Sunday, April 27, 2014

Hindi Motivational Stories - ' उन्नति में विघ्न रूप ईर्ष्या '

उन्नति में विघ्न रूप ईर्ष्या 

किसी मोहल्ले में कुछ बच्चे छोटे छोटे शीशे के मर्तबान लेकर बैठे थे। सभी मर्तबानों पर ढक्कन भी लगा हुआ था और हरेक बच्चे ने अपने-अपने मर्तबान में कोई-न- कोई छोटा मोटा जन्तु, कीड़ा, मच्छर कैद कर रखा था। वे देख रहे थे कि किस प्रकार ये जन्तु उछाल-उछाल कर मर्तबान से बाहर निकलने की कोशिश करते थे परन्तु ढक्कन बन्द होने के कारण निकल नहीं पाते थे। ज्यों ही वे जरा सा ढक्कन ऊपर करते, तत्क्षण ही वे उछाल कर बाहर निकल आते और वे बच्चे फिर उसे पकड़ कर अन्दर बन्द कर देते।  इस प्रकार ये बच्चे खेल में मस्त थे।

        परन्तु इन्हीं बच्चों के साथ एक बच्चा ऐसा भी था जिसके पास मर्तबान तो थे पर उसका ढक्कन नहीं था उसके मर्तबान में दो केकड़े थे। केकड़े मर्तबान के बीच में उछलते भी थे परन्तु ढक्कन न होने पर भी उस मर्तबान से बाहर नहीं आ पाते थे। सभी बच्चे इस दृश्य को देख हैरान हो रहे थे। वे सोच रहे थे कि उनके मर्तबान का ज्यों ही ढक्कन उठता है, तो मर्तबान में पड़ा जन्तु फ़ौरन उछाल कर बाहर आ जाता है परन्तु इसके मर्तबान पर तो ढक्कन भी नहीं है। फिर भी इसके केकड़े बाहर क्यों नहीं आ रहे। वे आपस में खुसर-पुसर करने लगे और कहने लगे कि ये केकड़े जरूर कमजोर होंगे तभी तो ढक्कन खुला होने पर भी ये बाहर नहीं आ रहे है। आखिर उन में से एक बच्चे ने उस बच्चे से पूछ ही लिया - क्या तुम्हारे ये केकड़े कमजोर है जो मर्तबान पर ढक्कन न लगा होने पर भी ये उससे बाहर नहीं आ पाते ? उसने जवाब दिया - अरे नहीं, ये तो बहुत बलवान है। परन्तु इनके बाहर न आ पाने का भी एक राज है। वह क्या राज है ? सभी बच्चे एक आवाज़ में बोल उठे। उसने कहा - बात यह है कि ये दोनों केकड़े एक दूसरे से बढ़कर कर ताकतवर है। परन्तु जब एक बाहर निकलने के लिए उछलता है तो दूसरा केकड़ा उसकी टाँग खीच लेता है और जब दूसरा केकड़ा छलाँग लगता है तो पहला उसकी टाँग खींच लेता है। और इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे की टाँग खींचते रहते है और दोनों में से कोई भी बाहर नहीं आ पाता।

      इस राज को सुनकर सभी खिलखिला कर हँस पड़े। ठीक ऐसी ही हालत आज के संसार की है। इस संसार में कई मनुष्य ऐसे है जिन्हें आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिलता मानो कि उनका ढक्कन बन्द है। अगर उन्हें मौका मिले तो वे बहुत जल्दी ही उन्नति कर सकते है परन्तु चाहे कोई भी वजह हो, उन्हें मौका नहीं मिलता है, वे उसके लिए प्रयास भी करते है परन्तु कुछ अन्य ईर्ष्यालु व्यक्ति उनकी टाँग खींच लेते है याने उनके प्रयास में वे कोई- न -कोई विघ्न डाल देते है। इससे न वे खुद आगे बढ़ पाते है न औरों को ही बढ़ने देते है। 

सीख - इस कहानी से यही सीख मिलता है कि हमें एक दूसरे से ईर्ष्या नहीं करना है एक दूसरे को आगे बढ़ने के लिए मदत करना है और हर एक की विशेषता को देख उन्हें उस अनुसार मौका देना है। तभी हम भी उन्नति की और बढ़ सकते है। 

Friday, April 25, 2014

Hindi Motivational Stories - ' कर्म अनुसार प्राप्ति '

