Monday, April 7, 2014

Hindi Motivational Stories - ' बड़ा कौन ? संसारिक धन या ज्ञान धन '

" बड़ा कौन ? संसारिक  धन या ज्ञान धन "

            एक प्रभु प्रेमी, नगर के बाहर प्रभु प्रेम में लवलीन होकर प्रभु कि साधना करता रहता था। दूसरी तरफ नगर के अन्दर में एक सेठ को अधिक से अधिक धन पाने की लालसा लगी रहती थी। और उस सेठ को कही से ये खबर मिली की जंगल में कही कोई जगह काफी बड़ा खजाना दबा हुआ है। परन्तु वह धन कहाँ है, इसके बारे में किसी को पता नहीं। सेठ अपनी किस्मत आजमाने के लिए एक दिन जंगल की तरफ चल दिया। जब नगर का मार्ग समाप्त हो गया और जंगल शुरू हो कर धना - सा होने लगा तब वहाँ उसने एक व्यक्ति को पालथी मार कर मनन - चिन्तन करते हुए देखा। उसके चेहरे पर शान्ति और सन्तोष के चिन्ह थे और वह बिल्कुल निश्चिन्त दिखाई देता था। वैसे वो कथिक रूप से तो शहर से दूर बैठा ही था परन्तु लगता था कि उसका मन भी शहर के हाय - हल्ला से दूर कही, एकान्त में बस रहा है। सेठ जी उसके पास जाकर उसे प्रणाम किया और इन शब्दों से सम्बोधित किया - 'महाराज, आपके दर्शन पाकर मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ। आप तो विरक्त है परन्तु मै एक गृहस्थी आदमी हूँ। आपकी कृपा और आप से वरदान की एक कामना करता हूँ।  यादि आप को मुझ पर करुणा हो तो कृपया यह बताने का कष्ट करें कि जंगल में कोई एक बडा खजाना है वो कहाँ दबा हुआ है ?

      प्रभु प्रेमी - परन्तु मेरी तो इन बातों में रूचि नहीं है और मै तो यह कहूँगा कि कमाई करने से जो धन प्राप्त होता है, उसी में ही संतोष होना अच्छा है।

     सेठ - मै मानता हूँ कि आप को इन संसारिक धन - वैभवों से कोई प्रीति नहीं परन्तु मुझ पर आपकी यह कृपा हो - यह मेरी याचना है।

      प्रभु  प्रेमी  - अच्छा, तो जाओ ! उत्तर दिशा कि ऒर आगे बढ़ते चलो। जब लगभग 400 कदम चल चुके होंगे तो वहाँ एक पीपल का पेड़ दिखाई देगा। उस पेड़ की तीन मोटी - मोटी रगे पर्थ्वी में दबी हुई दिखाई देगी। उन में से जो मध्यवर्ती रग है और उसके दहिने ऒर जो रग है, उनके बीच के स्थान पर यदि 4 फुट गहरा खोदोगे तो तीन स्वर्ण कलश मिलेँगे जो अपार धन से भरपूर है। जाओ, अगर धन की ही कामना है और वह भी बिना कमाई वाले धन की, तो जाकर वे कलश निकाल लो।

    यह कहते हुए प्रभु प्रेमी सेठ को दया की दृस्टि से देखने लगा और साथ - साथ मुस्कुराने भी लगा। उस प्रभु प्रेमी से बात करके सेठ की मनोवृति पर कुछ अलौकिक प्रभाव पड़ा परन्तु फिर भी धन की लालसा से खिचा हुआ - सा वह उत्तर दिशा में बढ़ते गया और उस प्रभु प्रेमी को प्रणाम और धन्यवाद करके आगे को निकल पड़ा। और जैसे ही 400 कदम पुरे हुए तो वहाँ उसने पीपल के पेड़ की तीन रगे देखी। उस प्रभु प्रेमी के बताए अनुसार उसने उस स्थान पर 4 फुट गहरा खोदा तो यह देखकर उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा कि वहाँ तीन स्वर्ण कलश दबे थे। उनको उसने जब खोला तो उस में हीरे, अशर्फिया वगैरह देखकर दंग रह गया और उसे बेहद ख़ुशी हुई। परन्तु इस विचार ने उसे सोच में डाल दिया कि प्रभु प्रेमी को जब इस खजाने का पता था तो यह खजाना उसने स्वम् अपने लिए क्यों नहीं ले लिया।

