे थोड़ा दुःख तो पहुँचा लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं आई। उसने गुरु को प्रणाम किया और अपनी बात छेड़ दी - गुरूजी ! अब आपका शिष्य वह रघुवीर नहीं रहा बल्कि बहुत कुछ सीख कर आया है।  ऋषि शान्त भाव से सुनते रहे।  फिर अपने टूटते हुए स्वर को सयंत कर बोले - वत्स रघुवीर! क्या तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दोगे ? क्यों नहीं गुरूजी ! आप आज्ञा तो कीजिये। ऋषि बोले - पुत्र ! तुमने बहुत सारे स्थानों का भ्रमण किया है। क्या तुम्हें इन स्थानों पर कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई दिया जो बेबस, लाचार होकर भी दूसरों की मदद कर रहा हो ? तुम्हें कोई ऐसी माँ मिली जो अपने शिशु को भूखा देख कर अपना दूध दूसरे शिशु को पिला रही हो जिसकी माँ नहीं। ऐसे लोग तो पुरे संसार में मिले थे गुरूजी ! शिष्य उत्साहित होकर बोला। क्या तुम्हारे मन में उनके लिए सहानुभूति जागी ? क्या तुमने उनसे प्रेम के कुछ शब्द कहे ?


            ऋषि का ऐसा प्रश्न सुनकर रघुवीर सकते में आ गया।  उसे ऋषि से ऐसे प्रश्न की कदापि आशा नहीं थी। वह बोला - गुरूजी ! मै तो आपकी आज्ञा का पालन करता रहा।  मुझे इतना समय कहाँ था, जो मै यह सब करता। इतने वर्षो में मैंने पाँच सौ भाषाये सीख ली है। इतना कहकर रघुवीर ने गुरु कि तरफ देखा और पाया कि उनके मुख पर एक रहस्मयी मुस्कान आकर चली गयी। ऋषि बोले - वस्त रधुवीर ! तुम अब भी प्रेम, सहानुभूति, और करुणा की भाषा में वीर नहीं हो (भाषा नहीं जानते ) अगर तुम प्रेम, करुणा जैसे भाषा सीख लेते तो तुम दुखियो का दुःख देख मुँह न फेर लेते। इतना ही नहीं, तुम्हें अपने गुरु की रुग्णवस्था भी नहीं दिखाई पड़ी। तुमने मेरा कुशल-क्षेम जाने बिना ही अपनी कहानी छेड़ दी। इतना कहकर गुरु कुछ क्षणो के लिए रुके।  उनका ह्रदय बैठा जा रहा था।  वे अपने ह्रदय को सयम कर पुनः बोले - रघुवीर ! मैंने जिस उद्देश्य से तुम्हे भेजा था, वह पूरा नहीं हुआ। मै तुम्हें करुणा कि भाषा सीखना चाहता था।  हो सके तो यह भाषा अवश्य सीख लेना। इतना कहकर गुरु जी सादा के लिए शांत हो गये। रघुवीर को भाषा सीखने का उद्देश्य समझ में आ गया। उसने उसी समय अपने आप को करुणाशील और प्रेम स्वरूप बनाने का ढूढ संकल्प कर लिया।


सीख - करुणा और प्रेम के बिना आपकी तपस्या पूरी नहीं हो सकती इस लिए भाषा चाहे अपने हज़ारों सीख ली हो पर जब तक प्रेम और करुणा कि भाषा को नहीं जानते तो आपका जीवन व्यर्थ ही है। 

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