Tuesday, May 20, 2014

Hindi Motivational Stories ........................अशान्ति का कारण अहंकार

" अशान्ति का कारण अहंकार "

       मुम्बई में एक सेठ रहते थे जिनका नाम था सोमनाथ। उन्हें भक्ति और पूजा में विशेष रुचि थी। वे समय - समय पर किसी - न - किसी साधु - संत को अतिथि  के रूप में बुलाया करते और उनकी सेवा करते। उनके पास  धन सम्पत्ति होने के बाद भी वे बहुत अशान्त रहते थे। एक बार सेठ जी के ही निमन्त्रण पर एक सन्यासी उनके यह आकर ठहरे हुए थे। सेठ जी ने सन्यासी जी को बताया कि उनके जीवन में अशान्ति है।

         दोपहर भोजन के बाद सन्यासी और सेठ एक साथ बैठे कुछ बातें की उसके बाद सेठ ने सन्यासी जी को कहा चलिये मैं आपको अपने बंगले के विभिन्न भाग दिखता हूँ। बंगला देखने के बाद सेठ जी सन्यासी को बगीचे में ले गए। जहाँ रंग-बिरंगे फूलों की शोभा देखने- जैसी थी। और सेठ जी, अँगुली के इशारे से सन्यासी जी को बता रहे थे - इस फल का पौधा मैंने सिंगापुर से मँगाया था, वह सामने जो पेड़ है, उसकी कलम ऑस्ट्रेलिया से मंगायी गयी थी। और वह जो फूल दिखायी दे रहा है, वह जापान से लाया गया था.…

        और वो देखो वो मेरी ही फैक्टरी है जहाँ तीन हज़ार लोग काम करते है। और एक फैक्टरी का काम चल रहा है.। मेरे पास चार मोटर कार है। इस तरह सेठ अपनी सम्पत्ति के बारे में बताते जा रहे थे। और सन्यासी केवल …" हूँ , हूँ , हूँ  " ही करते रहे।

         जब वे वापस अपनी बैठक में लौटे तो सामने एक विश्व का नक्शा लटक रहा था दीवार पर। सन्यासी महोदय ने सेठ जी से कहा - नक़्शे की तरफ इशारा करते हुए , सेठ जी, इस में भारत देश को कहा दिखाया है ?सेठ जी ने भारत देश पर अँगुली रख दी। सन्यासी जी ने फिर पूछा - सेठ जी, इस में मुम्बई को कहाँ दिखाया है ? सेठ जी फिर अँगुली रख दी। उसमें तो मुम्बई को एक बिन्दु के ही रूप में दिखाया गया था। तब सन्यासी ने कहा सेठ जी इस में आपका बँगला और कारखाना कहाँ दिखाया है ? यह सुनकर सेठ जी को लज्जा का अनुभव हुआ क्यों कि जब मुम्बई को ही नक़्शे में बिन्दु - सम दिखाया है तो इतने बड़े विश्व में सेठ जी के बंगले और कारखाने को कैसे दिखाया जा सकता था।

         सेठ जी समझ गये कि सन्यासी जी ने उसके अभिमान को दूर करने के लिए ही यह सब पूछा है। फिर सन्यासी ने समझाया की शान्ति का अनुभव करने के लिये अभिमान और अंहकार को छोड़ना होगा। क्यों की अशान्ति का मुख्य कारण ही अहंकार है। सच्ची शान्ति ईश्वर की याद और उसकी महीमा में है। जो शास्वत सत्य है। सेठ जी को सारी बात समझ में आयी और वे ईश्वर की अराधना में रहने लगे।

सीख - हमारे पास चाहे कुछ भी हो लेकिन उसका अभिमान न हो क्यों की ये संसार ईश्वर की सुन्दर रचना है। हम भी उसकी रचना है। रचना से बड़ा रचने वाला है फिर अभिमान क्यों ?


