Tuesday, March 18, 2014

Hindi Motivational & Inspirational Stories - " बात का बतंगड़ "

बात का बतंगड़ 

             एक गॉव  ब्राह्मण रहता था जो पंडिताई करके अपना जैसा - तैसा भरण - पोषण करता था।  उसकी पत्नी बहुत भोली - भाली महिला थी जो कोई भी बात को बमुश्किल मन में छुपा पाती थी। एक दिन ब्राह्मण ने रोजी रोटी के लिए शहर जाने कि इच्छा जताई तो ब्राह्मणी ने हाँ में हाँ मिला दी और दूसरे दिन सुबह पत्नी ने भोजन आदि दे कर ब्राह्मण को विदा किया। 

            चलते - चलते कुछ समय के बाद एक छायादार जगह देख कर ब्राह्मण रुका , भोजन की पोटली खोली और जैसे ही रोटी का टुकड़ा मुहॅ में डाला, ऊपर से उड़ते हुए एक बगुले का पंख भोजन पर गिर गया।  उन्होंने मन में कहा - राम - राम, छी : छी , बड़ा अनर्थ हो गया, सारा भोजन अपवित्र हो गया, मै भी अशुद्ध हो गया, अब मुझे घर को लौटना होगा। ब्राह्मण घर की ऒर चल दिया। पति को घर आया देख पत्नी ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।  पंडितजी ने बहुत टालने की कोशिश की किन्तु बाह्मणी की ज़िद्द के आगे हार गए और उसने वचन लिया कि पत्नी ये बात किसी को नहीं बतायेगी। और ब्राह्मणी ने वायदा कर लिया। परन्तु अगले दिन जब वह कुँआ पर पानी भरने गई तो एक धोबिन ने बातों - बातों में सारा राज उससे उगलवा लिया।  और ब्राह्मणी ने बता दिया कि पंडितजी के भोजन में बगुले का पंख गिर गया था इसलिए वे वापस लौट आए थे, राम - राम, छी : छी , बड़ा अनर्थ हो गया। 

            धोबिन ने इस बात को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हुए अपनी सहेली से कहा - क्या तूने सुना कि कल पंडितजी के मुख में एक बगुला घुस गया, गजब हो गया।  यह बात उसकी सहेली ने दूसरी सहेली से इस प्रकार कहा - बड़ा आश्चार्य! पंडितजी के मुँहा में तो बगुले आते और जाते है। बात बढ़ते - बढ़ते सारे गॉव में और आस - पास के गाँवो में भी फ़ैल गई कि पंडित जी बड़े करिश्माई है, उनके मुख से जादुई शक्ति से तरह - तरह के पक्षी निकलते है। 

            अब एक हुआ ऐसा की कई गाँवो के लोग इकट्ठे हुए और ग्राम पंचायत के सामने यह आग्रह रखा कि पंडित जी चमत्कार दिखाएँ। पंडित जी बड़े असमंजस में थे। वे समझ गए थे कि उनकी भोली पत्नी के मुख से फिसली बात को लोगों ने बतंगड़ बना लिया है पर अब करते भी क्या ? पंचायत में हाज़िर होना ही पड़ा।  उन्होंने पीछा छुड़ाने के लिए यह डर दिखाया कि जो भी मेरे मुख से निकलते पंख देखेगा, वह पक्षी बन जाएगा। यह सुनकर सभी के होश उड़ गए और सभी भाग खड़े हुए।  किसी - किसी ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि पंडित जी मानव को पक्षी बनाने में माहिर है। 



सीख - किसी कि कही सुनी बातों पर विश्वास न करे अपना विवेक का इस्तेमाल करे और कोई भी बात हो उसे जैसा है वैसा बताव अगर नहीं आता तो उसे बड़ा चढ़ा कर नहीं बताय। वर्ना बात का बतंगड़ बन जायेगा। 

Monday, March 17, 2014

Hindi Motivational & Inspirational Stories - " करुणा की भाषा "

