Thursday, April 3, 2014

Hindi Motivational Stories - " जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "

" जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "


  महान राजा भर्तुहरी के सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्रीतिकर और शोधपूर्ण कहानी है। कहते है कि वह अपने अपार धन, वैभव, राजपाट को त्याग कर तपस्या के करने जंगल चला गया। उनके जीवन में त्याग सिद्धान्त के रूप में नहीं परन्तु जीवन में भोग और सम्पत्ति की व्यर्थता के अनुभव से फलित हुआ था। हुआ ऐसा कि एक दिन वे पेड़ की शीतल छाया में प्रभु की याद में ध्यान - मग्न बैठे थे। अचानक उनकी आँखे खुली। वृक्ष के पास में एक छोटी पगडंडी गुज़र रही थी। थोड़ी दूर उस पगडंडी पर सूर्य की रोशनी में एक अदभुद और बड़ा हीरे का टुकड़ा पड़ा चमक रहा था। ऐसा हिरा उसने पहले कभी नहीं देखा था।

                 तब राजा के मन में कामना जगी कि उस हिरा को उठा लू। अचानक उस बेहोशी के क्षण में वे अपने ध्यान के केन्द्र से अलग हो गये। लेकिन शारीर तो अब भी सिद्धासन में अचल था परन्तु मन तो उस हीरे को पाने की चाहत में चल पड़ा। मन से वहाँ नहीं है। अब शारीर यही अचल मृत आवस्था में है। भर्तुहरी मन से वहा गये और देखा कि उनसे पहले वहाँ दो व्यक्ति घोड़े पर सवार हो अलग - अलग दिशाओ से वहाँ आये। उन दिनों की नज़र भी उसी चमकते हीरे पर पड़ी। और दोनों ने हिरा पहले देखने का दावा कर तलवारें खीच ली। निर्णय का तो और कोई उपाय वहाँ नहीं था, वे आपस में लड़ पड़े। और कुछ ही देर में दोनों ने एक - दूसरे को समाप्त कर दिया। अब उस हीरे के पास दो लाशे पड़ी थी। भर्तुहरी ने देखा, हँसा और अपनी आँखे बंद कर ली और प्रभु - स्मरण में पुनः खो गया।

         क्या हुआ ? आप सोच रहे होंगे। . इस घटना से भर्तुहरी को सम्पत्ति की व्यर्थता का बोध हुआ। और वे पुरे दिल से ध्यान - मग्न हो गये।  और दूसरी तरफ उन दो व्यक्तियो का क्या हुआ ? एक पत्थर का हिरा उनके जीवन से अधिक कीमती हो गया। और उसी के कारण अपनी जान गवा दी।  इसलिये जब भी कामना होती है, तो हम अपने से दूर चले जाते है। अपने को भूल जाते है। ये कामनाये हमें आत्म - घात कि ऒर ले जाती है। कामना के वशीभूत हम अपनी सुधबुध खो देते है। क्षण भर के लिए राजा को जो सयम के अनुभव का आत्म केन्द्र था वह खो गया। एक हिरा अधिक शक्तिशाली हो गया और वे कमजोर हो अपने केन्द्र से हट कर उस हीरे की ऒर खिंचते चले गये। लेकिन फिर व्यर्थता के अनुभव ने उन्हें आत्म केन्द्रित कर दिया और उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली।

सीख - ध्यान आत्मा सयम के लिए है। ध्यान स्वम् को जोड़ता है और सम्पत्ति का मोहा व्यक्ति को अलग करता है और पतन कि ऒर ले जाता है। 

Wednesday, April 2, 2014

Hindi Motivational Stories - ' परिश्रम ही सच्ची पूंजी है '

 परिश्रम ही सच्ची पूंजी है

            कालूराम स्वभाव से आलसी और निकम्मा था। वह बैठे - बैठे सपने देखता कि एक दिन अवश्य ही वह धनवान हो जायेगा। और धनवान बनने से जो सुख उसे मिल सकते है उनका मन ही मन अनुभव कर वह खुश हो लेता। इस तरह धनवान बनने का उसे शौक जरुरु था लेकिन काम वह कुछ नहीं करता। कालूराम की पत्नी रमा समझदार और स्वालम्बी महिला थी। उसने दो गाये पाल राखी थी जिनकी वह खूब देखभाल करती। गाये का दूध दुहकर बेच आती। इसी से उसके परिवार का गुजारा भी चलता।  कालूराम के दो बेटे थे जो अपनी माँ के काम में सहयोग देते थे। लेकिन कालूराम दिन - रात सपनों में ही खोया रहता।