Monday, May 19, 2014

Hindi Motivational stories - शालिग्राम और शिव

शालिग्राम और शिव

       बहुत पुरानी बात है बहुत समय पहले की बात है, कुरक्षेत्र में शालिग्राम नाम का एक बालक रहता था। और हुआ ऐसा की बचपन में ही उनके पिता शिवानन्द चल बसे। शिवानन्द बड़े सज्जन पुरुष थे। लेकिन बालक शालिग्राम को उनका सहयोग नहीं मिल पाया।

              और शालिग्राम की माँ की केवल एक ही आशा थी की शालिग्राम अपने बाप जैसा गुणवान बने। इस लिए वह हर तरह शालिग्राम का ध्यान रखती उसका इंतज़ार करती रहती। लेकिन शालिग्राम को खेल - कूद के शिवाय और कुछ न सूझता था। और धीरे धीरे वह और ही कुसंग में गिरता जा रहा था। और उसे माँ की याद सिर्फ खाना खाने और पैसे लेने के लिए ही आती थी।

                     अब शालिग्राम रात को देर घर लौटता। माँ देर तक उसकी प्रतीक्षा करती, उसे समझाती परन्तु बालक  कहाँ मानता था ! और माँ  उसे केवल एक बात मानने को कहती कि तुम ऐसा कोई कर्म न करो जिससे तुम्हारे माता-पिता के नाम को दाग लगे।

     शालिग्राम यह सब बाते अपने दोस्तों को सुनाया करता। दोस्त सुनते -सुनते तंग आ गये। आखिर एक दिन उन्होंने कहा - तुम एक दिन माँ का काम तमाम क्यों  नहीं करते !उसके लिए साधन तुम्हें हम देंगे। शालिग्राम ने कहा - हाँ, अब ऐसा करना  पड़ेगा। और वो दोस्तों से साधन लेकर रात को घर की तरफ चल दिया।

      उस दिन वह रात को 12 बजे घर पहुँचा। सर्दी का मौसम था। वर्षा हो रही थी और वह ठंड के मरे तड़प रहा था। माँ बेचारी तो पहले से  इंतज़ार कर रही थी। उसने उसे वस्त्र दिये, खाना खिलाया और प्यार करते हुए वे शिक्षा भी देती रही। शालिग्राम ने तो मन में कुछ और ही ठानी हुई थी। उसी सोच को सोचते सोचते उसे नींद आ गई और कुछ देर बाद स्वप्न में को गए और स्वप्न में भी उसी उधेड़बुन में रहा। स्वप्न में उसने मौका पाकर अपनी माँ के साथ सदा के लिए सम्बन्ध तोड़ने का कार्य कर लिया और अपनी माँ के शीर्ष को बाहर ले चला ताकि दोस्तों को अपनी वफादारी का प्रमाण दिखाये।

     स्वप्न में ही शालिग्राम ने देखा कि वह धीरे - धीरे चल रहा था। बाहर वर्षा के कारण रस्ते में फिसलन हो रही थी। शालिग्राम फिसल कर कुहनियों के बल गिर पड़ा.…  .! 'हाय - यह शब्द उसके मुख से अनायास ही निकल गया। परन्तु इसके साथ ही एक कोमल ध्वनि उसके कानो में पड़ी - बेटा, तुझे कहीं चोट तो नहीं आई। वह इधर - उधर देखने लगा परन्तु यह आवाज़ तो उसकी माँ के शीर्ष से सुनाई दी थी। शालिग्राम की आँखों में पानी भर आया। वह अपने को कोसने लगा। वह माँ ,माँ ,माँ.… ऐसे चिल्लाने लगा। स्वप्न में 'माँ - माँ कहते उसकी आवाज़ बाहर भी सुनाई दी। माँ भागी - भागी उसके पास पहुँची और उसने कहा - बोलो बेटा ? शालिग्राम अपने सामने माँ को खड़ा देख आश्चर्याचाकित हुआ। वह सिसक -सिसक कर, 'माँ - माँ ' कहता हुआ अपनी माँ के गले से लग कर बोला - माँ, बताओ मेरे लिए क्या आज्ञा है ? मैं तुम्हे क्या दे सकता हूँ ? जो मेरे पास है, वह मैं अवश्य दूँगा।  माँ बोली - अच्छा तो आज मुझे अपनी बुराइयों का दान दे दो।

सीख - एक बात अपने सुनी होगी ठोकर से ही ठाकुर बनते है। लेकिन साद विवेक से काम लिया जय तो समय से पहले शै मार्ग पर चल सकते है वर्ना ठोकर खाने के बाद तो ठिकाने पर आ ही जाना है और जो ठोकर खाने के बाद भी नहीं सुधरते तो उनके लिए क्या काहे ?................  आप सोचिए।


Saturday, May 17, 2014

Hindi Motivational Stories.....................

