Saturday, June 7, 2014

Hindi Motivational Stories.... कला का सम्मान करो

कला का सम्मान करो


            प्रदर्शनी में प्रदर्शित भगवान की उस भव्य मूर्ति को देखने वालों में सम्राट समुद्र गुप्त, उनके महामात्य व अन्य राज्य कर्मचारी भी शामिल थे और सभी एक स्वर में मूर्तिकार के कला-कौशल की हृदय से सहराना कर  रहे थे। जब सम्राट ने कलाकार का नाम पूछा तो प्रदर्शनी में सन्नाटा छा गया। क्यों कि कलाकार का नाम किसी को पता ही न था। आश्चर्य की बात थी कि इतना अनोखा कलाकार स्वयं को छिपाये हुए क्यों है ? काफी खोज-बीन के पश्चात् राज्य कर्मचारी एक काले-कलूटे युवक को पकड़ कर लाये  सम्राट से बोले-महाराज, गजब हो गया ! इस शूद्र ने भगवान की पवित्र मूर्ति बनाई। दर्शकों में कुछ ऊँची जाति के लोग भी खड़े थे। वे चिल्लाये-पापम् -शान्तम् ! गजब !! महान गजब !!! इस शूद्र को भगवान की मूर्ति गढ़ने  अधिकार किसने दिया। इसके हाथ काट दिये जाने चाहिए। उनकी आवेशपूर्ण बातें सुन कर मूर्तिकार डर के मारे थर-थर काँपने लगा और सम्राट के चरणों में गिर कर क्षमा याचना करने लगा।

            सम्राट समुद्र गुप्त ने बड़े प्यार से उसे उठाया और उच्च वर्ण के लोगों की ओर आँखे तरेर कर देखते हुए कहा -छी : ! कैसी अन्याय पूर्ण बातें कर रहे है आपलोग ! भगवान की मूर्ति बनाने वाले इन सुन्दर हाथों के प्रति आप सबको ऐसा निर्णय ? आप ऊँचे और कुलीन लोगो से मुझे ऐसी अपेक्षा न थी। तोड़ दो इस ऊँची-नीच की दीवार को, तभी सभी आपस में प्यार से हिल-मिल कर रह पाएंगे, समाज सुख-शांति व समृद्धि आयेगी और सही अर्थो में हम वसुधैव-कुटुम्बकमह की भावना को धरा पर साकार कर पायेंगे। यों कहकर सम्राट ने उस काले शूद्र युवक के हाथ अपने हाथों में लेकर चुम लिए और उसे सबके बीच एक हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ ईनाम में देते हुए अपना राजमूर्तिकार घोषित कर दिया।

सीख - ये कहानी व्यक्ति की कला कौशल की सरहाना करते हुए ऊँच-नीच का भेद भाव मिटाकर सभी लोगो को हिल मिलकर रहने की प्रेरणा देती है। इस लिए हमें व्यक्ति की जाति धर्म को न देखकर उसकी गुण और कला को देख सम्मान करना चाहिए।
   

Friday, June 6, 2014

Hindi Motivational Stories.... परिश्रम का चमत्कार

परिश्रम का चमत्कार 

                 चंद्रपुर गाँव में एक किसान रहता था। उसके दो बेटे थे। मरते समय उसने दोनों बेटों को एक जैसा संपत्ति बांट दी और सीख देते हुए कहा कि तुम दोनों हमेशा अच्छे से अच्छा खाना खाने की कोशिश करना। इसी से तुम हमेशा मेरी तरह धनी व सुखी रह सकोगे। किसान के मरने के बाद छोटे भाई बड़े भाई से कहा - भैया, चलो किसी बड़े शहर में चलकर रहते है। वहीँ हमें अच्छे से अच्छा खाना मिल सकता है। बड़े भाई ने कहा - अगर तुम चाहो तो शहर जा सकते हो, मैं यही गाँव में रहूँगा और जो अच्छे से अच्छा खाना यहाँ मिलेगा, वही खाऊँगा।