           एक दिन गॉव में एक स्वामी का आना हुआ और पुरे गॉव के लोग संध्या के समय स्वामी जी के पास आते और घंटो बैठे रहते। स्वामी जी को गॉव वालो के जरिये कालूराम के बारे में सब कुछ मालूम हो गया। और जब कालूराम को स्वामी जी के बारे में पता चला तो वह सीधा उनके पास गया और बैठ गया प्रवचन के बाद जब सब लोग चले गए तब कालूराम स्वामी जी के पास जाकर प्रणाम करते हुए कहा, मुझे वरदान दो स्वामी जी, मै धनवान बनना चाहता हूँ। गरीबी से में उकता गया हूँ। अब स्वामी जी उसकी बात सुनकर मन में हंसे।  वे जानते थे कि वह काम तो धेले भर का भी नहीं करता। खाली बैठा हुआ ही धनवान बनना चाहता है। कालूराम से मिलकर स्वामी जी को अनुभव हुआ कि उसमे छल, कपट जरा भी नहीं था। उन्होंने सोचा कि इसकी मदत करनी चाहिए। वे बोले - मै तुम्हे वरदान दे सकता हूँ, लेकिन उसके साथ शर्ते भी जुड़ी हुई है। शर्तों का पालन नहीं किया तो वरदान स्वतः समाप्त हो जायेगा। आपका आदेश सिर आँखों पर। आप जैसा कहेंगे, मै वही करूँगा। कालूराम ने प्रसन्न्ता से जवाब दिया। अब स्वामी जी ने कहना शुरू किया - मै तुम्हें एक मंत्र देता हूँ। उसके बारे में किसी को कुछ मत बताना और मन ही मन मंत्र का जाप करना। मंत्र है - आलस छोड़ो ! जागो ! उठो ! शर्त यह है कि तुम सवेरे जल्दी उठोगे और रात्रि दस बजे से पहले कभी सोओगे नहीं। एक - एक क्षण का तुम्हें उपयोग करना होगा। कालूराम हाथ जोड़े हाँ - हाँ करता रहा और सारी बात ध्यान से सुनता रहा। उसे धनवान बनने का मंत्र जो मिल रहा था। स्वामी जी ने फिर कहा - काम करने से जो भी आय हो उस में से जितना हो सके बचाकर रखना और सोच समझकर पत्नी कि सलाह से ही खर्च करना। और मंत्र को कभी मत भूलना।  जाओ, आज से ही काम करना शुरू कर दो।

           कालूराम में जैसे नये जोश का संचार हो गया था।  आलस छोड़ो ! जागो उठो ! यह मंत्र गुन गुनते हुए वह घर पहुँचा। उस दिन गायो का दूध वह स्वम बेच आया।  वापस आकर पास ही जंगल से बहुत सी लकड़ियाँ भी काट लाया। सवेरे अपनी गायों के साथ दुसरो के पशु भी चरा आता।  वह रोज ही जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने लगा और उन्हें शहर में बेच आता। कालूराम को दुसरो के पशु चराने का भी कुछ रुपये मिल जाते। इस तरह कालूराम एक एक पल का उपयोग करने लगा।

         कालूराम में आये इस बदलाव को देख सभी लोगो को आश्चर्य हुआ। कई लोगो के पूछने पर कालूराम कहता काम तो करना ही चाहिए। इसलिए करता हूँ। और कालूराम में आये इस बदलाव को देख उसकी पत्नी बहुत खुश थी।कालूराम को अब लकड़ियाँ बेचने और गाये चराने से जो धन मिलता उसे वह बचा कर रखता। और धीरे धीरे इन्हीं पैसों से वह एक - एक गाय और भैंस खरीदता रहा जिससे दूध भी उसके यह खूब होने लगा। कालूराम का दूध का कारोबार बढ़ता गया। और उसे आज भी मंत्र याद है और उसी तरह लगातार अपने काम में मस्त है गाये को चराना लकड़ी काटकर बेचना। उसे मालूम ही नहीं कि वह धनवान बनने चला है।