    इसलिए सेठ इस जिज्ञासा को लेकर वह फिर से उस प्रभु प्रेमी के पास गया और बोला - महाराज, आपकी कृपा से खजाना तो मिल गया परन्तु अब उस खजाने के प्रति मेरा कुछ विशेष आकर्षण नहीं है। मेरे मन में यह प्रश्न उठा है कि जब आपको उस खजाने का पता था तो अपने स्वम् ही वह खजाना क्यों नहीं ले लिया। अवश्य ही आपको उससे भी कोई ऊँची प्राप्ति हुई होगी कि जिस से आपको उस खजाने के प्रति कोई आकर्षण नहीं है।

   प्रभु प्रेमी चुप होकर बैठा रहा और उसकी और देखता रहा। इसका उस सेठ पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि धन के प्रति जो उसकी लालसा बनी रहती थी, वह अब मन में नहीं रही। उसी क्षण उस प्रभु प्रेमी के मुख से यह शब्द निकले - भाई, आप यही धन माँगते थे, इसलिए आपको उसका रास्ता बता दिया पर सर्वोपरि धन तो ज्ञान धन है। ज्ञान धन अविनाशी है और शारीर ने नाश होने के बाद भी आत्मा के साथ रहता है और उसे शाश्वत सुख देता है। यह सुनकर वह सेठ भी अब ज्ञानधन अर्जित करने की ऒर प्रवृत हुआ। और नियमित रूप से प्रभु प्रेमी से मिल कर ज्ञान अर्जित करने लगा।


सीख - संसारिक धन से बड़ा धन है ज्ञान धन इस ज्ञान धन को आज की दुनिया में सब भूल चुके है और जिस की वजह से सारा संसार दुःखी है एक बार इस ज्ञान धन का महत्व मानव को समझ में आ जाय तो उस का कल्याण हो जायेगा।

Saturday, April 5, 2014

Hindi Motivational Stories - ' विवेक युक्त भावना कल्याणकारी '

विवेक युक्त भावना कल्याणकारी

             एक पवित्र सुन्दर स्थान पर आश्रम बना था। वहाँ श्रेष्ठ दिव्य - चरित्र निर्माण की शिक्षा दी जाती थी। वहाँ के गुरूजी कि महीमा बहुत थी। वे अपने शिष्यों को बड़े प्यार से शिक्षा देते उनके बातो में रहस्य छुपा होता था। और इस बात को शिष्य जनते थे। हुआ कुछ ऐसा की एक दिन गुरु जी को कहीं लम्बे समय के लिए विदेश - भ्रमण पर जाना था। तब शिष्यों की परीक्षा का उचित समय था। गुरु जी ने अपने मुख्य दो शिष्यों को बुलाकर कुछ अनाज के दाने दिये। और कहा प्यारे बच्चों ! मै कुछ समय के लिए बाहर यात्रा पर जा रहा हूँ। मैंने जो बीज दिये है इन्हें अपनी इच्छा अनुसार सदुपयोग में लाना। बहुत प्यार - से - रहना और आश्रम की देखभाल ध्यान से करना। दोनों शिष्यों ने अपने गुरूवर की बात को ध्यान से सुना और बोले आप किसी प्रकार की चिंता न करें। हम अच्छी तरह से आश्रम की देखभाल करेंगे। और दोनों शिष्य गुरु जी को बहुत दूर तक विदा देने गये। फिर आदर सहित प्रणाम कर लौट आये।

