Monday, May 26, 2014

Hindi Motivational Stories............मृत्यु की स्मृति और पाप से मुक्ति

  " मृत्यु की स्मृति और पाप से मुक्ति "


              एक संत थे जिनका जीवन निष्पाप एवं पवित्र था। बहुत लोग उनके उपदेश सुनने आते थे। एक दिन एक युवक ने संत से कहा - महात्मन ! मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आप पाप रहित जीवन कैसे जी सकते है ? कितनी भी कोशिश कर लूँ फिर भी मुझ से पाप तो हो ही जाता है। आप पाप रहित जीवन कैसे जीते है, कृपया पाप रहित जीवन का रहस्य मुझे समझाइये।

                संत ने कहा - वत्स बहुत अच्छा हुआ जो तुम आ गये। क्यों कि मुझे तुम से एक विशेष बात करनी थी। युवक ने उत्सुकता से पूछा -महात्मन ! कैसी बात ?

      संत ने कहा - बेटे ! बात तेरे जीवन से सम्बन्धित है। आज सुबह मैंने सपने में देखा कि ठीक सातवें दिन आपकी मृत्यु होनी वाली है। तेरे पारिवारिक जनों का विलाप सुनकर मेरी नींद खुल गयी।  बेटे, मेरा सुबह का सपना हमेशा सच्चा होता है।

    मृत्यु की बात सुनते ही युवक के दिल की धड़कन बढ़ गयी, आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, हाथ-पैर भय से कापने लगे और सिर चकराने लगा। वह वहाँ से सीधा भगवान के मन्दिर में जाकर उनके चरणों में झुककर प्रार्थना करने लगा - हे प्रभु ! हे मेरे रक्षक ! मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत पाप किये है। पाप करके कभी मैंने पश्चाताप नहीं किया। मैं अपनी करनी को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं कर सकता। प्रभु ! मुझे माफ़ कर दीजिये। जब वह घर लौटा तो उसका खाने - पीने, हँसने - बोलने में मन नहीं लगा। संसार के वैभव अब उसे आकर्षित नहीं कर रहे थे। पाप करना तो दूर अब तो पाप करने की इच्छा भी नहीं पैदा हो रही थी। संसार की सारी वस्तुएं उसे निःसार लगने लगी क्यों कि कोई ऐसी वस्तु नहीं थी जो उसे मृत्यु से बचा ले।

    धन, दुकान, माकन, पुत्र, पत्नी, परिवार और मित्र कोई भी उसे मृत्यु बचा नहीं सकता था। वह सोचने लग कि क्या कोई ऐसा डॉक्टर नहीं जिसके कैप्सूल से मौत रुक जाये, क्या कोई ऐसा वकील नहीं जो मृत्यु को स्टे- आर्डर दे सके, क्या कोई ऐसा वैज्ञानिक नहीं जिसके शोध से यमराज की गति अवरुद्ध हो जाये। बहुत सोचने पर उसे अहसास हुआ कि सद्गुण और प्रभुस्मरण ही एकमात्र आधार है। तभी उसने हृदय में पवित्रता का संचार होने लगा।

  इस प्रकार निष्पाप एवं पवित्र भावों से उसके छः दिन बीत गये। सातवें दिन का जब सूर्योदय हुआ तो उसके मन से मृत्यु का भय निकल चूका था। इतने में संत उसके घर पहुँचे और पूछा - वत्स ! सात दिन में तुमने कितने पाप किये ? उसने कहा - महात्मन ! पाप करना तो दूर, पाप करने के विचार भी पैदा नहीं हुये। जब मौत सिर पर खड़ी हो तो मन पाप में कहाँ लगता है, गत छः दिनों में मेरा जीवन ही बदल गया है, संत ने कहा - पवित्र जीवन जीने का यही रहस्य है। मैं भी मौत का प्रतिपल स्मरण करता हूँ।

सीख - अपने को पाप से बचाने का सिंपल तरीका - मौत का स्मरण करना है। मरना तो एक दिन है। तो क्यों न अच्छे कर्म का पूँजी जमा करें। कहते है इन्सान मरता है तो दो चीजें साथ चलते है अच्छा या बुरा सतकर्म या विक्रम। तो ये आपके ऊपर है कि आप क्या साथ ले जाना चाहते है।