                छोटे ने अपनी जमीन-जायदाद बेचीं और सारा पैसा लेकर शहर में उसने बड़ा सा घर लिया। अच्छे से अच्छे रसोईये व् नौकर रखे, उनसे अच्छे से अच्छा खाना बनवाकर खाने लगा और आराम से रहने लगा। सोचने  लगा कि अब वह जल्दी ही अपने पिता की तरह धनी और सुखी हो जायेगा। लेकिन हुआ उसका उल्टा। जल्दी ही उसका सारा पैसा ख़त्म हो  गया और फिर सारा सामान व् मकान भी बिक गया। अंतः उसे गाँव में लौटना पड़ा।

               गाँव आकर उसने देखा कि उसका बड़ा भाई बहुत धनी हो गया है। उसने कहा - भैया, मुझे वह खाना दिखाओ, जिसे खाकर तुम इतने धनवान बने हो। मैं तो शहर में अच्छे से अच्छा खाना खाया फिर भी कंगाल हो गया। बड़े भाई ने कहा खाना दिखाना क्या ? में तुम्हें खिलाऊँगा भी। लेकिन पहले खेत पर चलें। और बड़े भाई खेत में काम करने लगा और छोटे को भी काम पर लगा दिया इस तरह दोनों खेत में बहुत देर तक परिश्र्म करते रहे और फिर उन्हें बहुत जोर की भूख लगी। छोटे ने कहा मेरे हाथ पैर जवाब दे रहे है। अब तो अपना वह अच्छे से अच्छा खाना खिलाईये। दोनों हाथ पैर धोने के बाद पेड़ की छाया में बैठ गए। फिर बड़े भाई ने पोटली खोली और उस में से रोटी निकालकर एक छोटे भाई को दिया और एक खुद ने ली। छोटे का तो भूख के मारे बुरा हाल था। वह फ़ौरन उस मोटी- सी सुखी रोटी पर टूट पड़ा। भूख के मारे उसे वह रोटी छप्पन भोग तरह लग रही थी। बड़े ने पूछा, कहो रोटी का स्वाद कैसा है ? बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कह कर उसने पूरी रोटी ख़त्म कर दी। इस रोटी से मुझ में जरा-सी-जान आयी। अब चलिये, घर चलकर मुझे अपना अच्छा खाना भी खिलाइये। बड़े भाई ने कहा यही तो वह सब से अच्छा खाना है, क्यों तुम्हे अच्छा नहीं लगा ? छोटे ने कहा -रोटी तो बहुत स्वादिष्ट लगी, लेकिन क्या यही आपका अच्छा खाना है ? आश्चर्य से छोटे ने पूछा ! मेरे भाई, मेहनत करने के बाद कड़कड़ाकर भूख लगाने पर खाया गया खाना ही दुनिया का  सब से अच्छा खाना होता है। इसी अच्छे खाने से धनी और सुखी रहा जा सकता है। पिताजी के कहने का यही मतलब था। इस तरह बड़े भाई ने छोटे को समझाया। तब छोटे के समझ में आ गया की धनवान बनना है तो परिश्रम करो परिश्रम का ही चमत्कार है।

सीख - बिना मेहनत किये कितना भी अच्छा खाना खाने से धनवान नहीं होंगे। परिश्रम करके खाना खायेंगे तो धनवान जरूर बनेंगे। 

Thursday, June 5, 2014

Hindi Motivational Stories............. अपकारी पर भी उपकार करें

अपकारी पर भी उपकार करें


      बहुत बार ऐसा ही होता है कि हम अपराधी को अपराध का सजा देना ही अपना फ़र्ज़ समझते है। और कहानी का टाइटल कुछ  कहता है। एक बार की बात है महाराज रणजीतसिंह कहीं जा रहे थे। साथ ही बहुत से अमीर-उमराव व अंग-रक्षक थे। इतने बड़े काफिले के होते हुए भी अचानक एक पत्थर महाराज के सिर पर आकर लगा। उनका सिर फट गया और वे लहू-लुहान हो गये। इस अप्रत्यक्ष घटना से चारों तरफ अफरा-तफरी मच गयी। तुरंत पत्थर मारने वाले को ढूंढने के लिए सैनिक इधर-उधर घोड़े दौड़ाने लगे।

   थोड़ी देर में दो सिपाही एक मरियल से बूढ़े और एक पतले-दुबले लड़के को पकड़कर महाराज के सामने लाये। बूढ़ा भय से थर थर काँप रहा था। बड़ी कठिनाई से वह कह पाया - मैं बे कसूर हुँ महाराज मैं तो अपने बच्चे की भूख मिटाने के लिए कुछ तोड़ना चाहता था। महाराज ने बूढ़े को सांत्वना दी - घबराओ मत बाबा। अपनी बात आराम से कहो।

