गोभक्ति और गुरुभक्ति
अयोध्याके चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप के कोई संतान नहीं थी। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ जी के आश्रम में गये और पुत्र के लिये महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि वसिष्ठ ने ध्यान करके राजा के पुत्र न होने का कारण जान लिया और बोले - 'महाराज! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो रास्ते में खड़ी कामधेनु को देखा ही नहीं। उनको प्रणाम नहीं किया। इस लिए कामधेनु ने आपको शाप दे दिया है कि उनकी संतान की सेवा किये बिना आपको पुत्र नहीं होगा। '
महाराज दिलीप बोले - 'गुरुदेव! सभी गाये कामधेनु की संतान है, गो-सेवा तो बड़े पुण्य का काम है। मैं गायों की सेवा करूँगा। ' वसिष्ठ जी ने बताया - 'मेरे आश्रम जो नन्दिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है। आप उसी की सेवा करें।
महाराज दिलीप सबेरे ही नन्दिनी के पीछे-पीछे वन में गये। नन्दिनी जब खड़ी होती तो वे खड़े रहते, वह चलती तो उसके पीछे चलते, उसके बैठने पर ही वे बैठते, उसके जल पिने पर ही वे जल पीते वे उसके शरीर पर एक मक्खी तक बैठने नहीं देते थे। संध्या समय जब नन्दिनी आश्रम लौटती तो उसके पीछे-पीछे महाराज लौट आते। महारानी सुदक्षिणा उस गौ की पूजा करती थी। रात को उसके पास दीपक जलती थी और महाराज गोशाला में गाय के पास भूमि पर ही सोते थे। इस तरह सेवा कार्य का एक महीना पूरा हुआ और एक दिन वन में महाराज कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नन्दिनी आगे चली गयी। कुछ ही क्षण में ही गाय के डकारने की बड़ी करुणा ध्वनि सुनायी पड़ी। महाराज उस ध्वनि की तरफ दौड़ कर वहाँ पहुँचे तो देखते है कि एक झरने के पास एक बड़ा भरी सिंह उस सुन्दर गाय को दबाये बैठा है। सिंह को मारकर गाय को छुड़ाने के लिए महाराज ने धनुष्य चढ़ाया, किंतु जब तरकस से बाण निकलने लगे तो दाहिना हाथ तरकस में ही चिपक गया।
आश्चार्य में पड़े महाराज दिलीप से सिंह ने मनुष्य की भाषा में कहा - 'राजानं ! मैं कोई साधारण सिंह नहीं हूँ। मैं भगवान शिव का सेवक हूँ। अब आप लौट जाइये। जिस काम के करने में अपना बस न चले, उसे छोड़ देने में कोई दोष नहीं होता। मैं भूखा हूँ। यह गाय मेरे भाग्य से यहाँ आ गयी है। इस से मै अपनी भूख मिटाऊंगा। '
महाराज दिलीप बड़ी नम्रता से बोले - ' आप भगवान शिव के सेवक है, इसलिये मैं आपको प्रणाम करता हूँ। सत्पुरूषों के साथ बात करने तथा थोड़े क्षण भी साथ रहने से मित्रता हो जाती है। आपने जब अपना परिचय मुझे दिया ही है तो मेरे ऊपर इतनी कृपा और कीजिये कि इस गौ को छोड़ दीजिये और इसके बदले में मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लीजिये। ' सिंह ने महाराज को बहुत समझाया कि एक सम्राट को गाय के बदले अपना प्राण नहीं देने चाहिए। किन्तु महाराज दिलीप अपनी बात पर ढूढ बने रहे। एक शरणागत गौ महाराज के देखते देखते मारी जाय, इस से उसे बचाने में अपना प्राण दे देना उन्हें स्वीकार था। अंत में सिंह ने महाराज की बात मान ली और महाराज का चिपका हाथ तरकस से छूट गया। महाराज धनुष और तरकस अलग रख दिया और सिर झुकाकर वे सिंह के आगे बैठ गये।
महाराज दिलीप समझते थे कि अब सिंह उनके ऊपर कूदेगा और उन्हें खा जायेगा। परन्तु उनके ऊपर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। नन्दिनी उन्हें मनुष्य की भाषा में पुकारकर कहा - 'महाराज ! आप उठिये। यहाँ कोई सिंह नहीं है, यह तो मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिये माया दिखायी है। और अभी आप पत्ते के दोने में दुहकर मेरा दूध पी लीजिये। आपको गुणवान तथा प्रतापी पुत्र होगा। '
महाराज ऊठे। उन्होंने उस कामधेनु गौ को प्रणाम किया और साथ जोड़कर बोले - 'माता ! आपके दूध पर पहले आपके बछड़े का अधिकार है। उसके बाद बचा दूध गुरुदेव का है। आश्रम लौटने पर गुरुदेव की आज्ञा से ही मैं थोड़ा-सा दूध ले सकता हूँ। ' महाराज की गुरुभक्ति तथा धर्म-प्रेम से नन्दिनी और भी प्रसन्न हुई। शाम को आश्रम लौटने पर महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से महाराज ने नन्दिनी का थोड़ा-सा दूध पिया। समय आने पर महाराज दिलीप के पास प्रतापी पुत्र हुआ।
सीख - गुरु की आज्ञा और पूरी निष्ठा से कार्य जो करते है और उसके सयम- नियम, मर्यादा और अपनी क़ुरबानी तक देने के लिए जो तैयार रहते है। उनकी हर इच्छा पूरी होती है वे ही महान बनते है।
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