करुणा की भाषा 

            किसी वन के आश्रम में एक ऋषि अपने शिष्य रघुवीर के साथ रहते थे। रघुवीर एक आज्ञाकारी शिष्य था।  एक दिन ऋषि बोले - वत्स रघुवीर , तुमने बहुत समय तक मेरी सेवा की है। इस अवधि में मेरे पास जो कुछ भी ज्ञान था, वह सब मैंने तुम्हें सिखला दिया है। मै बहुत समय तक इसी आश्रम में रहा। इस कारण मै मात्र दो ही भाषाये सीखा पाया हूँ। लेकिन मै चाहता हूँ कि तुम अनेक स्थानों का भ्रमण करो। इस अवधि में तुम संसार की अधिकधिक भाषाये सीख कर वापस आऒ। आज्ञाकारी रघुवीर देश देश घूमने निकल पड़ा। उसने मन ही मन संकल्प लिया - मै संसार की अधिक से अधिक भाषाये सीख कर वापस लौंटूँगा। रधुवीर नए - नए स्थानों से गुजरता रहा। लगभग दस वर्ष बीत गये। उसने संसार की अनेक भाषाये सीख ली और कुछ धन भी इकट्टा कर लिया। सब कुछ लेकर वह दस साल के बाद गुरु के आश्रम पहुंचा।


            एक लम्बी यात्रा के पश्चात् वह आश्रम आया, उसने उत्साह पूर्वक आश्रम में प्रवेश किया परन्तु यह क्या ! गुरूजी रुग्णवस्था में शैय्या पर पड़े थे। यह देख कर उसे थोड़ा दुःख तो पहुँचा लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं आई। उसने गुरु को प्रणाम किया और अपनी बात छेड़ दी - गुरूजी ! अब आपका शिष्य वह रघुवीर नहीं रहा बल्कि बहुत कुछ सीख कर आया है।  ऋषि शान्त भाव से सुनते रहे।  फिर अपने टूटते हुए स्वर को सयंत कर बोले - वत्स रघुवीर! क्या तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दोगे ? क्यों नहीं गुरूजी ! आप आज्ञा तो कीजिये। ऋषि बोले - पुत्र ! तुमने बहुत सारे स्थानों का भ्रमण किया है। क्या तुम्हें इन स्थानों पर कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई दिया जो बेबस, लाचार होकर भी दूसरों की मदद कर रहा हो ? तुम्हें कोई ऐसी माँ मिली जो अपने शिशु को भूखा देख कर अपना दूध दूसरे शिशु को पिला रही हो जिसकी माँ नहीं। ऐसे लोग तो पुरे संसार में मिले थे गुरूजी ! शिष्य उत्साहित होकर बोला। क्या तुम्हारे मन में उनके लिए सहानुभूति जागी ? क्या तुमने उनसे प्रेम के कुछ शब्द कहे ?


            ऋषि का ऐसा प्रश्न सुनकर रघुवीर सकते में आ गया।  उसे ऋषि से ऐसे प्रश्न की कदापि आशा नहीं थी। वह बोला - गुरूजी ! मै तो आपकी आज्ञा का पालन करता रहा।  मुझे इतना समय कहाँ था, जो मै यह सब करता। इतने वर्षो में मैंने पाँच सौ भाषाये सीख ली है। इतना कहकर रघुवीर ने गुरु कि तरफ देखा और पाया कि उनके मुख पर एक रहस्मयी मुस्कान आकर चली गयी। ऋषि बोले - वस्त रधुवीर ! तुम अब भी प्रेम, सहानुभूति, और करुणा की भाषा में वीर नहीं हो (भाषा नहीं जानते ) अगर तुम प्रेम, करुणा जैसे भाषा सीख लेते तो तुम दुखियो का दुःख देख मुँह न फेर लेते। इतना ही नहीं, तुम्हें अपने गुरु की रुग्णवस्था भी नहीं दिखाई पड़ी। तुमने मेरा कुशल-क्षेम जाने बिना ही अपनी कहानी छेड़ दी। इतना कहकर गुरु कुछ क्षणो के लिए रुके।  उनका ह्रदय बैठा जा रहा था।  वे अपने ह्रदय को सयम कर पुनः बोले - रघुवीर ! मैंने जिस उद्देश्य से तुम्हे भेजा था, वह पूरा नहीं हुआ। मै तुम्हें करुणा कि भाषा सीखना चाहता था।  हो सके तो यह भाषा अवश्य सीख लेना। इतना कहकर गुरु जी सादा के लिए शांत हो गये। रघुवीर को भाषा सीखने का उद्देश्य समझ में आ गया। उसने उसी समय अपने आप को करुणाशील और प्रेम स्वरूप बनाने का ढूढ संकल्प कर लिया।


सीख - करुणा और प्रेम के बिना आपकी तपस्या पूरी नहीं हो सकती इस लिए भाषा चाहे अपने हज़ारों सीख ली हो पर जब तक प्रेम और करुणा कि भाषा को नहीं जानते तो आपका जीवन व्यर्थ ही है। 