" अन्न का मन पर प्रभाव "

       अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को हम सुनते है और सोचते भी है हाँ बात तो सही है इस के बहुत से उदहारण हम अपने धर्मिक और विज्ञानं के किताबों में पढ़ते है। जैसा अन्न वैसा मन जैसा पानी वैसी वाणी इस तरह के स्लोगन्स भी हम पढ़ते रहते है। पर इस बात का हमारे मन और बुद्धि पर कितना असर होता है या हम इस बात का कितना चिन्तन करते है और अनुकरण जीवन में कहा तक करते है, इस बात पर निर्भर होता है।

       इस बात का एक सुन्दर उदहारण महभारत के एक प्रसंग में आता है। युद्ध पूरा होने के बाद भीष्म पितामह सर - शय्या पर लेटे हुए थे और अर्जुन को धर्मोपदेश दे रहे थे। धर्म की बड़ी गम्भीर लाभदायक बातें बता रहे थे। और द्रौपदी भी वहाँ खड़ी थी, उसको हँसी आ गई। पितामह का ध्यान उधर गया और पूछा बेटी क्यों हँसती हो ? क्या बात है ?

       द्रौपदी ने कहा - ऐसी कोई खास बात नहीं है, फिर पितामह ने कहा - बेटी तुम्हारी हँसी में कुछ रहस्य है। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह आपको बुरा तो नहीं लगेगा। पितामह बोले - नहीं बेटी , बुरा नहीं लगेगा। तुम जो चाहो पूछो। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह, आपको स्मरण है, जब मेरी इज़्ज़त दुर्योधन की सभा में उतारने का प्रयत्न दुःशासन कर रहा था, उस समय मैं रो रही थी, चिल्ला रही थी। आप भी वहाँ उपस्थित थे। लेकिन उस समय आपका यह ज्ञान - ध्यान का उपदेश कहाँ गया था ?

       भीष्म बोले - तुम ठीक कहती हो, बेटी। उस समय मैं दुर्योधन का पाप भरा अन्न खाता था, इस लिए मेरा मन मलीन हुआ पड़ा था। मैं चाहते हुए भी धर्म की बातें उस समय नहीं कह सका। और आज अर्जुन के तीरों ने उस रक्त को निकाल दिया है, इसलिए मेरा मन शुद्ध हो गया है। इस लिए आज धर्मोपदेश दे रहा हूँ।

सीख - धर्म के रक्षक भीष्म पितामह, जिनके आगे मानव नत मस्तक हो जाते, वह स्वयं सब कुछ भूले हुए थे क्योंकि पाप भरे अन्न का प्रभाव उनके मन पर पड़ा हुआ था। इस लिए अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को जान कर हमें अन्न को उतनी ही शुद्धता से ग्रहण करना चाहिए।


Friday, May 16, 2014

Hindi Motivational Stories ..............

" सहनशीलता शहनशाह बनाती है "


          एक बार की बात है कि महात्मा गाँधी जी, पानी वाले जहाज में सफर कर रहे थे। शाम का समय था। सभी यात्री अपने - अपने केबिन से बाहर आकर खुले में बैठे थे। कुछ यात्री मनोरंजन के अनेक साधनों से स्वयं को तथा अन्य यात्रियों का मनोरंजन कर रहे थे, तो कुछ यात्री जहाज के किनारे पर खड़े होकर समुद्र में उठती लहरों का आनन्द ले रहे थे। परन्तु गाँधी जी एक कुर्सी में बैठे ध्यान - मग्न होकर एक पुस्तक पढ़ रहे थे। 
     
