सत्यता की जीत
एक बार एक काफिला कहीं जा रहा था। उस काफिले में एक बालक था जिसका नाम था - विवेक। चलते चलते रस्ते में उस काफिले को लुटेरों ने घेर लिया। लुटेरे सब की तलाशी ले रहे थे ,छीन रहे थे ,लूट रहे थे। एक डाकू ने विवेक से पूछा - 'तेरे पास तो कुछ नहीं है रे.… ? क्यों नहीं है ?मेरे पास चालिस मुहरें है। विवेक ने कहा। कहाँ है ? मेरी सदरी में - सदरी में किधर ? अन्दर सिल राखी है मेरी माँ ने। और उसके बाद दूसरा डाकू पास आ गया। उसने भी वाही सवाल किया दोनों को उसने यही बात, इसी प्रकार बतायी। डाकुओ का सरदार भी उनके पास आ गया। लड़के ने तब भी यही कहा। सरदार ने अपने साथियों को आदेश दिया कि बालक की सदरी फाड़कर मुहरें निकाल कर देखों यह सच बोलता है या झूठ।
सदरी फाड़ दी गई। चालिस मुहरें निकली। डाकू सरदार आश्चर्य से बालक का मुँह देखने लगा। उसने बालक से पूछा - तुमने हमें क्यों बताया था कि तुम्हारे पास चालिस मुहरे है! झूठ बोलकर बचा भी सकते थे। जी नहीं, बालक ने कहा - मेरी माँ ने चलते समय कहा था कि मैं किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलूँ। मैं अपनी माँ की आज्ञा को नहीं टाल सकता। डाकू सरदार बालक का मुख देखता रहा गया। वह लज्जित हो गया। उसने कहा - सच मुच तुम बड़े महान हो बालक ! अपनी माँ की आज्ञा का तुम्हें इतना ध्यान है जब की मैं तो खुदा के हुक्म को भी भुला बैठा हूँ, तुमने मेरी आंखें खोल दी है। और उस बालक ने उस डाकू की आँखों खोल दी उसी दिन से उसने डाके और लूट छोड़ दी और एक अच्छा आदमी बन गया। उसने बालक से ही प्रेरणा ग्रहण की। यह सत्य का प्रभाव था। सत्य की शक्ति थी। सत्य का तेज था।
सीख - इस तरह की कहानी अच्छी भी लगती है और सुनकर पढ़कर ख़ुशी होती है। तो क्यों न हम भी इस एक गुण सत्य को अपनाये और सत्य का तेज जीवन में अनुभव करे। अब इस झूठ की दुनिया में एक बार फिर सत्य का प्रकाश फैलाए।
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