   महाराज, यदि पत्थर आम की डाली को लग जाता तो मैं आम पा जाता, पर पत्थर आम को न लग कर आपको लग गया, मैं अपने किये की क्षमा चाहता हूँ। बाबा, यदि तुम्हारा पत्थर आम को लगता तो तुम्हे और तुम्हारे बच्चे को आम खाने को मिल जाता न ? हाँ महाराज ! बूढ़े ने काँपते आवाज में कहा। किन्तु अब तो तुम्हारा पत्थर महाराज रणजीतसिंह को लगा है, और वह वृक्ष से गया- गुजरा नहीं है। तुम्हे और तुम्हारे बेटे को स्वादिष्ट भोजन, फल और मिष्ठान खाने को मिलेंगा। बूढ़ा भौचक ! अमीर-उमराव सन्न ! अंगरक्षक हैरान ! किन्तु महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान खिल रही थी। महाराज ने आज्ञा दी - इस बूढ़े को साल भर खाने-पीने योग्य अन्न दिया जाये और पाँच हजार रूपया नगद !यह दूसरा आश्चर्य था।

   एक अमीर ने पूछ ही लिया -  यह आप क्या कर रहे हो, महाराज ! अपराधी को सजा की बजाय पुरुस्कार दे रहे हो ? रंजीत सिंह ने शांत भाव कहा - अरे भाई, जब निर्जीव पेड़ पत्थर की मार सह कर भी लोगों को मीठा फल देता है फिर हम तो चैतन्य इन्सान है, जीवमंडल के सर्वच्चा प्राणी है ,हमें चाहे लोग जाने-अनजाने लाख भला-बुरा कहें, चोट पहुंचाये, हमारा मार्ग में बाधा उत्पन्न करें लेकिन हमें सबका कल्याण करना चाहिए, सबको सुख देना चाहिए। मित्र, महान बनना है तो वृक्ष से कुछ सीखो।

सीख - इस कहानी से हमें सीख मिलता है की जब प्राकृति नेचर हम को सदा दे रहा है चाहे हम उसे पत्थर मरे या तोड़े वह सिर्फ देता ही है। हर तरह से देता ही है तो हमें भी दाता बनना है सब को सुख देना है। 

Wednesday, June 4, 2014

Hindi Motivational Stories....अहंकार

अहंकार 

   बहुत पुरानी बात है। दो मित्र पाठशाला में साथ-साथ पढ़े और बड़े हुए, पर प्रालब्ध की बात, एक तो राजा हो गया, दूसरा फ़क़ीर। राजा राजमहल में रहने लगा और फ़क़ीर गाँव-गाँव भटकने लगा। राजा अपने प्रशासन के कारण और फ़क़ीर अपनी त्याग-तपस्या के कारण विख्यात हो गये। एक बार वह फ़क़ीर राजधानी में आया, राजा को पता लगा। वह बड़ा प्रसन्न हुआ कि उसका मित्र आया है। उसने उसके स्वागत की अच्छी व्यवस्था की। महल सजाया। नगर में दीपावली करने का हुक़्म दिया। जब फ़क़ीर अपने राजा मित्र से मिलने चला, तो लोगों ने बहका दिया कि राजा बड़ा अहंकारी है। तुम्हें अपने वैभव दिखाना चाहता है। अपनी अकड़ दिखाना चाहता है। वह तुम्हें दिखाना चाहता है कि देखो, तुम क्या हो ? एक नंगे फ़क़ीर। उस फ़क़ीर ने कहा - देख लेंगे, उसकी अकड़।

   फ़क़ीर जब राजमहल के द्दार पर पहुँचा, तो राजा और उसका समस्त मत्रिमंडल फ़क़ीर के स्वागत के लिए उपस्थित हुआ। राजा ने देखा कि वर्षा के दिन तो नहीं है, फ़क़ीर के घुटनों तक कीचड़ लगी है। राजा क्या कहता, वह फ़क़ीर को लेकर अन्दर गया तो उसके सारे बहुमूल्य गद्दे-गलीचे गंदे हो गये।