             समय पंख लगाकर उड़ता गया। दिन महीने साल गुजरते गए। परन्तु गुरु जी लौटे नहीं। शिष्य अपने गुरु का हर साल इंतज़ार करते रहे। और एक दिन पुरे पाँच साल बाद छठे वर्ष में गुरूजी लौटे। दोनों शिष्य अपने गुरु जी को आया देख आनंद विभोर हो उठे। आदर सहित आश्रम में ले आये। आश्रम पहुंचने पर गुरु जी ने दोनों शिष्यों को अपने पास बुलाया।  दोनों शिष्य उनके पास आये।  सब से पहले बड़े शिष्य से गुरु ने पूछा, बच्चे यात्रा पर जाते समय मैंने तुम्हें कुछ अनाज के दाने दिये थे उनका तुमने क्या किया ? गुरु जी आप रुकिये मै अभी आया कहा कर वह अपने कामरे से एक संदूक उठा लाया और गुरु जी को दिया जिस पर लाल रंग का कपड़ा लिपटा हुआ था। और अगरबत्ती की खुशबु से महक रहा था वह छोटा सा संदूक। और बोला - गुरुदेव, यह आपका दिया हुआ प्रसाद था। इस लिए इस का मै रोज बड़ी श्रद्धा - भावना से पूजा करता था और अगरबत्ती लगता था। गुरूजी ने संदूक खोला तो क्या देखते है, कि सारा अनाज सड़ गया है। एक भी बीज काम का न रहा। सब को कीड़े खा गए है। यह देख गुरु जी को बहुत अफसोस हुआ। पर गुरु ने कुछ नहीं कहा।

                फिर दूसरे की ऒर मुड़कर पूछा - बच्चे तुमने मेरे दिये अनाज का क्या किया ? दूसरा शिष्य ने गुरु जी को अपने साथ चलने को कहा।  गुरूजी शिष्य के पीछे चल दिया। और रस्ते में शिष्य बताने लगा गुरूजी आपके दिये बीज को मैंने उसी वर्ष आश्रम के पास की उपजाऊ भूमि में बो दिया। और धरती माँ ने एक का सौ गुना करके दिया। एक वर्ष में इतना अनाज हुआ की मैंने उसको फिर से सारे जमीन में बो दिया। और फिर से धरती माँ ने उसका भी सौ गुना दिया।अध्यन करने के बाद जो समय मिलता वो समय मै इसी कार्य में लगता। और मेहनत का फल भगवन देता है। सो तीसरे साल जब बहुत अनाज मिला तो उस में कुछ धन पाकर मैंने कुँआ बनाया और फिर उसके बाद फल, सब्जी भी मिलने लगा तो और धन इकट्टा हुआ,जिस से आश्रम को सुन्दर बनाया और एक नया धर्म शाला बना दिया और फिर एक बगीचा और अब एक सुन्दर फलों का वन यह बना रहे है आपके लिए हाथ के इशारे से शिष्य गुरु जी को बता रहा था।

              गुरु जी यह सब देख अपने विवेकशील शिष्य को अपने गले से लगा लिया। यह देख कर बड़ा शिष्य तो शर्म के मारे झुक गया। फिर गुरु जी बोले, बच्चो ! श्रद्धा तो जीवन में होनी ही चाहिए। परन्तु विवेक भी साथ में चाहिए। बिना श्रदा भावना के विवेक शुन्य बनकर रह जाता है। और बिना विवेक के भावना सुन्दर नहीं लगती। जहाँ भावना जीवन का मिठास है वहाँ विवेक जीवन का नमक है। एक जीवन को मधुर बनाता है दूसरा जीवन को सुरक्षित रखता है।



सीख - हमें अपने जीवन में भावना और विवेक का सन्तुलन बनाकर अच्छी समझदारी से कार्य करने है जिस से मात - पिता और गुरुजनों का प्यार व आशिर्वाद मिलता रहे।                                                                                                                                                                                                                                                    




Friday, April 4, 2014

Hindi Motivational Stories ' निर्णय का आधार शब्द नहीं शब्दार्थ हो '

निर्णय का आधार शब्द नहीं शब्दार्थ हो 

    बहुत पुरानी एक कहानी है रामनगर में एक सेठ जी थे जिनका नाम था धनपतराय। वे बहुत धनी - मानी व्यक्ति थे। बहुत धनवान होने के कारण वे बहुत शान - शौकत से रहते थे। सारे शहर के लोग भी उनको उसी निगाह से देखते व इज्जत करते थे। और सेठ जी का एक लड़का अब विवाह योग्य हो चूका था।  सेठ धनपतराय अपने पुत्र के लिए योग्य - वधु की खोज शुरू कर दी और आखिर वह दिन आ गया जब उन्हें अच्छे कुल की एक कन्या की जानकारी मिली उन्होंने अपने इकलौते पुत्र की शादी बहुत ही धूमधाम से सम्पन किया और बाजे बजवाते अपनी पुत्र - वधु को ख़ुशी- ख़ुशी अपने घर ले आए। सेठ जी अपनी पुत्र - वधु को देख ख़ुशी से फुले नहीं समाते थे। बहु भी बहुत ही समझदार, आज्ञाकारी तथा हर कार्य में कुशल थी इसलिए सेठ जी भी उससे बहुत प्रसन्न थे।