कर्म अनुसार प्राप्ति 

          एक बार एक राजा एक व्यक्ति के काम से खुश हुआ। उसने उस व्यक्ति को अपने पास बुलाकर कहा कि तेरी मेहनत, वफादारी व हिम्मत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए मैं आज तुझे कुछ इनाम देना चाहता हूँ। फिर उसने कहा कि काम तो चाहे तुमने लगभग 500 रुपये जितना किया है पर मैं तुम्हें कुछ इससे अधिक देना चाहता हूँ। वह व्यक्ति बहुत खुश हो रहा था। और राजा ने उससे कहा, आज रात तुम मेरे व्यक्तिगत कमरे में ही गुजरना। वहाँ सब प्रकार का कीमती सामान है, तुम्हे जो चाहिए, वह उसमें से ले लेना परन्तु सुबह 7 बजे कमरा खाली कर देना।

        व्यक्ति का तो ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह अपने भाग्य को सराहने लगा और सोचने लगा कि सचमुच, भगवन जब देता है तो छप्पर फाड़कर ही देता है। और वह व्यक्ति रात के ठीक 9 बजे राजा के कमरे में प्रवेश किया। अनेक प्रकार की आलीशान वास्तुअों, कीमती सामान को देख कर उसकी आँखे चमक उठी।वह एक- एक चीज़ को बडे ध्यान से देखता और मन में सोच लेता कि वह यह चीज भी अपने साथ ले जाएगा, वो भी ले जाएगा और इस प्रकार उसने कई वस्तुअों को अपने साथ ले जाने की योजना बना ली। और फिर मन-ही-मन मुस्कुराते हुए सामने बिछे हुए नरम-नरम गद्दों वाले बिस्तर की ओर चल दिया। उसने सोचा कि सारा दिन बहुत काम करके वह थक गया है। तो क्यों न कुछ देर सुस्ता ही लिया जाय और उसके बाद सब सामान इकट्ठा कर सुबह होते ही सामान सहित कमरे से बाहर चले जाएंगे।

          यह सोचकर वह उस पलंग पर जाकर चैन से लेट गया। थका हुआ तो था ही, और कुछ ही क्षणों में उसे निद्रा देवी ने घेर लिया। वह सोया रहा, सोया रहा और इतना सोया रहा कि सुबह के 7 बज गए। उसी वक्त राजा का नौकर ने आकर दरवाजा खटखटाया। वह व्यक्ति आँखे मलता हुआ हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसने जल्दी से बिस्तरे से उठ कर दरवाजा खोला। नौकर ने कहा समय पूरा हो गया है। उस व्यक्ति ने घड़ी की तरफ देखा और कमरे से बाहर निकलते वक्त सामान तो बाँधकर नहीं रखा था सो एक टेबल लैंप को ही खींचता हुआ ले आया। और किसी से पूछने पर मालूम हुआ कि उस लैम्प की कीमत कुल 500 रुपये ही है। जितना उस व्यक्ति ने काम किया था, उसको उतनी ही प्राप्ति हो गई।

         जरा सोचिये सारा कमरा, कीमती सामान, आलीशान वस्तुअों से भरा उस व्यक्ति के समाने थी , वह उस में से जितना चाहे उतना ले सकता था परन्तु तकदीर के बिना मनुष्य को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। चाहे कारण कोई भी हो जैसे नींद का। परन्तु याद रखना तक़दीर भी अपने ही कर्मो से बनती है। श्रेष्ठ कर्म करने वालो की ही श्रेष्ठ तक़दीर बनती है। और निकृष्ट कर्म या खोटे कर्म करने वाले की खोटी तक़दीर। जैसे उस व्यक्ति ने 500 रुपये का काम किया था और 500 रुपये की ही उसको चीज़ मिल गई।

सीख - मनुष्य को चाहे कुछ भी हो अपने कर्मो पर सब से पहले पूरा ध्यान देना है। कर्म से ही तक़दीर बनती है।

          

Thursday, April 24, 2014

Hindi Motivational Stories - " महाराज रघु का दान "