  राजा को बुरा लगा, जब एकांत हुआ तब उसने फ़क़ीर से पूछा - मित्र मैं हैरान हूँ। वर्षा का तो समय नहीं रास्ते सूखे पड़े है. पर तुम्हारे पैरो पर इतनी कीचड़ कहाँ से लग गई ? तब फ़क़ीर ने उत्तर दिया - अगर तुम अपने वैभव की अकड़ दिखाना चाहते हो, तो हम भी अपनी फकीरी दिखाना चाहते है। उत्तर सुनकर राजा हँसा बोला - मित्र, आओ गले लग जाये, क्यों कि मैं कहीं पहुँचा, न तुम कहीं पहुँचे। हम दोनों वहीं के वहीं है, जहाँ पहले थे।

सीख - मित्रों इस कहानी में एक में धन की अकड़ थी, तो दूसरे में त्याग की। पर राजा के उद्दार की संभावना तो थी, फ़क़ीर की नहीं। क्यों कि जो अपनी गलती जान लेता है, ह्रदय से मान लेता है, वह सुधर सकता है। 

Tuesday, June 3, 2014

Hindi Motivational Stories...... स्वालम्बन की श्रेष्ठता

स्वालम्बन की श्रेष्ठता 

   ग्रीस में किलोथिस नामक एक बालक एथेंस के जीनों की पाठशाला में पढ़ता था। किलोथिस बहुत गरीब था। उसके बदन पर पुरे कपडे भी नहीं थे, पर पाठशाला में प्रतिदिन जो फ़ीस देनी पड़ती थी, उसे किलोथिस रोज नियम से देता था। पढ़ने में वह इतना तेज था कि दूसरे सब बच्चे उससे ईर्षा करते थे। कुछ लोगो ने यह संदेह किया की किलोथिस जो दैनिक फ़ीस के पैसे देता है, वो कहीं से चुराकर लाता होगा, क्यों कि उसके पास तो फटे चिथड़े कपड़े के सिवाय और कुछ है नहीं। आखिकार एक दिन ऐसा भी हुआ उसे चोर बता कर पकड़वा दिया। और मामला अदालत में गया। किलोथिस ऐसे समय में बड़ा हिम्मत से काम लिया निर्भयता के साथ जज (हाकिम) से कहा कि मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ। मुझ पर चोरी का झूठा दोष लगाया गया है। मैं अपने इस ब्यान के समर्थन में दो गवाह पेश करना चाहता हूँ। गवाह बुलाये गये। पहला गवाह था एक माली। उसने कहा, यह बालक प्रतिदिन मेरे बगीचे में आकर कुए से पानी खींचता है और इसके लिए इसे कुछ पैसे मजदूरी के रूप में दे दिये जाते है। दूसरी गवाही में एक बुढ़िया आयी। उसने कहा, मैं बूढ़ी हूँ। मेरे घर में कोई पीसने वाला नहीं है। यह बालक हर रोज मेरे घर पर आटा पीस जाता है और उसे बदले में अपनी मजदूरी के पैसे ले जाता है।

  इस प्रकार शारीरिक परिश्रम करके किलोथिस कुछ पैसे रोज कमाता है और उसी से अपना निर्वाह करता है और पाठशाला की फ़ीस भी भरता है। किलोथिस की इस नेक कमाई की बात सुनकर जज (हाकिम) बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे इतनी सहायता देनी चाही कि जिससे उसको पढ़ने के लिए मजदूरी नहीं करनी पड़े, परन्तु उसने सहायता स्वीकार नहीं की और कहा, मैं स्वयं परिश्र्म करके ही पढ़ना चाहता हूँ। किसी से दान लेने के स्थान पर स्वालम्बी बनकर आगे बढ़ना ही मेरे माता-पिता ने मुझे सिखाया है।

सीख - बाल्यकाल के जीवन में समाविष्ट ये संस्कार ही व्यक्ति को आगे चलकर महामानव बनाते है तथा ऐसे लोग ही आगे चलकर श्रेष्ठ नागरिक बनते है। 