     इस तरह बहुत दिन बीत गए करीब साल दो साल हो गए होंगे। एक दिन एक भिखारी भीख माँगता, आवाज़ लगाता हुआ सेठ जी के मकान के आगे खड़ा हुआ। और कहने लगा - अरे भाई तीन जन्म का भूखा हूँ, कोई रोटी का टुकड़ा दे दे। बहु  सुना और ऊपर से ही आवाज़ लगते हुए कहा -  बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे। सेठ जी के कानों में जब ये शब्द गये तो उन्हें बहुत गुस्सा आ गया।  वे सोचने लगे कि कमाल है, इस बहु को मै हर चीज़ बढ़िया - से - बढ़िया लाकर देता हूँ - पूड़ी, कचौड़ी, हलवा, खीर, मालपुए अनेक प्रकार के व्यंजन इसे भरपूर लाकर देता हूँ - यह फिर भी कहती है कि बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे।  आखिर मैंने क्या कमी राखी है इसको ! यह बहु तो मेरी इज्जत ही मिट्टी में मिला देगी। सोचते - सोचते उनका क्रोध का पारा बढ़ता गया और उन्होंने तय कर लिया कि अब तो इसे वापस इसके मायके में भेजना ही पड़ेगा।

    सेठ जी बड़े तेज कदमों - से अपने घर के आँगन से बहार निकले और उन्होंने पंचायत बिठाई। वधु के पिता को भी बुलवाया गया और सेठजी  सारी कहानी उन्हें सुनाते हुए कहा कि ले जाइए अपनी बेटी को अपने साथ ! इसने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा। पंचायत के मुखिया सेठजी के इस बात को सुनते हुए कहा - सेठजी, उतावलेपन में फैसला कर लेना उचित नहीं। आप तो स्वम ही कहते थे कि आपकी बहु बहुत समझदार है, आप उसे बुलाकर पूछिए तो सही कि उसने ऐसा क्यों कहा ? अवश्य ही उसका कोई अर्थ होगा।  सेठ जी को भी उनकी ये बात  जँच गई।  उन्होंने अपनी बहु को बुलवा भेजा। बहु बड़े आदर - भाव से आकर वहाँ बैठ गई। और उससे सेठ जी ने पूछा कि बहु, तुम यह तो बताओ कि भिखारी के यह कहने पर तीन जन्म का भूखा हूँ, कोई रोटी का टुकड़ा दे दे तो तुमने यह क्यों कहा कि बासी टुकड़े खाते है, कल उपवास करेंगे ? क्या तुम बासी टुकड़ो पर गुजारा कर रही हो ? इतनी समझदार होते हुए भी तुम ने ऐसा क्यों कहा ? बहु ने कहा - ससुरजी, मै कुछ गलत कहूँ तो क्षमा कर दीजिएगा। मेरा भाव कुछ और था। बात यह है कि भिखारी का यह कहना कि तीन जन्म का भूखा हूँ , इसका अर्थ यह कि पिछले जन्म में वह गरीब था तो वह कुछ दान नहीं कर सका और इसलिए इस जन्म में भिखारी है। इस जन्म में क्यों कि गरीब है तो अभी भी वह दान नहीं कर सकता और इसलिए अगले जन्म में भी यह गरीब और भूखा रहेगा और इसलिए वह कहता है कि तीन जन्म का भूखा हूँ।

         और जो मैंने कहा जवाब में उसका भाव यह है कि हमने पिछले जन्म में जो दान पुण्य किया था, उसकी बदौलत हमें इस जन्म में धन - धान्य मिला है यह हमारे पिछले जन्म का फल है तभी मैंने कहा कि बासी टुकड़े खाते है। और ससुरजी, इस जन्म में हमारे इस घर में तो दान करने की प्रथा ही नहीं है तो अगले जन्म में जरुर भूखा ही रहना पड़ेगा याने उपवास ही रखना पड़ेगा। मेरा कहने का भाव ये था। सेठ जी बहु कि ये बात सुनकर कुछ लज्जित भी हुए और मन -ही - मन उन्होंने ढूढ संकल्प भी किया कि आज से लेकर वे सुपात्र को अवश्य ही दान करेंगे।