महाराज रघु का दान 

                        महाराज रघु अयोध्या के सम्राट थे। वे भगवन श्री राम के पितामह थे। उनके नाम से ही उनको  क्षत्रिय रघुवंशी कहे जाते है। एक बार महाराज रघु ने एक बड़ा यज्ञ किया। और जब यज्ञ पूरा हुआ तो महराज ने ब्राह्मणों तथा दीन -दुःखियों को अपना सब धन दान कर दिया। महराज इतने बड़े दानी थे कि उन्होंने अपना आभूषण, सुन्दर वस्त्र और सब बर्तन तक दान में दे दिया और खुद साधारण वस्त्र पहनकर रह गये। और वे मिट्टी के बर्तनों से काम चलाने लगे। यज्ञ में सब कुछ दान करने के बाद कुछ ही समय बाद उनके पास वरतन्तु ऋषि के एक शिष्य कौत्स नाम का ब्राह्मण कुमार आये। महाराज ने उनको प्रणाम किया, आसन पर बैठाया और मिट्टी के गडुवेसे उनके पैर धोये। स्वागत-सत्कार किया और ब्राह्मण जब जाने लगा  तो महारज ने पूछा - ' आप मेरे पास कैसे पधारे है ? मैं क्या सेवा करूँ ?

                 कौत्स ने कहा - ' महाराज ! मैं आया तो किसी काम से ही था: किन्तु आपने तो सर्वस्व दान कर दिया है। मैं आप - जैसे महादानी उदार पुरुष को संकोच में नहीं डालूँगा। ' लेकिन महाराज रघु ने नम्रता से प्रार्थना की - ' आप  अपने आने का उदेश्य तो बता दें। ' तब कौत्स ने बताया कि उनका अध्ययन पूरा हो गया है। अपने गुरुदेव के आश्रम से घर जाने से पहले गुरुदेव से उन्होंने गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की। गुरुदेव ने बड़े स्नेह से कहा - 'बेटा ! तूने यहाँ रहकर जो मेरी सेवा की है, उससे में बहुत प्रसन्न हूँ। मेरी गुरुदक्षिणा तो हो गयी। तू संकोच मत कर। ख़ुशी से घर जा। ' लेकिन कौत्स ने जब गुरुदक्षिणा देने का हठ कर लिया तब गुरुदेव को क्रोध आ गया। और वे बोले - ' तूने मुझसे चौदह विधाएँ पढ़ी है, इस लिए हर एक विधा के लिए एक करोड़ सोने की मोहरें लाकर दे। ' और वाही गुरुदक्षिणा के चौदह करोड़ सोने की मोहरें लेने कौत्स अयोध्या आये थे।

          महाराज ने कौत्स की बात सुनकर कहा - 'जैसे आपने यहाँ तक आने की कृपा की है, वैसे ही मुझ पर थोड़ी- सी कृपा और करें। तीन दिन तक आप मेरी अग्निशाला में ठहरो। रघु के यहाँ से एक ब्राह्मण और वो भी कुमार निराश लौट जाय, यह तो बड़े दुःख और कलंक की बात होगी। मैं तीन दिन में आपकी गुरुदक्षिणा का कोई - न - कोई प्रबन्ध अवश्य कर दूँगा। ' कौत्स ने महाराज की आज्ञा पर अयोध्या में रुकना स्वीकार कर लिया।

          महाराज ने अपने मन्त्री को बुलाकर कहा - ' यज्ञ में सभी सामन्त नरेश कर दे चुके है। उनसे दुबारा कर लेना न्याय नहीं है। लेकिन कुबेर जीने मुझे कभी कर नहीं दिया। वे देवता है तो क्या हुआ, कैलाश पर रहते है। इस लिए पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट को उन्हें कर देना चाहिये। मेरे सब अश्त्र-शस्त्र मेरे रथ में रखवा दो। मैं कल सबेरे कुबेर पर चढ़ाई करूँगा। आज रात मैं उसी रथ में सोऊँगा। और जब तक ब्राह्मण कुमार को गुरुदक्षिणा न मिले, मैं राजमहल में पैर नहीं रख सकता। ' उस रात महाराज रघु रथ में ही सोये।