Monday, June 2, 2014

Hindi Motivational Stories........ सच्चे दिल से प्रभु समर्पण हो

सच्चे दिल से प्रभु समर्पण हो 

     एक बार एक लकड़हारा अपनी प्यास बुझाने के लिए कुए में झाँका तो वह आश्चर्य नज़रों से कुए में देखता ही रह गया। वह अपनी प्यास भी भूलकर आश्चर्यचकित हो गया, उसने देखा - एक सन्यासी जंजीरों के सहारे कुए में उल्टा लटका हुआ है। उसने लोहे की मज़बूत जंजीरो से अपने पैरोँ को बाँधा हुआ है। श्राप के भय से भयभीत होते भी लकड़हारे  सन्यासी से पूछने का साहस किया। 

 लकड़हारा -  महात्मन ! आप क्या कर रहे है ? 
 संन्यासी   - बेटा, भगवान से मिलने के लिए कठोर तप कर रहा हूँ। मुझ से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान अवश्य ही दर्शन देंगे।
लकड़हारा  -  क्या ऐसा करने से भगवान प्रसन्न हो जायेंगे ?
संन्यासी  -  हाँ, जब अपने भक्त  अधिक पीड़ामय देखेंगे तो भगवान से सहन नहीं होगा और वे दौड़े चले                           आयेंगे।
       लकड़हार पानी पीना भूल गया और उसने सोचा की मैं  भी ऐसा करूँगा। उसने घास की रस्सी बनायीं और उस कुआ पर एक लकड़ी रख कर उसमें रस्सी बाँध कर वह लटकने लगा। परन्तु ज्युँ ही वह लटका, रस्सी उसका बोझ झेल न सकी और टूट गयी। उसकी आँखे बंद हो गयी परन्तु अगले ही क्षण अपने आपको भगवान की बाँहो में पाया। अब उसकी ख़ुशी का पारावार नहीं था। उसी क्षण भगवान ने उस सन्यासी को भी दर्शन दिये। 

          संन्यासी ने प्रभु से प्रश्न किया ? मैं इतने दिन से तपस्या कर रहा हूँ।  मुझे अपने बहुत दिन बाद दर्शन दिये और इस लकड़हारे को अभी-अभी आपने अपनी बाहों में थाम लिया। 

               प्रभु मुस्कुराए, बोले - भक्त, तुम पुरे इन्तजाम से कुए में लटके थे। ताकि तुम गिर न सको। परन्तु यह लकड़हारा पूर्णत: मुझ पर समर्पण हो चुंका था। उसने यह सोचा ही नहीं कि मेरा क्या होगा। इस लिए उसकी भक्ति श्रेष्ठ है। तुम में अपनेपन का मान था, वह सर्वस्व न्यौछावर कर चूका था। 

सीख - समर्पण प्रयोजन से नहीं दक से दिल से हो तो समर्पण स्वीकार होता है ईश्वर को इस लिये सच्चा दिल 
 ईश्वर पर बलिहार जाने से ईश्वर का दर्शन होता है।

Sunday, June 1, 2014

Hindi Motivational Stories......................दान दो, धनवान बनो

दान दो, धनवान बनो 


       धनपतराय करोड़पति सेठ थे, पर स्वाभाव से बड़े कंजूस। उनकी पत्नी थी सुमति। वह शीलवान, दयालु, सहनशील तथा दानी स्वाभाव की थी। उसने दाता का गुण अपनी माँ से सीखा था। सेठ जी जब काम-धन्धे पर जाते थे तब सुमति दीन-दुःखी की मदत करती, गरीबों की सहायता करती, बच्चों को पढ़ती, साधु-महात्माओं को खिलाती-पिलाती, दान-दक्षिणा देती। वह भूखे को अपने पेट की रोटी भी दान दे देती थी। सुसंस्कारी थी। कभी-कभार धनपतराय को पता चलता तो वह उसे खूब डाँटता -तुम तो बड़ी खर्चीली हो,मैं दिन-रात मेहनत करता और तुम खर्च करती रहती। सेठ जी को धनवान बनने की लालसा थी। सोने की चारपाई पर लेटा हुआ हूँ, सोने की थाली में खाना खा रहा हूँ - इसके वे दिन-रात स्वप्न देखा करते थे। और यही कारण था कि वे दिन-प्रतिदिन पाई-पाई जुटाकर पूँजी को बढ़ाने में व्यस्त रहते थे।