        उसी समय एक अंग्रेज आया जो गाँधी जी से चिढ़ता था। वह गाँधी जी के हाथ में कागज के चार पेज जिन पर कुछ लिखा हुआ था और एक पिन के साथ जुड़े थे। वो पेपर्स गाँधी जी को पकड़ा कर चला गया और दूर एक कोने में खड़े होकर गाँधी जी के चेहरे में उभरते भावों का अध्ययन करने लगा। गाँधी जी ने उन पृष्ठो को क्रमानुसार खोला तथा उसे पूरा ऊपर से नीचे तक पढ़ा। उन कागजों पर बहुत ही बुरे तथा असभ्य शब्दों में गाँधी जी के लिये गालियाँ लिखी हुई थी। चारों पृष्ठो को पढ़ने के बाद गाँधी जी उस अंग्रेज के पास गये। गाँधी जी को अपने तरफ आते देख कर अंग्रेज अपने सामने पड़े पेपर लेकर पढने का नाटक करने लगा। गाँधी जी उसके पास पहुँचकर एक कुर्सी लेकर उसके सामने बैठ गये और बड़े ही प्यार से बोले - श्रीमान जी, मुझे इस पिन की अत्यन्त आवश्यकता थी, जो अपने मुझे दे दिया। इस लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद। बाकी इन कागजों की मुझे आवश्यकता नहीं है, क्यों कि ये मेरे काम की चीज़ नहीं है इसलिये इन्हें आप वापस अपने पास ही सम्भाल कर रखें। हो सकता है यह आपके काम आ जाये। इतना कह कर गाँधी जी ने बड़े प्यार से उस अंग्रेज़ से हाथ मिलाया तथा वापस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गये। 

       अब अंग्रेज सोचने लगा मैंने इस व्यक्ति के लिए इतने असभ्य शब्दों का प्रयोग किया, परन्तु इसका तो इस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा उल्टा उसने मुझे धन्यवाद दिया। यह सोच- सोच कर अंग्रेज़ आत्म -ग्लानि से भर गया तथा महात्मा गाँधी जी की महानता के आगे नतमस्तक हो गया। 

सीख - सहनशीलता वाला व्यक्ति खुद शहनशाह होता है उसकी सोच को कोई बदल नहीं सकता चाहे वो किसी भी तरह का प्रयोग करे बुरे शब्दों का या बुरे व्यवहार का क्यों की सहनशील व्यक्ति अन्दर से सम्पन होता है इस लिये वो बाहर की बातों से परेशान नहीं होते। 



Friday, May 9, 2014

Hindi Motivational Stories - " दर्पण "

दर्पण 

        महान दर्शन शास्त्री सुकरात शक्ल से अति बदसूरत थे। यदि कोई उनके विचार सुने बिना ही पहली बार उन्हें देखे तो घृणा हो जाये परन्तु उनके उच्च विचार सभी को पहले ही बार में अपनी ओर आकर्षित कर लेते थे। एक बार सुकरात वृक्ष की शीतल छाँव में बैठे आइने में अपना मुख निहार रहे थे। उसी समय उनका एक शिष्य वहाँ आ गया। सुकरात को यह किया कलाप करते देख न चाहते हुए भी उसे हंसी आ गई। उसने हंसी को दबाने के बहुत प्रयास भी किया परन्तु वह सफल न हो सका। शिष्य को हँसता देख सुकरात ने उसकी हंसी का कारण पूछा। शिष्य ने सुकरात के प्रश्न को टालना चाहा परन्तु सुकरात के बार -बार पूछने पर शिष्य को झुकना ही पड़ा और उसने डरते हुए कहा कि - आप शक्ल से सुन्दर भी नहीं है और अपने चेहरे को आइने में निहार रहे है अंतः यह देखकर मुझे हंसी आ गई। मेरी इस गलती को माफ़ करे। 

         यह सुनकर सुकरात ने बहुत ही अच्छा उत्तर दिया - देखो, मैं दर्पण में अपना चेहरा यह सोच कर नहीं देख रहा था कि, ' मैं चेहरा देखकर ईश्वर को दोष दूँ कि उसने मुझे इतना बदसूरत क्यों बनाया ? बल्कि दर्पण इसलिए देखता हूँ कि मैं ऐसे कौन से उत्तम कर्म करूँ जो कि मेरे चेहरे की कुरूपता को ढक ले। 