            जैसे ही सुबह हुई बड़े सबेरे उनका कोषाध्य्क्ष उनके पास दौड़ा आया और कहने लगा - ' महाराज ! खजाने का घर सोने की मोहरों से ऊपर तक भरा पड़ा है। कल रात में उसमें मोहरों की वर्षा हुई है। ' महाराज समझ गये कि कुबेर जी ने ही मोहरों की वर्षा की है। महाराज ने सब मोहरों का ढेर लगवा दिया और कौत्स से बोले - ' आप इस धन को ले जाएं !'  कौत्स ने कहा - ' मुझे तो गुरुदक्षिणा के लिये चौदह करोड़ मोहरें चाहिये। उससे अधिक एक मोहरा भी मैं नहीं लूँगा। ' महाराज ने कहा - ' लेकिन यह धन आपके लिए आया है। और ब्राह्मण का धन हम अपने यहाँ नहीं रख सकते। आपको ही ये सब लेना पड़ेगा। ' तब कौत्स बड़ी दृढ़ता से कहा - ' महाराज! मैं ब्राह्मण हूँ। धन का मुझे करना क्या है। आप इस का चाहे जो करें, मैं तो एक मोहरा अधिक नहीं लूँगा। ' और कौत्स चौदह करोड़ मोहरें लेकर चले गये। शेष मोहरें महाराज रघु ने दूसरे ब्राह्मणों को दान कर दिया।

सीख - इस कहानी से हमें सीख मिलता है की सच्चे ब्राह्मण की निशानी है। सदा जीवन उच्च विचार उसे धन मोहरें आदि से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए तो ये कांकड़ पत्थर  है और ब्राह्मण के पास तो इस से बड़ा ज्ञान का खजाना है। ज्ञान का धन है सब से बड़ा तो हम सब को पहले ज्ञान धन को ग्रहण करना चाहिये।


Hindi Motivational Stories - " सेवा ही सर्वोत्तम "

सेवा ही सर्वोत्तम 

               एक बार अकबर अपने राज दरबार में आते ही सभा से तीन प्रश्न किये और कहा कि जो इनका ठीक उत्तर देगा उसको काफी बड़ा इनाम मिलेगा। प्रश्न कुछ इस तरह के थे।

१ )  सब से अच्छा फूल कौन सा है ?
२ ) सब से बड़ा राजा कौन -सा है ?
३ ) सब से अच्छा बेटा किसका है ?

            दरबार में जो बुद्धिमान लोग थे, उन्होंने उत्तर देने की कोशिश की। किसी ने कहा सब से अच्छा फूल गुलाब का है, किसी ने कहा कमल का फूल सब से अच्छा है। और दूसरे प्रश्न के उत्तर में किसीने राजा के बारे में अकबर का नाम बताया और नहीं बताते तो उन्हें ये भी डर था की कहीं अकबर नाराज न हो जाये। इस तरह अब तीसरे प्रश्न के उत्तर में लगभग सभी ने यह उत्तर दिया की महाराज का सुपुत्र ही सब से अच्छा है। और ये भी डर था की कहीं राजकुमार को ये मालूम हो जाय की अमुक व्यक्ति ने अमुक महाराजा के सुपुत्र को अच्छा बताया है तो राजकुमार से कही दुश्मनी न हो जाये।

          राजा इन उत्तरों से संतुष्ट नहीं थे, और वे जान भी गए की ये सब प्रशंसा करने वाले है और उनके अन्दर डर भी था। और उत्तर में कुछ नवीनता नहीं और न ही कोई अच्छा विचार है। और जैसे हमेशा होता है पहले सब दरबारियों को मौका मिलता है और जब अकबर संतुष्ट नहीं होते है तो वो खुद बीरबल की तरफ इशारा करते है और फिर आज भी वाही हुआ अकबर ने बीरबल से मुस्कुराते हुए कहा अब आप ही बताइये जनाब इनका सही जवाब क्या है ? और अब सब की नज़र बीरबल की ओर थी।

       बीरबल ने मर्यादा और शिष्टाचार पूर्वक महाराज को संबोधित करके कहा, महाराज ! यों तो गुलाब व कमल अपनी- अपनी जगह पर सभी फूलों में अच्छे भी है और बड़े भी परन्तु मेरे विचार से सब से बड़े व अच्छे फूल रूई के फूल है क्यों की उन से जो हमें रुई मिलती है और उससे जो कपड़े बनते है, उन्हें पहनकर एक व्यक्ति न केवल स्वयं को सर्दी- गर्मी से बचाता है बल्कि एक सुसभ्य इन्सान दिखाई देता है। उनके बिना तो आम इंसान हैवान की तरह नंग-धडंग दिखाई देता है। आपका जो दूसरा प्रश्न है , उसके विषय में मेरा मन्यता ये है की राजाओं में सब से बड़े इंद्र है क्यों की वे वर्षा करते है। यदि वे वर्षा न करें तो खेती नहीं होंगी।  खेती नहीं होंगी तो अनाज नहीं मिलेगा और अनाज नहीं मिलेंगे तो जनता भूखों मरेंगी। और अब रह तीसरा प्रश्न सब से अच्छा बेटा किसका है ? मेरे विचार से सब से अच्छा बेटा गाय का होता है क्यों की वह हल न चलाए तो खेती नहीं होंगी। बेचारा घास और भूसा खाता है और वह भी अपनी पैदावार में से और मेहनत करके प्रजा का पेट भरने की सेवा करता है। बीरबल के इन उत्तरों को सुनकर राजा बहुत खुश हुए और राज दरबार के सभी लोग भी।