Sunday, March 16, 2014

Hindi Motivational & Inspirational Stories - " अहिंसा की विजय "

"अहिंसा की विजय"

             एक बार महात्मा बुद्ध एक स्थान से किसी दूसरे गॉव जाना चाहते थे। जिस गॉव जाना चाहते थे, उस गॉव का एक छोटा - सा रास्ता जंगल से होकर जाता था। जंगल में अंगुलिमाल नाम का एक बहुत खूँखार, निर्दयी एवं क्रूर डाकू रहता था। वहाँ से जो भी व्यक्ति जाते थे, वह उसे लूटकर उसके हाथों की अंगुलियाँ काट लेता था और फिर उन्हीं अंगुलियों की माला बना कर एवं पहन कर स्वछन्द घूमता था। ऐसे भयानक डाकू से सभी लोग डरते थे और दूसरे लम्बे मार्ग को पार करके दूसरे गॉवो की यात्रा करते थे।


            जब बुद्ध उसी रस्ते से जाने लगे तो लोगों ने उन्हें खतरे से आगाह करते हुए बहुत समझाया कि आप उस रस्ते से न जाये।  परन्तु महात्मा बुद्ध उसी रस्ते से अकेले चल पड़े। जब वे घनघोर जंगल से गुजर रहे थे तो किसी व्यक्ति ने भरी और ऊँची आवाज़ में आदेश दिया - रुक जाओ, एक कदम भी आगे बढ़ाया तो जान से हाथ धोना पड़ेगा। किन्तु बुद्ध अपनी मस्त चल से चलते ही रहे। उस व्यक्ति ने बुद्ध कि तरफ भयानक आवाज़ करते हूआ उन्हें पकड़ने हेतु दौड़ लगायी। जब वह पास आ गया तो उसने फिर रुकने को कहा, उसकी आँखे गुस्से से लाल थी, उसके आँखों में खून भरी थी और हाथ में एक बहुत धारवाला हथियार था। महत्मा रुख गए।

              उसने बुद्ध से पूछा - जानते हो मै कौन हूँ ? बुद्ध ने कहा - हाँ, लोगों ने बताया कि आप अंगुलिमाल हो। उसने फिर पूछा - क्या मुझे देखकर तुम्हे डर नहीं लग रहा है ? और तुम दुसरो कि तरह मुझे देख कर भाग भी नहीं रहे हो।  बुद्ध ने कहा - नहीं, बिल्कुल नहीं। वह पुनः कहने लगा कि मै लोगों कि अंगुलियाँ काट लेता हूँ और उसकी माला बनाकर पहनता हूँ।  उसने डरावनी शक्ल बनाकर कहा - देखो, यह माला ! बुद्ध ने इसके उत्तर में निर्भयता पूर्वक दोनों हाथ उसके सामने बढ़ा दिये।  ऐसा दृश्य जीवन में पहली बार देखकर अंगुलिमाल अवाक रह गया। उसे जीवन में पहली बार ऐसा कोई व्यक्ति मिला था। जो इतना निर्भय अचल अडोल था। ऐसे क्रूर हिंसा पर उतारू व्यक्ति के प्रति भी करुणा एवं दया का भाव था। फिर भी उसने महत्मा बुद्ध के दोनों हाथ एक हाथ से पकड़ कर दूसरे हाथ में हथियार पूरी शक्ति से ऊपर उठाकर हाथ कटाने को बढ़ाया और उसी समय बुद्ध की आँखों में आँखे डाल कर देखता रहा और जैसे ही नज़र से नज़र मिली उस डाकू पर उनकी अहिंसा का ऐसा असर पड़ा कि वह हथियार दूसरी तरफ फेंक कर उन के चरणों पर गिर पड़ा और गिड़गिडा कर प्रार्थना करते हुए कहने लगा - बताईये आप कौन है ? इतने शान्त और निर्भय। महत्मा बुद्ध उसे उठाया और  एक पेड़ के नीचे बैठकर उसे उपदेश दिया और अपने रस्ते चल दिए।

सीख - हिंसा करने वाले कितने भी शक्तिशाली हो अहिंसा के आगे उसकी हार निश्चीत है। इस लिए अहिंसा को धारण करो।

Saturday, March 15, 2014

Hindi Motivational & Inspirational Stories - " दुनिया रैन बसेरा "