        सुकरात का रहस्य भरा उत्तर सुनकर शिष्य ने सोचते हुए कहा - फिर तो सुन्दर व्यक्ति को अपना चेहरा दर्पण में नहीं देखना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में सुकरात ने कहा - नहीं, सुन्दर व्यक्ति का भी अपना चेहरा दर्पण में यह सोच कर अवश्य देखना चाहिए कि मैं ऐसे कौन से अच्छे कार्य करूँ, ताकि मेरी सुन्दरता सदैव ही बनी रहे। मैं ऐसे कोई गंदे कर्म न करूँ जिससे मेरी सुन्दरता धूमिल हो जाये। 

सीख - अच्छे विचार और श्रेष्ठ कर्म मनुष्य को महान बनाते है। इसलिए रोज जब हम दर्पण में देखे तो चेहरे को  ठीक रखने के साथ अच्छे कर्म करने का भी मन में संकल्प ले और वैसे ही करें। 

Hindi Motivational Stories - " जीवन की सफलता "

जीवन की सफलता 

     एक बार एक शिक्षक ने ब्लैक बोर्ड पर एक रेखा खींची और छात्रों से पूछा कि इस रेखा को बिना मिटाये छोटा करो। सभी छात्र प्रश्न का उत्तर सोचने लगे। इस प्रश्न का उत्तर किसी के मस्तिष्क में नहीं आ रहा था। इस लिए सभी शांत थे। तभी एक छात्र उठा। उसने हाथ में चॉक ली और उसी रेखा के नीचे में एक उससे भी बड़ी रेखा खीच दी। छात्र के इस उत्तर से शिक्षक ने प्रसन्न होकर कहा कि इस तरफ के सवाल तुम्हारे जीवन में भी आयेंगे और तुम्हें अपने से बड़े दिखाई देंगे। लेकिन तुम अपनी सूझ-बुझ से उससे भी बड़े बन जायेंगे और तब तुम्हे लालसा होगी कि उनसे भी ऊँचे बनूँ , परन्तु इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्हें गिराना नहीं, अपितु स्वयं को और योग्य बनाना। यही जीवन की सफलता है। 

सीख - जीवन में सफलता पाने के लिए किसी को गिराना नहीं है सच्ची सफलता तो सब को साथ लेकर चलने में है। 

Hindi Motivational Stories - " बड़ा कौन ? "

बड़ा कौन ?

    एक  राजा ने अपने तीन बच्चों की महानता की परीक्षा लेनी चाही। उसने सारी सम्पति के तीन हिस्से करके एक हीरा अपने पास रख लिया और कहा कि यह उसे मिलेगा जो तीनों में से सब से महान कार्य करेगा। एक मास की निश्चित अवधि के बाद तीनों ने अपनी-अपनी महानताये पेश की। पहले राजकुमार ने कहा कि एक व्यक्ति ने मेरे पास दो लाख रुपये अमानत के रूप में रखे और मैंने उसे ज्यूँ के त्यूँ लौटा दिये। राजा ने कहा ये क्या महानता है, ना लौटाते तो तुम बेईमान कहलाते। दूसरे राजकुमार ने कहा मैंने एक डूबते हुए बच्चे को बचाया। राजा ने कहा यह तुम्हारा फर्ज था। तीसरे राजकुमार ने कहा कि मेरा दुश्मन एक ऐसी चट्टान पर सोया पड़ा था जिसके पास नदी बह रही थी। यदि वह जरा भी करवट लेता तो नदी में गिर पड़ता। मैंने उसे उठाकर सुरक्षित स्थान पर सुला दिया। राजा बड़ा प्रभावित हुआ। हीरा तीसरे राजकुमार को मिल गया। क्यों कि उसका कार्य वास्तव में हिरे तुल्य था।

सीख - हमें महान बनने के लिए अपने अन्तर मन में सब के प्रति समान भाव रखना है। चाहे दोस्त हो या दुश्मन हो समय पर मतभेद मिटाकर सब की सेवा करना है। आपके कर्म इतने महान हो जो दुश्मन भी आपको सलाम करे।