सीख - इस कहानी से हमें ये सीख मिलता है कि सेवा करने वाला ही सब से बड़ा और अच्छा होता है। इस लिए सेवा करते रहो चाहे छोटा हो या बड़ा पर करते रहो।


Wednesday, April 23, 2014

Hindi Motivational stories - " क्षमाशीलता "

क्षमाशीलता 

                   एक राजा स्वाभाव से ही न्याकारी था और क्षमाशील भी। वह अपराधियों को दण्ड भी देता था। परन्तु किसी की क्षमता और परिस्तिथि को देखकर उसके दण्ड को हल्का भी कर देता या उसे क्षमा भी कर देता था। इस प्रकार प्रजा उस राजा के गुणों और कर्तव्यों से सन्तुष्ट थी और स्वम् को शौभाग्यशाली मानती थी कि उन्हें एक ऐसे राजा की छत्रछाया प्राप्त हुई है।

               एक बार राजा के कोषाध्य्क्ष और लेखाधिकारी ने जब पिछले हिसाब-किताब की जाँच की तो उन्हें मालूम हुआ कि एक कर्मचारी ने १००० रुपये का ऋण लिया हुआ है जो उसने अभी तक चुकता नहीं किया है और चुकता करने की अवधि पूरी हो गयी है। लेखाधिकारी ने सोचा पहले उस कर्मचारी से बात करते है और फिर बात आगे देखेंगे, तो लेखाधिकारी उस कर्मचारी से मिला और सारी बात बता दी आपका ऋण चुकाने का समय समाप्त हो गया है और अगर रकम नहीं चुकाया तो राजा के सामने आपको पेश होना होगा। कर्मचारी सारी बात समझ रहा था की राजा के सामने पेश होना माना दण्ड के साथ कारावास भी हो सकता है पर कर्मचारी लाचार और मजबूर था ये बात अधिकारी भी समझ गया था। और बहुत कोशिश करने के बाद अधिकारी को ये पक्का हुआ की कर्मचारी असमर्थ है तो वह कर्मचारी से कहा अब आपको राजा के सामने पेश किया जायेगा। और कुछ दिन बाद निश्चित दिन और समय पर कर्मचारी को राजा के आगे पेश किया गया। और लेखाधिकारी राजा को कर्मचारी की सारी कहानी सुनाने लगा तब राजा हर बात को ध्यान से सुन रहा था और कर्मचारी की तरफ देख भी रहा था। और कर्मचारी गर्दन नीचे झुकाए, आँखे धरती पर गाड़े चुपचाप खड़ा था। एक ओर तो उसे लज्जा आ रही थी कि आज वह अपने पैसे नहीं चूका सकता, दूसरी ओर वह अपनी विवशता के कारण मायूस था, तीसरी ओर वह इस भय से अशान्त था कि न जाने अब महाराज क्या दण्ड सुनायेंगे।