           समय बीतता गया कालूराम के पास अब सौ से अधिक पशु हो गए। उसने गॉव ने पास ही खेत खरीद लिए जहाँ बड़ी मात्रा में अनाज पैदा होने लगा। उसके बेटे भी उसके कारोबार में हाथ देने लगे इस तरह एक दिन वह गाँव का जमींदार बन गया। और अब भी वह अपना एक एक पल सफल करता जब भी वह खाली बैठता उसे मंत्र याद आता। एक दिन कालूराम अपने घोड़े पर सवार होकर अपने खेतो की निगरानी कर रहा था। तभी उसे दूर एक महात्मा जी दिखायी दिये। उसने तुरन्त पहचान लिया। वह उनके पास गया और प्रणाम कर बोला, मुझे पहचाना स्वामी जी, मै कालूराम। आपने मुझे वरदान दिया था जो सच साबित हुआ।

           स्वामी बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, मैंने तो तुम्हें कोई वरदान नहीं दिया। मैंने तो तुम्हें मेहनत का पाठ पढ़ाया था।  जिसे तुमने अचूक मंत्र की तरह याद रखा। बेटे, मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता।  मनुष्य के श्रम में ही सब से बड़ा वरदान छिपा होता है। तुम अपनी मेहनत और सूझबूझ से ही धनवान बने हो। कालूराम स्वामी जी की बाते सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। वह स्वामी जी को घर ले गया और अपने कारोबार के बारे में सारी जानकारी दी, फिर जलपान करवा कर उन्हें सादर विदा किया।  अंतः किसी ने सच ही कहा है -

             "जिन खोजा तिन पाईयाँ, गहरे पानी पैठ। 
                                   वो बावरी क्या पाईयाँ, जो रहे किनारे बैठ।। "         

सीख - मंत्र या वरदान मनुष्य को सद्गुणों से जोड़ते है अच्छी भावना मन में भर देता है लेकिन उसे धारण कर कर्म में उतरने से और मेहनत करने से ही सफलता मिलता है।

Tuesday, April 1, 2014

Hindi Motivational Stories - ' कतनी - करनी एक समान हो '

कतनी - करनी एक समान हो

              किसी सत्संग में महत्मा जी ज्ञानोपदेश कर रहे थे - बस, राम नाम की माला जपते रहो। राम नाम से भवसागर पार कर जायेंगे। सच्चे मन से राम का नाम लो, वह नाव का काम करेगी। श्रद्धालू में से एक परम भक्त भी था। सत्संग में आने के लिए उसे प्रतिदिन नदी पार करनी पड़ती थी। गुरु जी की वाणी उसके लिए राम - बाण बन गया। वह सच्चे मन से प्रभु - स्तुति कर ईश्वरीय अनुकम्पा (याद ) से नदी पार करता था। उसने एक बार सहृदयता से उपकृत होकर एक दिन वह महात्मा जी को अपने घर में आमंत्रित किया। और महात्मा जी उस परम भक्त का निमंत्रण स्वीकार किया और चल पड़े जब महात्मा जी नदी के किनारे पहुँचे तब वह कोई नाव न देख बोले - वत्स, नाव कहाँ है ? इसे पार कैसे किया जय ? भक्त ने कहा - महात्मा जी, आप भी मज़ाक करते है। आप ही ने कहा था, कि राम नाम लो तो सहज ही भवसागर से पार हो जाएंगे। और उसी दिन से मै यह आकर जब ईश्वर को याद करता हूँ तो सन्मुख नाव और नाविक हाज़िर हो जाते है।

                 देखिये, हाथ कंगन को आरसी क्या। तब भक्त ने ईश्वर - स्मरण किया। और उसी समय नाव और नाविक हाज़िर हुए ये देखकर महात्मा जी आत्मग्लानि से विह्ल हो गये। उन्हें उस चमत्कार को देख अपनी कथनी - करनी में असमानता पर बड़ी ही लज्जा का अनुभव हुआ। और उस दिन से वे भी कथनी और करनी को समान करने में लग गये।