" दुनिया रैन बसेरा " 

                 कहते है कि पश्चिम में एक बड़ा ही ख्याति प्राप्त फकीर हुआ, नाम था उसका इब्राहिम। बात उन दिनों की है जब वो एक बादशाह था। एक दिन वह अपने महल में विश्राम कर रहा था।  उसे बाहर से कुछ झगड़ने की आवाज़ सुनाई दी। एक फकीर उसके द्वारपाल से कहा रहा था कि आज रात इस सराय में उसे विश्राम करना है। द्वारपाल ने कहा _ तुम पागल हो ?  देखते नहीं कि यह बादशाह का महल है। और किसी के महल को सराय कहना, रैन बसेरा कहना उस का कितना बड़ा अपमान है ? यदि तुम्हें रात बितानी ही है तो बस्ती में जाओ, वहाँ तुम्हें कोई सराय मिल जायेंगी। उस शोर गुल की आवाज़ को सुनकर बादशाह खुद द्वार तक आये और फकीर को अन्दर ले गये।

                   और एक जगह पर बिठाकर बादशाह ने कहा  - तुम अंधे हो, आँखे होते भी दिखाई नहीं देता कि यह सराय नहीं, मेरा महल है -  फकीर ने कहा। हाँ लेकिन यह बताओ कि जब मै कुछ समय पहले यहाँ आया था उस समय कोई दूसरा व्यक्ति यहाँ था, वह कौन था ? वह मेरे वालिद थे, जो स्वर्ग सिधार गये - बादशाह ने कहा। फकीर ने कहा - हाँ , उससे भी कुछ समय पूर्व जब हम यहाँ अाये थे उस समय एक तीसरा व्यक्ति इस सिंहासन पर बैठा था, वह कौन थे ? हाँ , वह हमारे दादा जी थे, उनका भी स्वर्गवास हो गया - बादशाह ने कहा।  वह फकीर हॅसने लगा और उसने कहा - जब मै दोबारा यहाँ आऊँगा तो यह पक्का है कि यहाँ तुम्हारा बेटा मिलेगा। इसी लिये तो मै इसे सराय कहता हूँ। तीन बार आया , अलग अलग लोगों को ठहरा पाया।  फिर तुम्हारा महल कैसे हुआ ? कुछ समय के बाद लोग यहाँ आते है और चले जाते है। फिर तेरा महल कैसे हुआ ? सराय नहीं तो क्या है ? कहते है उस फकीर की ये बाते सुनकर इब्राहिम को एक गहरा झटका लगा - ऐसे, जैसे बिजली। उसकी आँखें खुल गई। उसने फकीर से कहा - आप बैठिये, मै चलता हूँ।


सीख - ये दुनिया एक रैन बसेरा है इस सत्य को जान लेने से हम इस संसार में साक्षी हो कर कर्म करेंगे और एक सेवा भाव से कर्म करेंगे जो की एक सुंदर विधि है सुख शान्ति में रहने का। …
         

Friday, March 14, 2014

Hindi Inspirational & Motivational Stories - " नम्रता द्रारा नव निर्माण "

" नम्रता द्रारा नव निर्माण " 


            बात बहुत पुरानी है। एक बहुत सुन्दर बाग़ था। उस में तरह तरह के फूल खिले हुए थे। बाग़ में एक तरफ फूलों की ही क्यारी थी। उन गुलाबों में एक गुलाब सब से बड़ा था।  सारे फूल उसे ' राजा गुलाब ' कहा कर पुकारते थे। अब राजा गुलाब अपने को इस तरह सम्मान मिलते देख कर घमण्डी हो गया था। वह किसी भी फूल से सीधे मुँह बात नहीं करता था। परन्तु अन्य फूल उसकी यह नादानी समझते हुए भी उसे सम्मान देते रहे। अक्सर ऐसा होता है। हम अपनी विशेषता के आगे दुसरो को कम समझते है। और येही बात हुआ।



           राजा गुलाब के पौधे की जड़ के पास एक बड़ा काला पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था।  वह अक्सर उस पत्थर को डाँटता, ऒ काले पत्थर ! तेरी कुरूपता के कारण मेरा सौन्दर्य बिगड़ता है। तू कहीं चला जा। पत्थर शान्त भाव से राजा गुलाब को समझाता , इतना घमण्ड ठीक नहीं। अपना सौन्दर्य देख दूसरों को तुच्छ बतलाना तुम्हारे हित में नहीं है। राजा गुलाब अकड़ कर कहता, अरे कुरूप पत्थर ! तेरा मेरे आगे क्या सामना ? तू तो मेरे चरणो में पड़ा है।