Friday, May 23, 2014

Hindi Motivational Stories ............भोले का साथी भगवन

भोले का साथी भगवन 


        एक बार की बात है एक सियार जंगल में से गुजर रहा था। दोपहर का समय था, गर्मी का मौसम था। गर्मी बहुत पड़ रही थी। सियार को बहुत प्यास लगी, उसका गला सूखता जा रहा था, उसे ऐसे लगा कि अगर जल्दी पानी नहीं मिलेंगा तो आज प्राण पखेरू उड़ जायेंगे। वह पानी की तलाश में हांफता हुआ आगे बढ़ रहा था कि उसकी निगाह एकाएक एक खड्डे की ओर गयी जिस में कुछ पानी था। उसे देखते ही जीवन बचने की कुछ उमीद लगी परन्तु वह खढडा कुछ गहरा था। उसमें वह जैसे-तैसे उतर तो जाता परन्तु फिर उस में से बाहर निकलना उसे मुश्किल लग रहा था। यह सोचकर उसे महसूस होने लगा कि आज उसकी मौत तो आ ही जायेगी। या तो वह प्यासा ही खढ़डे के बाहर मर जाएगा या पानी पीकर खढ़डे में पड़ा-पड़ा बाहर आने की चिंता में दम तोड़ देगा।

         अचानक ही उसने देखा कि एक बकरी उस ओर आ रही थी। उसे लगा कि वह भी पानी ही की तलाश में आ रही है। उसे ख्याल आया कि अब शायद काम बन जाये। जब बकरी उसके निकट पहुँची तो सियार ने उससे कहा - बहन बकरी, क्या तुम्हे प्यास लगी है ? क्या तुम पानी की तलाश में निकली हो ? बकरी बोली - हाँ भैय्या ? गला सुखा जा रहा है और प्यास के मरे दम घुटता जा रहा है। अगर थोड़ी देर पानी न मिला तो आज यह तेरी बहन बचेगी नहीं।

        सियार बोला - अरे, ऐसा क्यों कहती हो ? चलो मैं तुम्हे दिखाऊँगा पानी कहाँ है ? सियार मक्कार तो होता ही है। वह बकरी को बहन कहकर पुकारता हुआ नेता बनकर स्वयं को बड़ा निःस्वार्थ प्रगट करता हुआ खढडे की ओर ले चला। खढ्डे पर पहुँच कर सियार बोला - लो जितना पानी पीना हो, पि लो। बकरी बोली - भैय्या, पानी पीने के लिए इस में उतर तो जाऊँ परन्तु फिर निकालूंगी कैसे ? दूसरी बात यह है कि तुम भी तो पानी पी लो।  सियार बोला - अच्छा, तो फिर ऐसा करते है कि तुम कहती हो तो मैं भी पानी पि लेता हूँ। मैं भी उतरता हूँ, तुम भी उतरो। मैं पानी पीकर तुम्हारी पीठ पर चढ़कर बाहर निकल आऊंगा और बाहर खड़े होकर तुम्हारे सींगो से पकड़कर तुम्हे भी बाहर खींच लूँगा ताकि तुम भी बाहर आ सको। अगर मैं तुम्हें सींगो से खींच लूँ, तब तुम बुरा तो नहीं मानोगी ?

     बकरी बोली - इसमें बुरा मानने की भला क्या बात है ? तुम तो मेरा भला ही चाह रहे हो। लो, अब देर किस बात की है। दोनों उतर कर जल्दी से पानी पी लेते है। अब सियार तो बकरी की पीठ पर चढ़कर बाहर निकल आया। तब बकरी ने उसे कहा - लो भैय्या, अब मुझे भी खींच लो। ऐसा कहकर बकरी ने अपने सींग आगे बढ़ाये। परन्तु मक्कार सियार बोला - वाह बहन वाह, अगर तू मेरी खैर चाहती होती, तू कभी न कहती कि मुझे सींगो से पकड़कर बाहर खींच लूँ क्यों कि तुझे खीचने की कोशिश करने पर तो मैं स्वयं ही वापस खढ़डे में गिर जाऊँगा। तू स्वयं ही सोच की तू कितनी भारी और बड़ी है। मैं तुम्हे खींचने की कोशिश करूँगा तो तुम्हारे साथ मैं भी खढ़डे में मर जाऊँगा। इस लिए नमस्कार, मैं तो अब चलता हूँ क्यों कि मेरी साथी मेरा इंतज़ार करते होंगे। ऐसा कहकर वह तो वहाँ से चल दिया और बकरी वही ठगी-सी खड़ी रह गयी।

