सहनशीलता दीर्घायु बनती है
एक सन्त बहुत बूढ़े हो गये। देखा कि अन्तिम समय समीप आ गया है तो अपने सभी शिष्यों को अपने पास बुलाया। प्रत्येक से बोले - तनिक मेरे मुँह के अन्दर तो देखो भाई, कितने दाँत शेष है ? प्रत्येक शिष्य ने मुँह के भीतर देखा। प्रत्येक ने कहा - दाँत तो कई वर्ष पहले समाप्त हो चुके है महाराज, एक भी दाँत नहीं है।
सन्त ने कहा - जिहा तो विधमान है ?
सब ने कहा - जी हाँ।
सन्त बोले - यह बात कैसे हुई ? जिहा तो जन्म के समय विधमान थी, दाँत तो उसके बहुत पीछे आये, पीछे आने वालों को पीछे जाना चाहिए था। ये दाँत पहले कैसे चले गये ?
शिष्यों ने कहा - हम तो इसका कारण समझ नहीं पाये।
तब सन्त ने अति गम्भीर तथा शान्त स्वर में कहा - यही बतलाने के लिए मैंने तुम्हें बुलाया है। देखो, यह जिहा अब तक विधमान है तो इसलिए कि इस में कठोरता नहीं और ये दाँत पीछे आकर पहले समाप्त हो गये। एक तो इसलिए कि ये बहुत कठोर थे। इन्हें अपनी कठोरता पर अभिमान था। यह कठोरता ही इनकी समाप्ति का कारण बना। इसलिये मेरे बच्चो, यदि देर तक जीना चाहते हो तो नम्र बनो, कठोर न बनो।
सीख - जीवन में कठोर स्वाभाव वाले व्यक्ति को कोई पसन्द नहीं करता। जो नम्र और मीठा बोलता है वो सबको अच्छा लगता है लोग उससे दोस्ती करना पसन्द करते है।
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