           एक दिन एक व्यक्ति उस बाग़ में आया।  घूमते - घूमते नज़र उस राजा गुलाब के पास पड़े हुऐ काले पत्थर पर पड़ी। उसने वह गड़ा हुआ पत्थर वहाँ से उखाड़ा और उसे अपने साथ ले गया। राजा गुलाब की प्रसन्नता का ठिकना न। रहा  उसने सोचा, अच्छा हुआ जो यह काला पत्थर यहाँ से हट गया ! इसकी कुरूपता मेरा सौन्दर्य नष्ट करती थी।

          कुछ दिन के बाद वहाँ पर एक और व्यक्ति आया।  उसने राजा गुलाब को तोड़ा और एक मन्दिर में जाकर भगवन की मूर्ति के चरणों में समर्पित कर दिया। राजा गुलाब को वहाँ बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। वो वहाँ पड़े - पड़े बाग़ में मिलने वाले सम्मान की बात सोच ही रहा था कि उसे हँसने की आवाज़ सुनाई दी। उसने इधर- उधर देखा, परन्तु कोई दिखाई न दिया। उसे आवाज़ सुनाई दी, राजा गुलाब, इधर - उधर क्या देखते हो? मुझे देखो, मै उसी पत्थर की मूर्ति हूँ जिसे तुम हमेशा डाँटते रहते थे, तुच्छ समझते थे। आज तुम मेरे ही चरणों में पड़े हो। तुम, तुम यहाँ कैसे आये? राजा गुलाब ने आश्चर्य से पूछा। मूर्ति रुपी पत्थर ने कहा, जो व्यक्ति मुझे ले गया था वह एक मूर्तिकार था। उसने ही तराश कर मुझे इस रूप में ढाला है।  राजा गुलाब अपने किये पर पछतावा करने लगा।  उसने मूर्ति रुपी पत्थर से क्षमा माँगी और कहा, मुझे मालूम हो गया कि घमण्डी का सिर हमेशा नीचा होता है। अंतः अपने अहंभाव की इस हद तक त्याग दो कि आपकी अपनी हस्ती रहे ही नहीं, जिसके लिए किसी ने सच ही तो कहा है -
                                             

                                           मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर तू मर्तबा चाहे।
                                        कि दाना मिट्टी में मिलकर ही, गुले गुलजार होता है।।

सीख- कभी कभी हमें चाहे कितना भी धन या सम्मान मिले लेकिन उस का अहंकार या अभिमान न हो। 

Thursday, March 13, 2014

Hindi Inspirational & Motivational Stories - " जीवन में सन्तुलन "

जीवन में सन्तुलन

              इन्सान ने जीवन में सन्तुलन बहुत जरुरी है सन्तुलन के बिना जीवन खोकला हो जाता है। जैसे हमें बहुत ज्यादा ठंडी साहन नहीं होता, वैसे ही बहुत गरमी भी साहन नहीं होता इस लिए जब बहुत ठंडी होती है तो गरम कपड़ो का उपयोग करते है सन्तुलन के लिए और जब गरमी हो तो कूलर ,फंखे और हलके कपड़ो को पहनते है और ठंडी चीजे पीते और खाते है। जिस से सन्तुलन बना रहता है।

             एक बार महात्मा बुद्ध का एक शिष्य आनन्द , दीक्षा ग्रहण करते ही उग्र तपस्या में लीन हो गया। उसे तन की भी सुध नहीं थी। परिणाम स्वरूप तन सूख कर काँटा हो गया। एक दिन अचानक महात्मा बुद्ध कि नज़र आनन्द पर पड़ी। उन्होंने आनन्द  को बुलाया और पूछा - वत्स , पहले तो तुम वीणा अच्छी तरह  बजाते थे , तो लीजिये यह वीणा और एक राग बजाईये। तब आनन्द बोले  - भंते।  यह कैसे बजेगी ? इसके तो सभी तार ढीले है। फिर बुद्ध बोले - लाओ आनन्द , मै अभी वीणा के तारों को कस देता हूँ , फिर तू बजाना। बुद्ध ने सरे तार कस दिए और फिर आनन्द को दिया। जब दोबारा वीणा आनन्द के हाथों में आया तो फिर आनन्द उलझन में पड़ गया और बोले -  भंते , इसको यदि अभी बजायेंगे तो इसके सभी तार टूट जायेंगे क्यों कि ये बहुत ज्यादा तनावपूर्ण है। बुद्ध ने कहा - अच्छा , इसे ठीक कर लो और फिर बजाओ। और जब वादन क्रिया समाप्त हुई तो फिर बुद्ध ने आनन्द को एक और लेकर कहा - यह जीवन भी वीणा के तार की तरह है। जैसे वीणा के तार से धुन निकालने के लिए उसे मध्य अवस्ता में रखा जाता है।  न बहुत ढीले न बहुत तना हुआ।  इसी प्रकार, जीवन की वीणा से आनन्द, प्रेम, सुख - शान्ति के स्वर तभी झंकृत (बजने लगते है ) होते है , जब वह मध्य में हो, संतुलित हो।