      सियार कुछ ही आगे बढ़ा था कि रास्ते में एक बाघ आ रहा था। बाघ सियार पर झपटा उसे अपनी भूख का शिकार और गले का ग्रास बना लिया। बकरी वहाँ खड़ी मैं.. में कर रही थी मानो भगवान से प्रार्थना कर रही हो कि प्रभु, सच्चाई वालों के आप ही साथी हो। हे प्रभु, आप मुझे इस खढ़डे से निकालो। वह अपना मुँह ऊपर को उठाकर मैं. मैं … मैं कर रही थी।

      कुछ देर बाद उसी रस्ते से एक भक्त स्वभाव का यात्री वह से गुजर रहा था। उसने मैं.. मैं की आवाज़ सुनकर जब चारों तरफ देखा उसे कोई बकरी दिखाई नहीं दी तो उसे ख्याल आया कि बकरी किसी परेशानी में है। वह उस आवाज़ का अनुशरण करते खढ़डे के पास पहुँचा गया। उसने उसे निकाल कर बाहर किया। जीवन की रक्षा पाकर बकरी ख़ुशी से उछलती-कुढ़ती चली गयी।

सीख -  इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि हम चालाकी से अपना काम तो कर लेँगे पर उसका भुगतान कहाँ और कैसे किस रूप में भरना पड़ता है इस का पता वक्त ही बताएगा। इस लिये चालाकी नहीं करे। और एक सीख ये मिला की भोले का साथी भगवान है मुश्किल घडी में ईश्वर को दिल से याद करो तो मदत अवश्य मिल जाती है। 

Thursday, May 22, 2014

Hindi Motivational Stories...................................... सत्यता की महानता

सत्यता की महानता 

      एक वन में कुमुद नाम के ऋषि रहा करते थे। एक कुछ कार्य से उन्हें बाहर जाना हुआ। और कुमुद ऋषि अपना कार्य पूरा करके वापिस लौटे तो देखा कि अन्य ऋषि उनके वन में लगे वृक्ष के फल तोड़कर खा रहा था। ये दृश्य देखने के पश्चात् कुमुद ऋषि उनके नजदीक पहुँचे और पूछा -  क्या आपने फल ग्रहण करने से पूर्व इस वन के अधिपति की अनुमति प्राप्त की है ? ये बात सुनकर दूसरे ऋषि चौके क्यों कि वो यहाँ से गुजर रहे थे तो भूख की व्यकुलता में बिना कुछ सोचे ही फल तोड़कर खाना शुरू  कर दिया। इस पर कुमुद ऋषि ने बताया के ये उनका ही वन है और वे ये समझते है कि बिना किसी आज्ञा से उसकी वस्तु का उपभोग भी चोरी है, पाप है। इसकी सजा तो आपको आवश्य भुगतनी चाहिए। ये सुनकर फल खाने वाले ऋषि को अत्यन्त पश्चाताप हुआ और उन्होंने सुझाव दिया कि सजा देने का अधिकार तो राजा के पास है, आप उन्हें अपना अपराध सुनाकर सजा पूरा करे। 