         जब लेखाधिकारी सारा किस्सा सुना रहा था तब राजा उस कर्मचारी के हाव-भाव और उसकी रूपरेखा को ध्यान से देख रहा था। राजा को ऐसा महसूस हुआ कि यह कर्मचारी लाचार है, यह बल-बच्चेदार आदमी है, कोई दुःख की घड़ी आने पर इसने ऋण तो ले लिया परन्तु वेतन से बचत न रहने पर यह उतने समय में पैसे नहीं चूका पाया जितने समय में चुकाने की इससे आशा की थी। इस सारी स्तिथि को भांपकर राजा ने यह हुक्म दिया कि यह कर्मचारी पैसा चुकाने में असमर्थ मालूम होता है वर्ना इसकी नीयत में दोष नहीं है। अंतः इसे माफ़ किया जाता है और जो रकम इसने ली थी, उसे ऋण की बजाय राज दरबार से सहायता के रूप में शुमार किया जाए और इसके बाद इस किस्से को समाप्त किया जाए। राजा के ऐसा हुक्म सुनाने के बाद ऐसा लग रहा था कि जैसे कर्मचारी में फिर से जान आ गई हो। अब उसके चेहरे पर ख़ुशी व शुक्रिया की रेखाएँ उभर आई थी और उसने वहाँ से प्रस्थान किया। वहाँ से छूटने के बाद कर्मचारी सीधे ही एक व्यक्ति के पास गया जिसने १०० रूपया उस कर्मचारी से उधार लिया था। उस व्यक्ति के पास पहुँचकर कर्मचारी अपने आने का प्रयोजन बताया। उसने उस व्यक्ति से कहा १०० रूपया वापस कर दे। उस व्यक्ति ने कहा कि उसकी पत्नी बीमार है और इस परस्तिथि में वह उसका ऋण चुकाने में असमर्थ है। पर कर्मचारी उसको बार बार कहने लगा मुझे आज ही मेरे पैसे चाहिये। और व्यक्ति कर्मचारी से क्षमा याचना करने लगा पर कर्मचारी उसकी एक भी न सुनी और उस पर एक जोर का प्रहार किया ताकि वो व्यक्ति डर कर कही से पैसा ल दे। लेकिन जैसे ही प्रहार हुआ वह व्यक्ति चिल्लाने लगा उसे चोटे आई और आखिर यह किस्सा राजा के पास पहुँच गया।

          राजा ने सारी कहानी सुनी और कहा कर्मचारी से मैंने तो तुम पर दया करके तुम्हारे १००० रुपये माफ़ कर दिये थे, तुम ऐसे निर्दयी निकले कि तुम अपने ऋणी को १०० रुपये भी माफ़ नहीं कर सके। अब में यदि तुम पर १००० रुपये का दण्ड लगाऊ और कारावास में कड़ा दण्ड भी दूँ, तब तुम्हारा क्या हाल होगा ? यह सुनकर उस कर्मचारी के लज्जा से पसीने छूट गए और उसे अपने कर्म पर बहुत अफ़सोस हुआ।

सीख - हम देखते है कि इस कलयुग में प्राय : हरेक मनुष्य का दूसरों से ऐसा ही व्यवहार है। परमपिता न्यायकारी भी है और क्षमाशील भी। वह गुणवान भी है और कल्याणकारी भी।  मनुष्य पर अपने कर्मो का भरी ऋण चढ़ा हुआ है। और यदि सच्चे मन से ईश्वर से माफ़ी मांग ले तो दयालु परमात्मा उसे क्षमा भी कर दे। परन्तु अफ़सोस है कि वह अपनी १००० भूलों को क्षमा कराना चाहता है और दूसरे किसी की एक भूल भी माफ़ नहीं करना चाहता है। इस लिए हमें खुद को क्षमा करना है और साथ साथ दूसरे को क्षमा कर देना है। तब ईश्वर से सच्ची क्षमा मिलेंगी।

Tuesday, April 22, 2014

Hindi Motivational Stories - ' सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र '

सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र

               सूर्यवंश में त्रिशंकु बड़े  प्रसिद्ध राजा हुए है। उनके पुत्र हुए महाराज हरिश्चंद्र। महाराज हरिश्चन्द्र  इतने प्रसिद्ध सत्यवादी और धर्मात्मा थे कि उनकी कीर्ति से देवताओं के राजा इन्द्र को भी डाह होने लगी। और एक बार इंद्र ने महर्षि विश्वामित्र को हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए उकसाया। इन्द्र के कहने से महर्षि विश्वामित्रजी ने राजा हरिश्चन्द्र को योग बल से ऐसा स्वप्न दिखलाया कि राजा स्वप्न में ऋषिको सब राज्य दान कर रहे है। दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र अयोध्या आये और अपना राज्य माँगने लगे। स्वप्न में किये दानको भी राजा ने स्वीकार कर लिया और विश्वामित्र को सारा राज्य दे दिया।

