" नम्रता द्रारा नव निर्माण "
बात बहुत पुरानी है। एक बहुत सुन्दर बाग़ था। उस में तरह तरह के फूल खिले हुए थे। बाग़ में एक तरफ फूलों की ही क्यारी थी। उन गुलाबों में एक गुलाब सब से बड़ा था। सारे फूल उसे ' राजा गुलाब ' कहा कर पुकारते थे। अब राजा गुलाब अपने को इस तरह सम्मान मिलते देख कर घमण्डी हो गया था। वह किसी भी फूल से सीधे मुँह बात नहीं करता था। परन्तु अन्य फूल उसकी यह नादानी समझते हुए भी उसे सम्मान देते रहे। अक्सर ऐसा होता है। हम अपनी विशेषता के आगे दुसरो को कम समझते है। और येही बात हुआ।
राजा गुलाब के पौधे की जड़ के पास एक बड़ा काला पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था। वह अक्सर उस पत्थर को डाँटता, ऒ काले पत्थर ! तेरी कुरूपता के कारण मेरा सौन्दर्य बिगड़ता है। तू कहीं चला जा। पत्थर शान्त भाव से राजा गुलाब को समझाता , इतना घमण्ड ठीक नहीं। अपना सौन्दर्य देख दूसरों को तुच्छ बतलाना तुम्हारे हित में नहीं है। राजा गुलाब अकड़ कर कहता, अरे कुरूप पत्थर ! तेरा मेरे आगे क्या सामना ? तू तो मेरे चरणो में पड़ा है।
एक दिन एक व्यक्ति उस बाग़ में आया। घूमते - घूमते नज़र उस राजा गुलाब के पास पड़े हुऐ काले पत्थर पर पड़ी। उसने वह गड़ा हुआ पत्थर वहाँ से उखाड़ा और उसे अपने साथ ले गया। राजा गुलाब की प्रसन्नता का ठिकना न। रहा उसने सोचा, अच्छा हुआ जो यह काला पत्थर यहाँ से हट गया ! इसकी कुरूपता मेरा सौन्दर्य नष्ट करती थी।
कुछ दिन के बाद वहाँ पर एक और व्यक्ति आया। उसने राजा गुलाब को तोड़ा और एक मन्दिर में जाकर भगवन की मूर्ति के चरणों में समर्पित कर दिया। राजा गुलाब को वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वो वहाँ पड़े - पड़े बाग़ में मिलने वाले सम्मान की बात सोच ही रहा था कि उसे हँसने की आवाज़ सुनाई दी। उसने इधर- उधर देखा, परन्तु कोई दिखाई न दिया। उसे आवाज़ सुनाई दी, राजा गुलाब, इधर - उधर क्या देखते हो? मुझे देखो, मै उसी पत्थर की मूर्ति हूँ जिसे तुम हमेशा डाँटते रहते थे, तुच्छ समझते थे। आज तुम मेरे ही चरणों में पड़े हो। तुम, तुम यहाँ कैसे आये? राजा गुलाब ने आश्चर्य से पूछा। मूर्ति रुपी पत्थर ने कहा, जो व्यक्ति मुझे ले गया था वह एक मूर्तिकार था। उसने ही तराश कर मुझे इस रूप में ढाला है। राजा गुलाब अपने किये पर पछतावा करने लगा। उसने मूर्ति रुपी पत्थर से क्षमा माँगी और कहा, मुझे मालूम हो गया कि घमण्डी का सिर हमेशा नीचा होता है। अंतः अपने अहंभाव की इस हद तक त्याग दो कि आपकी अपनी हस्ती रहे ही नहीं, जिसके लिए किसी ने सच ही तो कहा है -
मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर तू मर्तबा चाहे।
कि दाना मिट्टी में मिलकर ही, गुले गुलजार होता है।।
सीख- कभी कभी हमें चाहे कितना भी धन या सम्मान मिले लेकिन उस का अहंकार या अभिमान न हो।
एक दिन एक व्यक्ति उस बाग़ में आया। घूमते - घूमते नज़र उस राजा गुलाब के पास पड़े हुऐ काले पत्थर पर पड़ी। उसने वह गड़ा हुआ पत्थर वहाँ से उखाड़ा और उसे अपने साथ ले गया। राजा गुलाब की प्रसन्नता का ठिकना न। रहा उसने सोचा, अच्छा हुआ जो यह काला पत्थर यहाँ से हट गया ! इसकी कुरूपता मेरा सौन्दर्य नष्ट करती थी।
कुछ दिन के बाद वहाँ पर एक और व्यक्ति आया। उसने राजा गुलाब को तोड़ा और एक मन्दिर में जाकर भगवन की मूर्ति के चरणों में समर्पित कर दिया। राजा गुलाब को वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वो वहाँ पड़े - पड़े बाग़ में मिलने वाले सम्मान की बात सोच ही रहा था कि उसे हँसने की आवाज़ सुनाई दी। उसने इधर- उधर देखा, परन्तु कोई दिखाई न दिया। उसे आवाज़ सुनाई दी, राजा गुलाब, इधर - उधर क्या देखते हो? मुझे देखो, मै उसी पत्थर की मूर्ति हूँ जिसे तुम हमेशा डाँटते रहते थे, तुच्छ समझते थे। आज तुम मेरे ही चरणों में पड़े हो। तुम, तुम यहाँ कैसे आये? राजा गुलाब ने आश्चर्य से पूछा। मूर्ति रुपी पत्थर ने कहा, जो व्यक्ति मुझे ले गया था वह एक मूर्तिकार था। उसने ही तराश कर मुझे इस रूप में ढाला है। राजा गुलाब अपने किये पर पछतावा करने लगा। उसने मूर्ति रुपी पत्थर से क्षमा माँगी और कहा, मुझे मालूम हो गया कि घमण्डी का सिर हमेशा नीचा होता है। अंतः अपने अहंभाव की इस हद तक त्याग दो कि आपकी अपनी हस्ती रहे ही नहीं, जिसके लिए किसी ने सच ही तो कहा है -
मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर तू मर्तबा चाहे।
कि दाना मिट्टी में मिलकर ही, गुले गुलजार होता है।।
सीख- कभी कभी हमें चाहे कितना भी धन या सम्मान मिले लेकिन उस का अहंकार या अभिमान न हो।
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