सीख - कथनी - करनी को समान बनाने ने के लिए हमे अन्तर ध्यान करना होगा। एक बार समय दे अपने आप को जाने और समझे कि मेरी कथनी और करनी में कितना अन्तर है। उसके बाद ही हम उस पर कार्य कर सकेंगे वर्ना महात्मा जी कि तरह हमें भी आत्मा ग्लानि का अनुभव करना पड़ेगा। 

Monday, March 31, 2014

Hindi Motivational Stories - ' सच्चा सुख सन्तुष्टता में '

सच्चा  सुख सन्तुष्टता में 

             एक सेठ बहुत सम्पत्ति का मालिक था। उसके पास इतनी सम्पत्ति थी कि उसकी १० पीढिय़ाँ बैठकर खा सकती थी।  परन्तु फिर भी वह सेठ हमेशा चिंताग्रस्त रहता था और चिन्ता का कारण यह था कि मेरी ११ वी पीढ़ी का क्या होगा ? उसके लिये तो मैंने कुछ भी नहीं जमा किया। इसी चिन्ता ने उसे रोगग्रस्त कर दिया और दिन - प्रतिदिन उसकी सेहत बिगड़ती चली गई। उसकी बिगड़ती सेहत को देखकर उसका एक शुभ - चिन्तक उसके पास आया और उसे सलाह दी कि पास के जंगल में एक साधु जी रहते है आप उनके पास जाये वे आपकी चिन्ता के निवारण अर्थ कोई न कोई उपाय जरुर करेंगे। यह सुनकर सेठ के मन में आशा की एक किरण जगी। अगले दिन वह साधु के दर्शन के लिये चल दिया। वैसे तो सेठ बहुत कंजूस था परन्तु कुछ प्राप्ति की आशा थी इसलिए अपने साथ एक फल की टोकरी ले गया था।

            जब सेठ साधू के पास गया तो उस समय साधू जी ध्यान में मग्न थे। सेठ ने बड़ी श्रद्धा से साधू को प्रणाम किया और फल की टोकरी आगे बढ़ाते हुए बोला - महाराज ! मेरी ये छोटी से भेंट स्वीकार कीजिये। साधु ने धीरे से आँखे खोली, फल की टोकरी और सेठ को देखा और कुटिया के दूसरे तरफ रखी फल की टोकरी की तरफ इशारा करते हुए साधू बोले - बेटा, भगवन (दाता ) ने मेरे लिए भोजन भेज दिया है। अब इसकी आवश्कता नहीं है। और हाँ, तुम अपनी समस्या मुझे बताओ। यदि सम्भव हुआ तो मै उसका समाधान तुम्हें बताऊँगा।

            साधू के यह बड़ी शान्ति थी और उस शान्ति के वातावरण में सेठ की आत्मा जग गयी। सेठ ने देखा साधू के पास एक टोकरा फल का है तो वह दूसरे की कामना ही नहीं रखता। और साधू के चेहरे पर शान्ति है। भरपूर है कोई कामना नहीं है। न आज कि न कल कि। .... येही बात खुद से सेठ ने जानी सोचा मेरे पास अथाह सम्पत्ति होते हुए भी मै और सम्पत्ति की कामनाओं में खोया रहता हूँ तथा दुःखी होता रहता हूँ। अपने अन्तर मन का बोध हुआ और वह साधू के चरणों में गिर पड़ा और बोला - महाराज, मेरे सवालों का जवाब मुझे मिल गया है।  आज मुझे मालूम हुआ है कि सच्चा सुख सन्तुष्टता में है न कि कामनाओं का विस्तार करने से।

सीख - वास्तव में आज मनुष्य अपनी इछाअो के पीछे भागता जा रहा है और ये इछाये मृगतृष्णा समान है। वो कभी पुरे नहीं होने है। लालच व्यक्ति को अंधा बना देता है। इस लिए इछाओ को कम करो अपने आप दुःख कम होगा।

                   

Sunday, March 30, 2014

Hindi Motivational Stories - " रात और दिन का अध्यात्मिक रहस्या "

' रात और दिन  '