सीख - भाव यह है कि जीवन के विभिन्न पहलुअों में जब तक सन्तुलन और आदर्श नहीं तो ख़ुशी और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। 

Wednesday, March 12, 2014

Hindi Inspirational & Motivational Stories - " परचिन्तन से पतन "

" परचिन्तन से पतन "

       बहूत पुरानी बात है  किसी गाँव में एक साधू रहता था।  साधू की कुटिया के सामने एक कसाई रहता था, जिसे देखकर साधु मन ही मन उस पर क्रोधित होता था तथा उससे घृणा करता था। हर समय साधू कसाई के अवगुणों को ही देखता और उसी याद में रहता था और यहाँ - वहाँ उसकी ही बाते सुनाता था। कसाई कितनी बकरियाँ काटता है - यही गिनता रहता था। उसकी दूकान पर मॉस खरीदने के लिए आने वालों की संख्य़ा भी गिनता रहता था। और वह कसाई के साथ साथ मॉस खरीदने वालों से भी घृणा करने लगा।  इस प्रकार वह साधु सारा दिन कसाई तथा मॉस खरीदने वालों की बुराईयों को देखता, उन्हें दूसरों के सामने वर्णन करता, इस से उसका समय बीतने लगा।


        संयोगवश एक दिन साधु और कसाई - दोनों की मृत्यु हो गई। जब दोनों धर्मराज के पास पहुँचे तो धर्म राज ने दोनों को अपने - अपने कर्मो का वर्णन करने को कहा। तब कसाई बोला - मालिक , मै तो जात का कसाई था, बकरा काटना मेरा धंधा था।  मेरी रोजी रोटी थी। इसलिए मै अपनी रोजी - रोटी के खातिर यह पाप - कर्म करता था। पाप कर्म के लिए मै ईश्वर से क्षमा माँगता था। दान - पुण्य आदि भी करता था। फिर धर्मराज ने साधु से पूछा - अब तुम अपने कर्मो का वर्णन करो।  धर्मराज के सवाल के जवाब में साधु बोला - यह कसाई दिन में कम से कम १० - १५ बकरियाँ काटता था, जिसे ५० - ६० व्यक्ति (जो फलाना - फलाना है ) खरीदने आते थे। ये सब पापी है, ये सब नर्क के हकदार है।  यह सुनकर धर्मराज बोले - मैंने तुम से केवल तुम्हारे अपने कर्मो का वर्णन करने को कहा है, न कि दूसरों के कर्मो का। क्यों कि तुमने सारा जीवन दूसरों के अवगुणों को देखने और वर्णन करने में ही बिताया, कभी अपने कर्मो का ख्याल भी नहीं किया कि में क्या कर रहा हूँ। साधु होकर भी तुमने कोई साधुत्व वाला कर्म नहीं किया।  बस, परचिन्तन तथा व्यर्थ चिन्तन में ही अपना समय गवाया। तुम से तो वह कसाई अच्छा है।  जो कुछ समय प्रभु - चिन्तन में गुजरता था व अपने पापों के लिए ईश्वर से क्षमा माँगता था दूसरों के दुःख - दर्द में साथी बनता था।  परन्तु तुमने साधु होकर भी सिवाय परचिन्तन के कुछ भी नहीं किया। तुम्हारे भाग्य के खाते में पुण्य का लेश मात्र भी स्थान नहीं है। बस "पाप ही पाप है "।


सीख - परचिन्तन पतन कि झड़ है। इस लिये सदा स्व - चिन्तन करो और शुभ कामना करो।  शुभ भावना और शुभ कामना येही उत्तम सेवा का आधार है।