       ऋषि राजा के पास पहुँचे। सारी बात सुनने के पश्चात् राजा ने कहा कि इतने थोड़े से फल बिना पूछे ले लेना सो भी आप जैसे ऋषि के लिए कोई पाप नहीं है। मैं तो इसकी सजा देने में अक्षम हूँ। अगर कुमुद ऋषि इसे चोरी या पाप समझते है तो आप उन्हीं से क्षमा याचना कीजिये। ऋषि ये सुनकर पुनः वन अधिपति के पास पहुँचे और अपराध की सजा माँगी। इस बार कुमुद ऋषि ने जवाब दिया कि - जाईये, मैंने आपको क्षमा किया। पर अब तो अपराधी ऋषि ढूढ़ थे सजा भोगने के लिए। बहुत देर समझाने पर भी जब वे अपनी बात से नहीं टूटे तो कुमुद ऋषि ने वन से दूर कुटिया में जाकर उन्हें तपस्या करने का सुजाव दिया और कहा की शायद परमात्मा स्वयं ही क्षमा कर दे। अपराधी ऋषि का ग्लानियुक्त मन तो जैसे प्रतिक्षण उन्हें झकझोर रहा था। भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी की परवाह किये बिना वो कुटिया में जाकर ध्यान मग्न हो गये। 

     दो दिन की कठिन तपस्या रंग लाई। अपने अन्दर एक नई शक्ति का अनुभव करते हुए उन्होंने सुना - " हे वत्स, मैंने तुम्हें क्षमा किया, तुमने सच बताकर अपनी चोरी स्वीकार की, इसी के लिये तुम्हारी आधी सजा से तुम्हे मुक्ति मिली और रही हुई सजा इस तपस्या से पूर्ण हुई। अब जाओ, जाकर अपना कर्तव्य  फिर से शुरू करो। "

सीख - इस कहानी से हम समझ सकते है की बिना अनुमति के कोई वस्तु का उपयोग करना भी पाप है। और अगर जाने - अनजाने ऐसा हो जाता है तो सच बताकर पश्चाताप करे और ईश्वर की याद में रहकर अपने मन को शुद्ध करे। 

Wednesday, May 21, 2014

Hindi Motivational Stories....................दुआये लें और बददुआओं से बचे !

दुआये लें और बददुआओं से बचे !

     
         बहुत पुरानी बात है एक आदिवासी गॉव में एक बनिया अनाज और किराना की दूकान चलाता था। एक दिन एक गरीब महिला ने सौ रुपये का नोट बनिये के हाथ पर रखा और साठ रुपये का सामान लिया, फिर बनिया अन्य ग्राहकों को सामान देने लगा। महिला खड़ी रही। समय बीतता जा रहा था, महिला ने बचे हुए चालीस रुपये माँगे। बनिये ने कहा - तुम्हें चालीस रुपये तो उसी समय दे दिये थे। महिला बोली - नहीं सेठ, तुमने मुझे पैसे नहीं दिये, मुझे कुछ और सामान भी लेना है, सो मुझे चालीस रुपये दे दीजिये।

      बनिये ने हर बार यही कहा कि मैंने रुपये दे दिये है, तब नौकर बोला, सेठजी, इसके चालीस रुपये देने अभी बाकी है। अब सेठ, नौकर पर बरस पड़ा - इतना ही तुझे है तो तू अपनी जेब से दे दे। यह सुन कर असहाय महिला फिर से गिड़गिड़ाई - सेठ, अभी भी मुझ गरीब के चालीस रुपये दे दे.…… वरना  महिला के ऐसे बोलने पर सेठ भड़क उठा - क्या कर लेगी, मैंने रुपये दे दिए है। सेठ, एक गरीब, लाचार की हाय ! मत लो, मैं आखिरी बार कह रही हूँ - महिला आँसू भरकर बोली लेकिन सेठ के दिल में तो लोभ था। वह बोला - क्या तुमको दुबारा चाहिए ?

      आखिर लाचार महिला का दिल जल उठा, अंतर्मन से हाय निकली - सेठ, एक माह में तुम्हारी दोनों आँखे की रोशनी चली जायेगी और आज ठीक एक वर्ष बाद तुम इस दुनिया में नहीं रहोगे। अब तो सेठ को और ही ज्यादा गुस्सा आ गया, बोला - चली जा यहाँ से, क्या तेरे कहने से ऐसा होगा ?