    जैसे सूर्य अस्त होते ही अंधेरा होने लगता है। वैसे ही एक बदलाव हम देखते है, चारों तरफ अंधकार और रात्रि का प्रहार शुरू हो जाता है। तब बुढ़िया ने अपनी झोपड़ी में दीया जला लिया, और उसके पड़ोसियों ने भी अपने - अपने दीपक और लालटेन जला लिए, पहरेदारों ने टार्च निकाल लिए। गॉव तथा पटरी के दुकानदारों ने गैस जला दिये, शहरों में, रास्तों घरों, दुकानों और कंपनियो में बिजली के अनेकों बल्ब और लाइट जल उठे। मतलब यह कि सब ने कुछ न कुछ रोशनी का साधन कर लिया ताकि रात्रि में कुछ - कुछ कार्य व्यवहार चल सके। 

       कुछ बत्तियां तो रात्रि के प्रहार में ही मनुष्यों के सो जाने पर या तेल - ईधन समाप्त होने पर बुझ गई। परन्तु सूर्योदय होने पर सभी बत्तियां बुझा दी गई। यदि दिन में किसीका दिया जला दिखाई दे तो दूसरे उस से कहेंगे कि भाई अब दिन निकल आया है। अभी इसे बुझा दीजिये। ये हम सभी जानते है। ठीक इसी प्रकार सृष्टि चक्र में भी बेहद का दिन और बेहद कि रात होती है।

      इस  बेहद सृष्टि - चक्र में सतयुग और त्रेतायुग जो २५०० वर्ष में पूरा हुआ (जिसे ब्रह्मा का दिन कहते है ), उस समय जो लोग थे उनका जीवन देवी देवता समान था। फिर बाद में भारतवासी देवी - देवतायों का पुण्य क्षीण होने पर वे वाम - मार्गीय बने। उस में माया (काम, क्रोध आदि विकारो ) की प्रवेशता हो गई और द्वापर युग तथा कलियुग रूपी २५०० वर्ष ( जिसे ब्रह्मा कि रात कहते है ) कि ब्रह्मा कि रात का प्रहार शुरू हो गया - तब पूज्य भारतवासी देवता स्वम् ही पुजारी बन गये। वे हिन्दू कहलाने लगे और उन्होंने पूजा करना शुरू किया साथ ही साथ मनुष्यों ने वेध - शास्त्र बनाये और उन्हें पढ़ने लगे। और कुछ सन्यासी बन गये, उन्होंने घर - भार छोड़ा। जप, तप, दान, पुण्य आदि अनेक प्रकार के कर्म - कांड प्रचलित हो गये, मनुष्यों ने पाप धोने के लिए गंगा आदि पानी की नदियों को पतित - पावनी मानकर स्नान करना शुरू कर दिया।  कई मनुष्यों ने अन्य मनुष्यों को ही सद्गुरु माना और अनेक शिष्य बन गये। मतलब यह कि सब ने कुछ - न - कुछ साधन अपनाये, ताकि कुछ - न - कुछ अल्पकाल के लिए ही सही, शांति और सुख की प्राप्ति होती रहे। कई तो विकारों से लिप्त होकर माया की कुम्भकर्णी निद्रा में पूरी तरह ही सो गये। अन्य कई भक्ति द्वरा कुछ प्राप्ति होती न देख श्रद्धा खो बैठे। परन्तु कलियुग के अन्त में तो भक्तिमार्ग को पूरा होना ही है क्यों कि तब 'ब्रह्मा की रात्रि ' का समय पूरा होने पर, पाप का घड़ा भर जाने पर, ज्ञान सूर्य परमात्मा 'शिव' प्रजापिता ब्रह्मा के शरीर रुपी रथ में अवतरित होकर गीता - ज्ञान सुनाकर, मनुष्यात्माओं को योग-युक्त करके, पुनः सतयुग की स्थापना करते है।

सीख - समय के इस चक्र को जनने से हमें समय के साथ चलने में मदत मिलेंगी। और हम सब जनते  एक बार हाथ में आया समय निकल गया तो वो किसी भी कीमत से हमें वापस नहीं मिलेगा।  इस लिए समय  को जानो खुद को पहचानों खुदा को जानो और समय के साथ अपने को अपडेट करते रहो। वर्ना ऐसा न हो कहीं समय आगे निकल जाए और आप पीछे रह जाए। क्यों कि अभी नहीं तो कभी नहीं ये समय का कहना है। बेस्ट ऑफ़ लक !.... 