सीख - शब्दों का सही भावार्थ न समझने के कारण कैसे अर्थ का अनर्थ हो जाता है और अगर सही भाव समझ में आ जाए तो वही शब्द जीवन को परिवर्तन करने वाले सिद्ध हो सकते है। जैसे सेठ जी का जीवन बदल गया। अंतः कभी भी किसी के शब्दो पर न जाकर उसके भावों को समझने का पुरषार्थ करना चाहिए।

Thursday, April 3, 2014

Hindi Motivational Stories - " जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "

" जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मस्वरूप की अनुभूति "


  महान राजा भर्तुहरी के सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्रीतिकर और शोधपूर्ण कहानी है। कहते है कि वह अपने अपार धन, वैभव, राजपाट को त्याग कर तपस्या के करने जंगल चला गया। उनके जीवन में त्याग सिद्धान्त के रूप में नहीं परन्तु जीवन में भोग और सम्पत्ति की व्यर्थता के अनुभव से फलित हुआ था। हुआ ऐसा कि एक दिन वे पेड़ की शीतल छाया में प्रभु की याद में ध्यान - मग्न बैठे थे। अचानक उनकी आँखे खुली। वृक्ष के पास में एक छोटी पगडंडी गुज़र रही थी। थोड़ी दूर उस पगडंडी पर सूर्य की रोशनी में एक अदभुद और बड़ा हीरे का टुकड़ा पड़ा चमक रहा था। ऐसा हिरा उसने पहले कभी नहीं देखा था।

                 तब राजा के मन में कामना जगी कि उस हिरा को उठा लू। अचानक उस बेहोशी के क्षण में वे अपने ध्यान के केन्द्र से अलग हो गये। लेकिन शारीर तो अब भी सिद्धासन में अचल था परन्तु मन तो उस हीरे को पाने की चाहत में चल पड़ा। मन से वहाँ नहीं है। अब शारीर यही अचल मृत आवस्था में है। भर्तुहरी मन से वहा गये और देखा कि उनसे पहले वहाँ दो व्यक्ति घोड़े पर सवार हो अलग - अलग दिशाओ से वहाँ आये। उन दिनों की नज़र भी उसी चमकते हीरे पर पड़ी। और दोनों ने हिरा पहले देखने का दावा कर तलवारें खीच ली। निर्णय का तो और कोई उपाय वहाँ नहीं था, वे आपस में लड़ पड़े। और कुछ ही देर में दोनों ने एक - दूसरे को समाप्त कर दिया। अब उस हीरे के पास दो लाशे पड़ी थी। भर्तुहरी ने देखा, हँसा और अपनी आँखे बंद कर ली और प्रभु - स्मरण में पुनः खो गया।

         क्या हुआ ? आप सोच रहे होंगे। . इस घटना से भर्तुहरी को सम्पत्ति की व्यर्थता का बोध हुआ। और वे पुरे दिल से ध्यान - मग्न हो गये।  और दूसरी तरफ उन दो व्यक्तियो का क्या हुआ ? एक पत्थर का हिरा उनके जीवन से अधिक कीमती हो गया। और उसी के कारण अपनी जान गवा दी।  इसलिये जब भी कामना होती है, तो हम अपने से दूर चले जाते है। अपने को भूल जाते है। ये कामनाये हमें आत्म - घात कि ऒर ले जाती है। कामना के वशीभूत हम अपनी सुधबुध खो देते है। क्षण भर के लिए राजा को जो सयम के अनुभव का आत्म केन्द्र था वह खो गया। एक हिरा अधिक शक्तिशाली हो गया और वे कमजोर हो अपने केन्द्र से हट कर उस हीरे की ऒर खिंचते चले गये। लेकिन फिर व्यर्थता के अनुभव ने उन्हें आत्म केन्द्रित कर दिया और उन्होंने अपनी आँखे बंद कर ली।

सीख - ध्यान आत्मा सयम के लिए है। ध्यान स्वम् को जोड़ता है और सम्पत्ति का मोहा व्यक्ति को अलग करता है और पतन कि ऒर ले जाता है। 

Wednesday, April 2, 2014

Hindi Motivational Stories - ' परिश्रम ही सच्ची पूंजी है '