    मेरे साथियों लाचार की लगी हाय काम कर गयी ! ठीक पच्चीसवें दिन जब सेठ सुबह सोकर उठा तो उसे लगा कि कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। वह एक खम्भे से टकराकर गिर पड़ा। अब इस घटना के एक वर्ष बाद एक दिन अचानक सेठ को दौरा पड़ा और वह दुनियाँ से विदा हो गया। मात्र चालीस रुपये की लालच में गरीब की जो हाय ली उसका परिणाम कितना भयंकर निकला ? इस तरह की हाय इसी जनम में पूरी नहीं हो जाती, अगले जन्मों तक भी पीछा करती है।

सीख -  साथियो काश ! सेठ चालीस रुपये का लोभ न करता, महिला भी सुख से रहती, और सेठ भी पूरी उम्र जी लेता शान से एक छोटी सी गलती कारण कितना बड़ा भुगतान भरना पड़ा। यही पर हमको शिक्षा मिलता है की हमारे घर हम जो पैसा ले आ रहे है। वो हराम या बेईमान का तो नहीं है। चेक जरूर करे और हाय ! से बचे। हम अपने घर में नीति से, प्रेम से , प्रसन्नता से, पवित्रता से , ईमानदारी से आशीर्वाद से यदि ला रहे है तो घर में शान्ति और ख़ुशी होगी , अन्यथा नहीं। 

Tuesday, May 20, 2014

Hindi Motivational Stories ........................अशान्ति का कारण अहंकार

" अशान्ति का कारण अहंकार "

       मुम्बई में एक सेठ रहते थे जिनका नाम था सोमनाथ। उन्हें भक्ति और पूजा में विशेष रुचि थी। वे समय - समय पर किसी - न - किसी साधु - संत को अतिथि  के रूप में बुलाया करते और उनकी सेवा करते। उनके पास  धन सम्पत्ति होने के बाद भी वे बहुत अशान्त रहते थे। एक बार सेठ जी के ही निमन्त्रण पर एक सन्यासी उनके यह आकर ठहरे हुए थे। सेठ जी ने सन्यासी जी को बताया कि उनके जीवन में अशान्ति है।

         दोपहर भोजन के बाद सन्यासी और सेठ एक साथ बैठे कुछ बातें की उसके बाद सेठ ने सन्यासी जी को कहा चलिये मैं आपको अपने बंगले के विभिन्न भाग दिखता हूँ। बंगला देखने के बाद सेठ जी सन्यासी को बगीचे में ले गए। जहाँ रंग-बिरंगे फूलों की शोभा देखने- जैसी थी। और सेठ जी, अँगुली के इशारे से सन्यासी जी को बता रहे थे - इस फल का पौधा मैंने सिंगापुर से मँगाया था, वह सामने जो पेड़ है, उसकी कलम ऑस्ट्रेलिया से मंगायी गयी थी। और वह जो फूल दिखायी दे रहा है, वह जापान से लाया गया था.…

        और वो देखो वो मेरी ही फैक्टरी है जहाँ तीन हज़ार लोग काम करते है। और एक फैक्टरी का काम चल रहा है.। मेरे पास चार मोटर कार है। इस तरह सेठ अपनी सम्पत्ति के बारे में बताते जा रहे थे। और सन्यासी केवल …" हूँ , हूँ , हूँ  " ही करते रहे।

         जब वे वापस अपनी बैठक में लौटे तो सामने एक विश्व का नक्शा लटक रहा था दीवार पर। सन्यासी महोदय ने सेठ जी से कहा - नक़्शे की तरफ इशारा करते हुए , सेठ जी, इस में भारत देश को कहा दिखाया है ?सेठ जी ने भारत देश पर अँगुली रख दी। सन्यासी जी ने फिर पूछा - सेठ जी, इस में मुम्बई को कहाँ दिखाया है ? सेठ जी फिर अँगुली रख दी। उसमें तो मुम्बई को एक बिन्दु के ही रूप में दिखाया गया था। तब सन्यासी ने कहा सेठ जी इस में आपका बँगला और कारखाना कहाँ दिखाया है ? यह सुनकर सेठ जी को लज्जा का अनुभव हुआ क्यों कि जब मुम्बई को ही नक़्शे में बिन्दु - सम दिखाया है तो इतने बड़े विश्व में सेठ जी के बंगले और कारखाने को कैसे दिखाया जा सकता था।