Friday, March 28, 2014

Hindi Motivational stories - " तजो बुराई, करो बड़ाई "

तजो बुराई, करो बड़ाई

           दो बड़े विद्वान जो कि आपस में दोस्त थे, किसी यजमान के निमंत्रण पर उसके घर पूजा - पाठ के लिए गये। वहाँ उन दोनों का काफी आदर - सत्कार हुआ। और दूसरे दिन सुबह उन में से एक विद्वान् हवन करने गया हुआ था तो यजमान  दूसरे विद्वान से कहा - महाराज, आपके दोस्त तो बहुत बड़े ही नेक इन्सान है। अब यह सुनते ही वह तपाक से बोला - अरे ! वह तो निरा बैल है। कुछ भी जानता नहीं है। वह तो मेरे साथ रहता है, इसलिये उसकी थोड़ी - बहुत इज्ज़त होती है, नहीं तो उसे कौन जानता है। वह तो यहाँ मेरे साथ आया हुआ है मेरी सेवा के लिए !

          उसी प्रकार अगले दिन जब दूसरा विद्वान हवन करने गया तो उस यजमान ने पहले वाले से कहा -महाराज ! आपके दोस्त तो बहुत नेक इन्सान तथा विद्वान है। यह सुनते ही पहले वाले विद्वान ने कहा - वह तो निरा गधा है गधा। वह तो मेरे साथ मेरा सामान ढोने के लिए तथा मेरी सेवा के लिए आया है। ये सुनते ही यजमान को बहुत आश्चर्य हुआ। दोनों साथ रहते भी दोनों के अन्दर मै बड़ा  -  मै बड़ा का  पहाड़ है।

          श्याम को जब दोनों विद्वान पूजा समाप्त करके खाना खाने के लिए आये तो यजमान ने दोनों के सामने हरी घास रख दी और बोले - महाराज! भोजन स्वीकार कीजिये।  दोनों विद्वान आग - बबूला हो गए। क्रोध और आवेश में वे यजमान से बोले - मुर्ख, तूने हमारा आपमान किया है। हम तुम्हें इसके लिये अभिशाप देंगे। मगर.… महाराज ! मेरा अपराध क्या है ? सरलता से यजमान ने प्रश्न किया। क्या हम लोग घास खायेंगे? क्या हम जानवर है ? गुस्से में दोनों विद्वानों ने पूछा।
 
        यजमान ने तुरन्त हाथ जोड़कर बड़े आदर से कहा - महाराज ! आप दोनों ने ही एक दूसरे को बैल तथा गधा बताया है और मेरे विचार से दोनों ही जानवरो का प्रिया भोजन घास है। अंतः मैंने तो आपके बताए अनुसार ही आपका प्रिय भोजन आपके सामने रखा है। फिर भी यदि मेरे से कोई गलती हो गई हो तो कृपया मुझे क्षमा करें।                                                                                                                            
         आज यह वास्तविकता हम देख सकते है। व्यक्ति हमेशा अपनी तारीफ और दूसरों कि बुराई ही करता है। जहाँ वह चाहता है कि मेरा सम्मान हो, मेरा नाम हो, लोग मेरी तारीफ करे, मुझे सलाम करे, ठीक उसके विपरीत वह यह भी चाहता है कि लोग उसके साथी कि बुराई करें, निंदा करें तथा उसे नीचा दिखाये। मनुष्य को चाहिये  कि वह अपने अवगुण देखें और दुसरो के गुण देखे लेकिन मनुष्य आपने गुणों को देखता और दूसरों के अवगुणों को देखता है। जिसके कारण मनुष्य को अपने जीवन में बार - बार घास (ठोकर ) खानी पड़ती है।


सीख - अगर व्यक्ति आपने अवगुण देखना और दूसरे के गुणो को देखना सुरु करें तो ठोकर खाने से बच जायेगा।इस लिये किसीने सच ही कहा है। गुण अवगुण में अन्तर जो जाने वाही सच्चा ज्ञानी है। 

Thursday, March 27, 2014

Hindi Motivational stories - " पहले तोलो, फिर बोलो "