 परिश्रम ही सच्ची पूंजी है

            कालूराम स्वभाव से आलसी और निकम्मा था। वह बैठे - बैठे सपने देखता कि एक दिन अवश्य ही वह धनवान हो जायेगा। और धनवान बनने से जो सुख उसे मिल सकते है उनका मन ही मन अनुभव कर वह खुश हो लेता। इस तरह धनवान बनने का उसे शौक जरुरु था लेकिन काम वह कुछ नहीं करता। कालूराम की पत्नी रमा समझदार और स्वालम्बी महिला थी। उसने दो गाये पाल राखी थी जिनकी वह खूब देखभाल करती। गाये का दूध दुहकर बेच आती। इसी से उसके परिवार का गुजारा भी चलता।  कालूराम के दो बेटे थे जो अपनी माँ के काम में सहयोग देते थे। लेकिन कालूराम दिन - रात सपनों में ही खोया रहता।

           एक दिन गॉव में एक स्वामी का आना हुआ और पुरे गॉव के लोग संध्या के समय स्वामी जी के पास आते और घंटो बैठे रहते। स्वामी जी को गॉव वालो के जरिये कालूराम के बारे में सब कुछ मालूम हो गया। और जब कालूराम को स्वामी जी के बारे में पता चला तो वह सीधा उनके पास गया और बैठ गया प्रवचन के बाद जब सब लोग चले गए तब कालूराम स्वामी जी के पास जाकर प्रणाम करते हुए कहा, मुझे वरदान दो स्वामी जी, मै धनवान बनना चाहता हूँ। गरीबी से में उकता गया हूँ। अब स्वामी जी उसकी बात सुनकर मन में हंसे।  वे जानते थे कि वह काम तो धेले भर का भी नहीं करता। खाली बैठा हुआ ही धनवान बनना चाहता है। कालूराम से मिलकर स्वामी जी को अनुभव हुआ कि उसमे छल, कपट जरा भी नहीं था। उन्होंने सोचा कि इसकी मदत करनी चाहिए। वे बोले - मै तुम्हे वरदान दे सकता हूँ, लेकिन उसके साथ शर्ते भी जुड़ी हुई है। शर्तों का पालन नहीं किया तो वरदान स्वतः समाप्त हो जायेगा। आपका आदेश सिर आँखों पर। आप जैसा कहेंगे, मै वही करूँगा। कालूराम ने प्रसन्न्ता से जवाब दिया। अब स्वामी जी ने कहना शुरू किया - मै तुम्हें एक मंत्र देता हूँ। उसके बारे में किसी को कुछ मत बताना और मन ही मन मंत्र का जाप करना। मंत्र है - आलस छोड़ो ! जागो ! उठो ! शर्त यह है कि तुम सवेरे जल्दी उठोगे और रात्रि दस बजे से पहले कभी सोओगे नहीं। एक - एक क्षण का तुम्हें उपयोग करना होगा। कालूराम हाथ जोड़े हाँ - हाँ करता रहा और सारी बात ध्यान से सुनता रहा। उसे धनवान बनने का मंत्र जो मिल रहा था। स्वामी जी ने फिर कहा - काम करने से जो भी आय हो उस में से जितना हो सके बचाकर रखना और सोच समझकर पत्नी कि सलाह से ही खर्च करना। और मंत्र को कभी मत भूलना।  जाओ, आज से ही काम करना शुरू कर दो।

           कालूराम में जैसे नये जोश का संचार हो गया था।  आलस छोड़ो ! जागो उठो ! यह मंत्र गुन गुनते हुए वह घर पहुँचा। उस दिन गायो का दूध वह स्वम बेच आया।  वापस आकर पास ही जंगल से बहुत सी लकड़ियाँ भी काट लाया। सवेरे अपनी गायों के साथ दुसरो के पशु भी चरा आता।  वह रोज ही जंगल से लकड़ियाँ काटकर लाने लगा और उन्हें शहर में बेच आता। कालूराम को दुसरो के पशु चराने का भी कुछ रुपये मिल जाते। इस तरह कालूराम एक एक पल का उपयोग करने लगा।