         सेठ जी समझ गये कि सन्यासी जी ने उसके अभिमान को दूर करने के लिए ही यह सब पूछा है। फिर सन्यासी ने समझाया की शान्ति का अनुभव करने के लिये अभिमान और अंहकार को छोड़ना होगा। क्यों की अशान्ति का मुख्य कारण ही अहंकार है। सच्ची शान्ति ईश्वर की याद और उसकी महीमा में है। जो शास्वत सत्य है। सेठ जी को सारी बात समझ में आयी और वे ईश्वर की अराधना में रहने लगे।

सीख - हमारे पास चाहे कुछ भी हो लेकिन उसका अभिमान न हो क्यों की ये संसार ईश्वर की सुन्दर रचना है। हम भी उसकी रचना है। रचना से बड़ा रचने वाला है फिर अभिमान क्यों ?


Monday, May 19, 2014

Hindi Motivational stories - शालिग्राम और शिव

शालिग्राम और शिव

       बहुत पुरानी बात है बहुत समय पहले की बात है, कुरक्षेत्र में शालिग्राम नाम का एक बालक रहता था। और हुआ ऐसा की बचपन में ही उनके पिता शिवानन्द चल बसे। शिवानन्द बड़े सज्जन पुरुष थे। लेकिन बालक शालिग्राम को उनका सहयोग नहीं मिल पाया।

              और शालिग्राम की माँ की केवल एक ही आशा थी की शालिग्राम अपने बाप जैसा गुणवान बने। इस लिए वह हर तरह शालिग्राम का ध्यान रखती उसका इंतज़ार करती रहती। लेकिन शालिग्राम को खेल - कूद के शिवाय और कुछ न सूझता था। और धीरे धीरे वह और ही कुसंग में गिरता जा रहा था। और उसे माँ की याद सिर्फ खाना खाने और पैसे लेने के लिए ही आती थी।

                     अब शालिग्राम रात को देर घर लौटता। माँ देर तक उसकी प्रतीक्षा करती, उसे समझाती परन्तु बालक  कहाँ मानता था ! और माँ  उसे केवल एक बात मानने को कहती कि तुम ऐसा कोई कर्म न करो जिससे तुम्हारे माता-पिता के नाम को दाग लगे।

     शालिग्राम यह सब बाते अपने दोस्तों को सुनाया करता। दोस्त सुनते -सुनते तंग आ गये। आखिर एक दिन उन्होंने कहा - तुम एक दिन माँ का काम तमाम क्यों  नहीं करते !उसके लिए साधन तुम्हें हम देंगे। शालिग्राम ने कहा - हाँ, अब ऐसा करना  पड़ेगा। और वो दोस्तों से साधन लेकर रात को घर की तरफ चल दिया।

      उस दिन वह रात को 12 बजे घर पहुँचा। सर्दी का मौसम था। वर्षा हो रही थी और वह ठंड के मरे तड़प रहा था। माँ बेचारी तो पहले से  इंतज़ार कर रही थी। उसने उसे वस्त्र दिये, खाना खिलाया और प्यार करते हुए वे शिक्षा भी देती रही। शालिग्राम ने तो मन में कुछ और ही ठानी हुई थी। उसी सोच को सोचते सोचते उसे नींद आ गई और कुछ देर बाद स्वप्न में को गए और स्वप्न में भी उसी उधेड़बुन में रहा। स्वप्न में उसने मौका पाकर अपनी माँ के साथ सदा के लिए सम्बन्ध तोड़ने का कार्य कर लिया और अपनी माँ के शीर्ष को बाहर ले चला ताकि दोस्तों को अपनी वफादारी का प्रमाण दिखाये।