    एक दिन सेठ जी बाहर गये हुये थे। सुमति अकेली घर में थी। द्द्वार पर एक साधू-महात्मा आये। दिव्य ज्ञान से उनका मस्तक चमक रहा था। पवित्रता की सुगन्ध सर्वत्र फ़ैल रही थी। सुमति ने आदरपूर्वक उन्हें घर में बुलाया और अपने लिए बनाया हुआ भोजन तथा मिठाईयां आदि खिलायी। रुचिकर भोजन खाकर साधु संतुष्ट हुए। वह उन्हें दक्षिणा देने जा रही थी कि उतने में सेठ जी ने घर में प्रवेश किया। सेठ जी आग-बबूला हो उठे। उन्होंने पत्नी को डाँटना शुरू किया - पता नहीं तुम्हारी बुद्धि कैसी भ्रष्ट हुई है, मैं मेहनत करता हूँ और तुम इन लफंगे ढोंगी साधुओं को खिलाकर लुटाती रहती हो। इन दर-दर भटकने वालों का क्या भरोसा ? तुम कहीं मेरा घर न लूटा दो। बहुत भली-बुरी सुनाकर सेठजी ने साधु को निकालना चाहा। पर साधु जी शांत मुद्रा में खड़े थे। सारी भावनाओं को भली- भाँति समझ चुके थे।

     साधु जी ने कहा -सेठ जी ! क्या तुम्हेँ धनवान बनने की इच्छा है ? धन, सोना और रत्नों को पाने की इच्छा है ? सेठ जी बोले - हाँ, में सोने की चारपाई पर चैन की नींद सोना चाहता हूँ। साधु ने कहा - मैं भोजन कर प्रसन्न हुआ। तुम्हें जो चाहे दे सकता हूँ। धनपतराय जी का मन लालच से भर उठा। उन्होंने कहा - उपाय बताओ महाराज। साधु ने अपनी झोली से एक छोटा बीज निकाला और सेठ जी को देते हुए कहा - ये बीज तुम्हें सच्चे रत्न देगा (सेठ जी बड़े खुश हो रहे थे ), इस बीज को घर के पीछे बगीचे में लगाना। नित्य नियम से पानी देना। हीरे - रत्नों के फल लगेँगे। लेकिन यह याद रहे कि यह बीज तब फलीभूत होगा जब तुम सबके सहयोगी बन मदत करेंगे, सब की सेवा करोगे। सब को सम दृष्टि से देख उनसे व्यवहार करोगे। दान करोगे। जितना सत्कर्म करोगे, प्रभु चिन्तन करेंगे उतने ही जल्दी फल लगेंगे। इस बीज को प्रतिदिन शुभ-भावना रूपी जल से सीचना तो सहज फल मिलेंगे, अन्यथा नहीं।

    सेठ जी बीज बोया।और सच, एक दिन पौधा भी निकल आया। उन्हें आश्चर्य हुआ तथा विश्वास भी। अब वे साधु की हर एक बात का ध्यान रखने लगे। उन्होंने रोज सत्कर्म करना, सबके प्रति शुभ भावना रखना शुरू किया। सब की मदद कर उन्हें सुख देने लगे। असहाय की सहायता कर उनकी दुआओं लेने लगे ,हरेक के प्रति आत्मीयता उनके मन में जगने लगी। सब के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने लगे।  उन्हें लगता - अब तो जल्दी ही मैं धनवान हो जाऊँगा। उन में परिवर्तन  देख सब खुश हो उन्हें दुआये देते। दुआओ को पाकर  सेठ जी शांति का अनुभव करते। अब धीरे- धीरे सेठ जी की धन इकट्ठा करने की लालसा क्षीण होती गयी और दान करने की इच्छा दिनोंदिन बढ़ने लगी। अब वे तृप्त थे और समझ चुके थे कि सच्चे रत्न से धनवान मैं बन गया हूँ। ये तो साधु की युक्ति थी मुझे शिक्षा देने की। धनपतराय, शान्ति पाकर अपने को अब धन्य-धन्य महसूस कर रहे थे।

सीख - सच्चा सुख देने में है लेने में नहीं जब इस की महसूसता आती है तो मन शांति से भर जाता है। और जो व्यक्ति शान्ति से भरपूर है वही सच्चा धनवान है।