पहले तोलो, फिर बोलो

          कोयल कि मीठी आवाज़ सुनने के लिये सभी लालायित रहते है,  मगर कौवे की नहीं। क्यों ? तो चलिए जानते है एक कहानी के द्वारा - एक  बार एक कौवा बड़ी तेजी से उड़ा जा रहा था।  कोयल ने देखा कौवा बड़ी तेजी से जा रहा है। कोयल ने पूछा - भैय्या, इतने उतावले होकर कहाँ जा रहे हो ? क्या बात है ? कौवा बोला - बहन, मै जहाँ जाता हूँ मुझे भगा दिया जाता है, मुझे अपमान मिलता है, सत्कार नहीं।  इसलिये यहाँ से कही दूर, दूसरे देश में चला जा रहा हूँ। वहाँ तो अपरिचित ही रहूँगा।  तो सभी मुझे सम्मान की दुष्टि से देखेंगे।
     
        कोयल ने कहा - भय्या, बात तो ठीक है, लेकिन अपनी बोली बदलते जाना। कॉव- कॉव को बदल देना। अगर इस को नहीं बदला तो वहाँ भी आदर सत्कार नहीं मिलेगा। यह जो तुम्हारे प्रति घृणा है वह इस वाणी के कारण है। इस कर्कश और सुखी बोली को बदल दो, फिर कही भी चले जाओ सभी जगह सम्मान होगा।

         कौवा ध्यान से सुन रहा था। और उसी समय उसकी नज़र कोयल के गले में पड़े हार पर पड़ी, उसका मन ललचा गया कौवे ने पूछा - बहन यह उपहार तुम्हें कहाँ से मिला है ? कोयल ने कहा - मै स्वर्ग लोक गई थी वहाँ मैंने गाना सुनाया। मेरे गाने को सुनकर इंद्र प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे ये हार उपहार में दिया। कौवे ने भी सोचा कि सिर्फ गाना सुनाने से यदि हार मिलता है तो मै भी स्वर्ग में जाकर गाना सुनाऊँगी और हार ले आऊँगा। बिना अभ्यास किये ही कौवा  स्वर्गलोक गया और इंद्र से बोला - मै भू - लोक से आया हूँ। गाना सुनना चाहता हूँ। पहले मेरी बहन आई थी, अब मै आया हूँ। इंद्र ने सोचा - भाई और बहन का रंग - रूप तो मिलता है।  बहन का कण्ठ तो बड़ा सुरीला था। इसका भी सुरीला होगा। अब इसका भी सुन लेते है । इंद्र ने सारे देवताओं को भी सुनने के लिए आमंत्रित किया सभागार सभी देवताओं से भर गया। इंद्र ने कौवे से कहा अच्छा अब आप अपना गाना सुनाओ। कौवे ने गाना शुरू किया। कुछ ही क्षण में सभी चिल्ला उठे बन्द करो, बंद करो। हमारे कान फटे जा रहे है इंद्र ने कहा हे भू - लोक वासी ! बन्द करो अपना काँव - काँव करना और चले जाओ यहाँ से। कौवा सकपका गया और सोचने लगा - हार तो नहीं मिला, तिरस्कार ही मिला। कोयल ने ठीक ही कहा था कि बोली को बदले बिना जहाँ भी जाओगे निकाल दिए जाओगे। आदर नहीं मिलेगा।  इस लिए संसार में भी बोल का ही महत्व है। 

सीख - आज कि दुनियाँ में भी अगर कोई व्यक्ति कड़वे, कटाक्ष और कर्कश बोल बोलता है तो लोग उस से दूर ही रहते है। लेकिन कोई व्यक्ति सुमधुर, मिठे, अदारयुक्त बोल बोलता है तो सभी उसका सम्मान करते है। कहा भी जाता है - बोल के घाव तीर और तलवार से भी तीखे होते है। और इतिहास इसका साक्षी है कि कृष्ण के मधुर वचन सुनकर अर्जुन का मोह समाप्त हो गया और दूसरी ओर द्रोपदी के कटाक्ष के दो बोल से महाभारत हो गया। मंथरा ने अपने कड़वे बोल से कैकेई के अन्दर राम के प्रति भावना ही बदल दी। ऐसे अनेक उदहारण हमारे सामने है।  इस लिए मिठे बोलो, कम बोलो, आदर युक्त बोलो येही सफलता का राज है।