     स्वप्न में ही शालिग्राम ने देखा कि वह धीरे - धीरे चल रहा था। बाहर वर्षा के कारण रस्ते में फिसलन हो रही थी। शालिग्राम फिसल कर कुहनियों के बल गिर पड़ा.…  .! 'हाय - यह शब्द उसके मुख से अनायास ही निकल गया। परन्तु इसके साथ ही एक कोमल ध्वनि उसके कानो में पड़ी - बेटा, तुझे कहीं चोट तो नहीं आई। वह इधर - उधर देखने लगा परन्तु यह आवाज़ तो उसकी माँ के शीर्ष से सुनाई दी थी। शालिग्राम की आँखों में पानी भर आया। वह अपने को कोसने लगा। वह माँ ,माँ ,माँ.… ऐसे चिल्लाने लगा। स्वप्न में 'माँ - माँ कहते उसकी आवाज़ बाहर भी सुनाई दी। माँ भागी - भागी उसके पास पहुँची और उसने कहा - बोलो बेटा ? शालिग्राम अपने सामने माँ को खड़ा देख आश्चर्याचाकित हुआ। वह सिसक -सिसक कर, 'माँ - माँ ' कहता हुआ अपनी माँ के गले से लग कर बोला - माँ, बताओ मेरे लिए क्या आज्ञा है ? मैं तुम्हे क्या दे सकता हूँ ? जो मेरे पास है, वह मैं अवश्य दूँगा।  माँ बोली - अच्छा तो आज मुझे अपनी बुराइयों का दान दे दो।

सीख - एक बात अपने सुनी होगी ठोकर से ही ठाकुर बनते है। लेकिन साद विवेक से काम लिया जय तो समय से पहले शै मार्ग पर चल सकते है वर्ना ठोकर खाने के बाद तो ठिकाने पर आ ही जाना है और जो ठोकर खाने के बाद भी नहीं सुधरते तो उनके लिए क्या काहे ?................  आप सोचिए।


Saturday, May 17, 2014

Hindi Motivational Stories.....................

" अन्न का मन पर प्रभाव "

       अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को हम सुनते है और सोचते भी है हाँ बात तो सही है इस के बहुत से उदहारण हम अपने धर्मिक और विज्ञानं के किताबों में पढ़ते है। जैसा अन्न वैसा मन जैसा पानी वैसी वाणी इस तरह के स्लोगन्स भी हम पढ़ते रहते है। पर इस बात का हमारे मन और बुद्धि पर कितना असर होता है या हम इस बात का कितना चिन्तन करते है और अनुकरण जीवन में कहा तक करते है, इस बात पर निर्भर होता है।

       इस बात का एक सुन्दर उदहारण महभारत के एक प्रसंग में आता है। युद्ध पूरा होने के बाद भीष्म पितामह सर - शय्या पर लेटे हुए थे और अर्जुन को धर्मोपदेश दे रहे थे। धर्म की बड़ी गम्भीर लाभदायक बातें बता रहे थे। और द्रौपदी भी वहाँ खड़ी थी, उसको हँसी आ गई। पितामह का ध्यान उधर गया और पूछा बेटी क्यों हँसती हो ? क्या बात है ?

       द्रौपदी ने कहा - ऐसी कोई खास बात नहीं है, फिर पितामह ने कहा - बेटी तुम्हारी हँसी में कुछ रहस्य है। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह आपको बुरा तो नहीं लगेगा। पितामह बोले - नहीं बेटी , बुरा नहीं लगेगा। तुम जो चाहो पूछो। तब द्रौपदी ने कहा - पितामह, आपको स्मरण है, जब मेरी इज़्ज़त दुर्योधन की सभा में उतारने का प्रयत्न दुःशासन कर रहा था, उस समय मैं रो रही थी, चिल्ला रही थी। आप भी वहाँ उपस्थित थे। लेकिन उस समय आपका यह ज्ञान - ध्यान का उपदेश कहाँ गया था ?

       भीष्म बोले - तुम ठीक कहती हो, बेटी। उस समय मैं दुर्योधन का पाप भरा अन्न खाता था, इस लिए मेरा मन मलीन हुआ पड़ा था। मैं चाहते हुए भी धर्म की बातें उस समय नहीं कह सका। और आज अर्जुन के तीरों ने उस रक्त को निकाल दिया है, इसलिए मेरा मन शुद्ध हो गया है। इस लिए आज धर्मोपदेश दे रहा हूँ।

सीख - धर्म के रक्षक भीष्म पितामह, जिनके आगे मानव नत मस्तक हो जाते, वह स्वयं सब कुछ भूले हुए थे क्योंकि पाप भरे अन्न का प्रभाव उनके मन पर पड़ा हुआ था। इस लिए अन्न का मन पर प्रभाव इस बात को जान कर हमें अन्न को उतनी ही शुद्धता से ग्रहण करना चाहिए।