         कालूराम में आये इस बदलाव को देख सभी लोगो को आश्चर्य हुआ। कई लोगो के पूछने पर कालूराम कहता काम तो करना ही चाहिए। इसलिए करता हूँ। और कालूराम में आये इस बदलाव को देख उसकी पत्नी बहुत खुश थी।कालूराम को अब लकड़ियाँ बेचने और गाये चराने से जो धन मिलता उसे वह बचा कर रखता। और धीरे धीरे इन्हीं पैसों से वह एक - एक गाय और भैंस खरीदता रहा जिससे दूध भी उसके यह खूब होने लगा। कालूराम का दूध का कारोबार बढ़ता गया। और उसे आज भी मंत्र याद है और उसी तरह लगातार अपने काम में मस्त है गाये को चराना लकड़ी काटकर बेचना। उसे मालूम ही नहीं कि वह धनवान बनने चला है।

           समय बीतता गया कालूराम के पास अब सौ से अधिक पशु हो गए। उसने गॉव ने पास ही खेत खरीद लिए जहाँ बड़ी मात्रा में अनाज पैदा होने लगा। उसके बेटे भी उसके कारोबार में हाथ देने लगे इस तरह एक दिन वह गाँव का जमींदार बन गया। और अब भी वह अपना एक एक पल सफल करता जब भी वह खाली बैठता उसे मंत्र याद आता। एक दिन कालूराम अपने घोड़े पर सवार होकर अपने खेतो की निगरानी कर रहा था। तभी उसे दूर एक महात्मा जी दिखायी दिये। उसने तुरन्त पहचान लिया। वह उनके पास गया और प्रणाम कर बोला, मुझे पहचाना स्वामी जी, मै कालूराम। आपने मुझे वरदान दिया था जो सच साबित हुआ।

           स्वामी बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, मैंने तो तुम्हें कोई वरदान नहीं दिया। मैंने तो तुम्हें मेहनत का पाठ पढ़ाया था।  जिसे तुमने अचूक मंत्र की तरह याद रखा। बेटे, मेहनत का कोई विकल्प नहीं होता।  मनुष्य के श्रम में ही सब से बड़ा वरदान छिपा होता है। तुम अपनी मेहनत और सूझबूझ से ही धनवान बने हो। कालूराम स्वामी जी की बाते सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। वह स्वामी जी को घर ले गया और अपने कारोबार के बारे में सारी जानकारी दी, फिर जलपान करवा कर उन्हें सादर विदा किया।  अंतः किसी ने सच ही कहा है -

             "जिन खोजा तिन पाईयाँ, गहरे पानी पैठ। 
                                   वो बावरी क्या पाईयाँ, जो रहे किनारे बैठ।। "         

सीख - मंत्र या वरदान मनुष्य को सद्गुणों से जोड़ते है अच्छी भावना मन में भर देता है लेकिन उसे धारण कर कर्म में उतरने से और मेहनत करने से ही सफलता मिलता है।

Tuesday, April 1, 2014

Hindi Motivational Stories - ' कतनी - करनी एक समान हो '

कतनी - करनी एक समान हो

              किसी सत्संग में महत्मा जी ज्ञानोपदेश कर रहे थे - बस, राम नाम की माला जपते रहो। राम नाम से भवसागर पार कर जायेंगे। सच्चे मन से राम का नाम लो, वह नाव का काम करेगी। श्रद्धालू में से एक परम भक्त भी था। सत्संग में आने के लिए उसे प्रतिदिन नदी पार करनी पड़ती थी। गुरु जी की वाणी उसके लिए राम - बाण बन गया। वह सच्चे मन से प्रभु - स्तुति कर ईश्वरीय अनुकम्पा (याद ) से नदी पार करता था। उसने एक बार सहृदयता से उपकृत होकर एक दिन वह महात्मा जी को अपने घर में आमंत्रित किया। और महात्मा जी उस परम भक्त का निमंत्रण स्वीकार किया और चल पड़े जब महात्मा जी नदी के किनारे पहुँचे तब वह कोई नाव न देख बोले - वत्स, नाव कहाँ है ? इसे पार कैसे किया जय ? भक्त ने कहा - महात्मा जी, आप भी मज़ाक करते है। आप ही ने कहा था, कि राम नाम लो तो सहज ही भवसागर से पार हो जाएंगे। और उसी दिन से मै यह आकर जब ईश्वर को याद करता हूँ तो सन्मुख नाव और नाविक हाज़िर हो जाते है।