             महाराज हरिश्चन्द्र पृथ्वी भर के सम्राट थे। अपना पूरा राज्य उन्होंने दान कर दिया था। अब दान की हुई भूमि में रहना उचित न समझकर स्त्री तथा पुत्र के साथ वे काशी आ गये, क्यों की पुराणों में यह वर्णन है कि काशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी है। अंतः वह पृथ्वी में होने पर भी पृथ्वी से अलग मानी जाती है।
अयोध्या से जब राजा हरिश्चन्द्र चलने लगे तब विश्वामित्र ने कहा - ' जप, तप, दान आदि बिना दक्षिणा दिये सफल नहीं होते। तुमने इतना बड़ा राज्य दिया है तो उसकी दक्षिणा में एक हज़ार सोने की मोहरें और दो। '
राजा हरिश्चन्द्र के पास अब धन कहाँ था। राज्य - दान के साथ राज्य का सब धन तो अपने - आप दान हो चूका था। ऋषि से दक्षिणा देने के लिये एक महीने का समय लेकर वे काशी आये। काशी में उन्होंने अपनी पत्नी रानी शौव्या को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। राजकुमार रोहिताश्व बहुत छोटा बालक था। प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसे अपनी माता के साथ रहने की आज्ञा दे दी। स्वम् अपने को राजा हरिश्चन्द्र एक चाण्डाल के हाथ बेच दिया और इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र को एक हज़ार मोहरें दक्षिणा में दी।

            महारानी शौव्या अब ब्राह्मण के घर में दासी का काम करने लगी। और चाण्डाल के सेवक होकर राजा हरिश्चन्द्र श्मशान घाट की चौकी दारी करने लगे। वहाँ जो मुर्दे जलाने को लाये जाते, उन से कर लेकर तब उन्हें जलाने देने का काम चाण्डाल ने उन्हें सौंपा था। एक दिन राजकुमार रोहिताश्व ब्राह्मण की पूजा के लिये फूल चुन रहा था और उस समय उसे साँप ने काट लिया। साँप का विष झटपट फ़ैल गया और रोहिताश्व मरकर भूमि पर गिर पड़ा। अब उसकी माता महारानी शौव्या को न कोई धीरज बाँधने वाला था और न उनके पुत्र की देह श्मशान पहुँचाने वाला था। वो रोती - बिलखती पुत्र की देह को हाथों पर उठाये अकेली रात में श्मशान पहुँची। वे पुत्रकी देह को जलाने जा रहीं थी कि हरिश्चन्द्र वहाँ आ गये और मरघट का कर माँगने लगे। बेचारी रानी के पास तो पुत्र की देह ढकने को कफ़न तक नहीं था। उन्होंने राजा को स्वर से पहचान लिया और गिड़गिड़ाकर कहने लगी - ' महाराज ! यह तो आपका ही पुत्र मरा पड़ा है। मेरे पास कर देने को कुछ नहीं है। राजा हरिश्चन्द्र को बड़ा दुःख हुआ ; किंतु वे अपने धर्म पर स्थिर बने रहे। उन्होंने कहा - 'रानी ! मैं यहाँ चाण्डाल का सेवक हूँ। मेरे स्वामी ने मुझे कह रखा है कि बिना कर दिये कोई यहाँ मुर्दा न जलाये। मैं अपने धर्म को नहीं छोड़ सकता। तुम मुझे कुछ देकर ही पुत्र की देह जलाओ। '

           रानी फुट-फुटकर रोने लगी और बोली - ' मेरे पास तो यही एक साड़ी है, जिसे मैं पहने हूँ, आप इसी में से आधा ले लें। ' जैसे ही रानी अपनी साड़ी फाड़ने चली, वैसे ही वहाँ भगवन नारायण, इन्द्र, धर्मराज आदि देवता और महर्षि विश्वामित्र प्रगट हो गये। महर्षि विश्वमित्रने बताया कि कुमार रोहित मरा नहीं है। यह सब तो ऋषि ने योग माया से दिखलाया था। राजा हरिश्चन्द्र को खरीदनेवाले चण्डालके रूप में साक्षात् धर्मराज थे।सत्य साक्षात् नारायण स्वरूप है।और तब सत्य के प्रभाव से राजा हरिश्चन्द्र महारानी शौव्या के साथ भगवन के धाम को चले गये।और यहाँ  महर्षि विश्वामित्र ने राजकुमार रोहिताश्व को अयोध्या का राजा बना दिया।

                                    सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है -
"चन्द्र टरै सूरज टरै , टरै  जगत व्यवहार। 
पै  ढूढव्रत हरिश्चन्द्र को , टरै  न सत्य विचार।।"

सीख - सत्य एक ऐसा गुण है जिसका कोई पर्याय नहीं है। इस लिए कहा गया है सत्य ही शिव है शिव ही सुन्दर है और सत्य ही ईश्वर है। तो आओ हम मिलकर इस सत्य का प्रयोग करें और जीवन को सफल बनाये। 

