सोचिये पाप का भागी कौन ?
एक मनुष्य ने एक बहुत सुन्दर उपवन लगाया। उस में कई प्रकार के सुन्दर - सुन्दर फल देने वाले वृक्ष, पौधे व खुशबूदार फूल लगाये। बड़ी लगन व मेहनत से खाद व् पानी देकर बगीचे कि शोभा बढ़ाई। बगीचे को देख कर वह मन ही मन आति हर्ष का अनुभव करता था और कहते नहीं थकता था कि कितना सुन्दर बगीचा है , जो मैंने अपने हाथो से तैयार किया है।
अब एक दिन इस सुन्दर उपवन में एक गाय घुस गई और सभी सुन्दर पौधों, फूलो व् पेड़ो को उसने नष्ट कर दिया। यह देख कर वह मनुष्य आग बबूला हो गया। उसने क्रोध वश उस गाय को इतना पीटा की वह वाही ढेर हो गई। अब व्यक्ति का क्रोध जब शांत हो गया तो उसे बहुत दुःख हुआ कि यह क्या हो गया ? उसके मन में विचार आया कि इस गाय को तो मैंने नहीं मारा। या कुकृत्य तो भगवान ने ही मेरे इन दो हाथों से करवाया है। मेरे हाथ तो भगवान के अधीन है। दुःख देना , पाप करना , मारना , यह भी तो वाही करवाता है।
कहते है कि भगवान ने तभी एक फ़रिश्ते को उस मनुष्य के पास भेजा। फ़रिश्ते ने पूछा - सुना है कि आपका बहुत सुन्दर बगीचा था जिसे एक गाय ने नष्ट कर दिया। क्या आप बता सकते है कि इतना सुन्दर बगीचा किसने लगाया ? तब उस व्यक्ति ने गर्व से जवाब दिया - मैंने। फ़रिश्ते ने पुनः पूछा - ये सुन्दर - सुन्दर खुशबूदार फूल किसने लगाये ? वह बोला - यह भी मैंने। फिर फ़रिश्ते ने बोला - फिर उस गाय को किसने मारा ? व्यक्ति ने कहा - भगवान ने। सोचिए , इस तरह की बहानेबाजी से मनुष्य पाप के दोषों से छुटकारा कैसे पा सकता है ? परमात्मा हम सब आत्माओं के पिता है , प्रेम के सागर है, आनन्द का सागर है , शान्ति के सागर है , सुख के सागर है , न कि दुःख का सागर। दुःख तो मनुष्य को आपने पाप कर्मो के फल के रूप में भोगने पड़ते है। इस लिए दुःख के समय मनुष्य भगवान को याद करता है और कहता है हे दुःख हारता सुख करता मेरे दुःख दूर करो। ……और एक तरफ मनुष्य भगवान को दोष भी देता है। … इस में भगवान दोषी कहाँ हुआ ? जरा सोचिये पाप का भागी कौन ?……
सीख - मनुष्य अपने कर्म से सुख या दुःख प्राप्त करता है अगर हम मेहनत कर के बगीचा लगते है तो उसका फल फूल और सुन्दरता को हम भोगते है सुख पाते है। और दूसरी तरफ हम अगर आवेष या क्रोध वश कोई कुकृत्य करते है तो उसका दुःख भी हम ही भोगते है। .... इस लिए कहा गया है आत्मा अपना ही मित्र भी है तो शत्रु भी है।
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