                 देखिये, हाथ कंगन को आरसी क्या। तब भक्त ने ईश्वर - स्मरण किया। और उसी समय नाव और नाविक हाज़िर हुए ये देखकर महात्मा जी आत्मग्लानि से विह्ल हो गये। उन्हें उस चमत्कार को देख अपनी कथनी - करनी में असमानता पर बड़ी ही लज्जा का अनुभव हुआ। और उस दिन से वे भी कथनी और करनी को समान करने में लग गये।


सीख - कथनी - करनी को समान बनाने ने के लिए हमे अन्तर ध्यान करना होगा। एक बार समय दे अपने आप को जाने और समझे कि मेरी कथनी और करनी में कितना अन्तर है। उसके बाद ही हम उस पर कार्य कर सकेंगे वर्ना महात्मा जी कि तरह हमें भी आत्मा ग्लानि का अनुभव करना पड़ेगा। 

Monday, March 31, 2014

Hindi Motivational Stories - ' सच्चा सुख सन्तुष्टता में '

सच्चा  सुख सन्तुष्टता में 

             एक सेठ बहुत सम्पत्ति का मालिक था। उसके पास इतनी सम्पत्ति थी कि उसकी १० पीढिय़ाँ बैठकर खा सकती थी।  परन्तु फिर भी वह सेठ हमेशा चिंताग्रस्त रहता था और चिन्ता का कारण यह था कि मेरी ११ वी पीढ़ी का क्या होगा ? उसके लिये तो मैंने कुछ भी नहीं जमा किया। इसी चिन्ता ने उसे रोगग्रस्त कर दिया और दिन - प्रतिदिन उसकी सेहत बिगड़ती चली गई। उसकी बिगड़ती सेहत को देखकर उसका एक शुभ - चिन्तक उसके पास आया और उसे सलाह दी कि पास के जंगल में एक साधु जी रहते है आप उनके पास जाये वे आपकी चिन्ता के निवारण अर्थ कोई न कोई उपाय जरुर करेंगे। यह सुनकर सेठ के मन में आशा की एक किरण जगी। अगले दिन वह साधु के दर्शन के लिये चल दिया। वैसे तो सेठ बहुत कंजूस था परन्तु कुछ प्राप्ति की आशा थी इसलिए अपने साथ एक फल की टोकरी ले गया था।

            जब सेठ साधू के पास गया तो उस समय साधू जी ध्यान में मग्न थे। सेठ ने बड़ी श्रद्धा से साधू को प्रणाम किया और फल की टोकरी आगे बढ़ाते हुए बोला - महाराज ! मेरी ये छोटी से भेंट स्वीकार कीजिये। साधु ने धीरे से आँखे खोली, फल की टोकरी और सेठ को देखा और कुटिया के दूसरे तरफ रखी फल की टोकरी की तरफ इशारा करते हुए साधू बोले - बेटा, भगवन (दाता ) ने मेरे लिए भोजन भेज दिया है। अब इसकी आवश्कता नहीं है। और हाँ, तुम अपनी समस्या मुझे बताओ। यदि सम्भव हुआ तो मै उसका समाधान तुम्हें बताऊँगा।

            साधू के यह बड़ी शान्ति थी और उस शान्ति के वातावरण में सेठ की आत्मा जग गयी। सेठ ने देखा साधू के पास एक टोकरा फल का है तो वह दूसरे की कामना ही नहीं रखता। और साधू के चेहरे पर शान्ति है। भरपूर है कोई कामना नहीं है। न आज कि न कल कि। .... येही बात खुद से सेठ ने जानी सोचा मेरे पास अथाह सम्पत्ति होते हुए भी मै और सम्पत्ति की कामनाओं में खोया रहता हूँ तथा दुःखी होता रहता हूँ। अपने अन्तर मन का बोध हुआ और वह साधू के चरणों में गिर पड़ा और बोला - महाराज, मेरे सवालों का जवाब मुझे मिल गया है।  आज मुझे मालूम हुआ है कि सच्चा सुख सन्तुष्टता में है न कि कामनाओं का विस्तार करने से।

सीख - वास्तव में आज मनुष्य अपनी इछाअो के पीछे भागता जा रहा है और ये इछाये मृगतृष्णा समान है। वो कभी पुरे नहीं होने है। लालच व्यक्ति को अंधा बना देता है। इस लिए इछाओ को कम करो अपने आप दुःख कम होगा।