Monday, April 21, 2014

Hindi Motivational Stories - शरणार्थी की रक्षा

' शरणार्थी की रक्षा '

     एक बार एक राजा बगीचे में बैठे हुए अपनी राजधानी के बारे में , राज - काज के बारे में मंत्रियों से बातें कर रहे थे। और कुछ देर बाद आकाश से किसी पक्षी की करुणा ध्वनि सबके कानों में गुँज गई। सबका ध्यान बर बस ऊपर उस ध्वनि की तरफ गया। देखते है एक घायल कबूतर उड़ता हुआ आ रहा था उन्हीं की ओर।  उसके पंख लड़खड़ा रहे थे, लग तो ऐसा रहा था मानो वह गिर पड़ेगा। सारा शरीर रक्त से भीगा था। 

      वह उड़ता हुआ नीचे उतरा और धीरे से केवल राजा की ही गोद में जाकर गिर पड़ा। इतने में थोड़ी ही देर बाद एक भयंकर बाज उड़ता आया। जब उसने अपने शिकार को राजा की गॉड में देखा तो तेजी से उसने एक झपटटा मारा, कबूतर को दबोचने के लिए। परन्तु कबूतर तो राजा की गोद में ऐसे छिप गया था जैसे एक अबोध शिशु माँ की गोद में जाने के बाद निश्चिंत हो जाता हो। बाज देखकर उड़ा और राजा के सर से होकर गुजरा। ऐसा लगा माना वह राजा को अपनी हुक जैसे पैनी चोंच मार देगा ऐसा करते हुए दूसरे पेड़ पर जा बैठा। 
          यह सब थोड़ी ही देर में घटित हो गया। सभी इस खेल को कौतुहल पूर्वक देख रहे थे। यह समजते देर न लगी कि यह कबूतर इस बाज का शिकार है। एक मंत्री बोला - 

मंत्री - राजन यह कबूतर इस बाज का भोजन है। इसे आप छोड़ दे, नहीं तो यह बाज हमारा पीछा छोड़ने वाला नहीं है। 

राजा - नहीं ! में इस शरण में आये कबूतर को नहीं छोड़ना। इस भोले पक्षी ने किसी का क्या बिगाड़ा। इस छोटे प्राणी ने मुझ पर विश्वास किया। अपने को मेरे समर्पण किया है आख़िर क्यों ? पक्षी तो इन्सानों से डरते है। परन्तु इसने अपने को मेरे हवाले किया है। इसके प्राणों की रक्षा करना मेरा धर्म है। 

दूसरा मंत्री - परन्तु महाराज ! एक की रक्षा दूसरे की हत्या, यह कैसा न्याय ?
राजा - वह कैसे ?इससे दूसरे की हत्या कैसे ?

मंत्री - वह इस प्रकार कि आप कबूतर की रक्षा तो कर लेंगे परन्तु उस बाज की रक्षा कौन करेगा ? क्यों कि यह उसका भोजन है। अंतः वह मरेगा या नहीं ?

राजा - ठीक है। मैं उसके लिए उसका भोजन मंगवा देता हूँ। इससे दोनों की रक्षा होगी। यह कहकर राजा ने बाज के लिए तरह तरह के मॉस मंगवाये। और फिर मॉस डाले गये बाज के सामने, परन्तु बाज ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह तो टकटकी बाँधे कबूतर को देख रहा था। 

तीसरा मंत्री - महाराज ! इस कबूतर को आप छोड़ेंगे तभी यह दुष्ट बाज जायेगा अन्यथा नहीं। यह तो कबूतर को ही मारकर खाना चाहता है। 

राजा - नहीं, मैं इस कबूतर को किसी भी कीमत पर नहीं जाने दूंगा। चाहे इस के लिए मुझे अपना मॉस ही बाज को क्यों ना देना पड़े। यह कहकर राजा ने अपनी तलवार से अपनी जाँघ का मॉस काटकर बाज के सामने डाल दिया। सारे दरबारी घबरा उठे और बाज भी सब देखकर राजा का इरादा समझ गया था, और बाज उड़ गया। उस दयालु राजा ने केवल एक पक्षी के समर्पण भाव को देखकर ही अपनी जान जोखिम में डाली और उस समर्पित हुए पक्षी की रक्षा की।  

सीख -  दिल से समर्पण हो जाने से उसका फल भी अवश्य मिलता है इस लिए किसी ने कहा है सच्चा सुख है समर्पण में !