Thursday, June 19, 2014

Hindi Motivational Stories..................अतिथि-सेवा

अतिथि-सेवा

     हम सभी जनते है यात्रा में थके, भूखे-प्यासे जब कोई घर देखकर वहाँ जाते है। तो हमरे मन की क्या दशा होती है, यह तो यात्रा में जिसने कभी थककर कहीं जाना पड़ा हो तो उसे पता होता है। ऐसे अतिथि को बैठने के लिए आसान देना, मीठी बात कहा कर उसका स्वागत करना उसे हाथ- पैर धोने तथा पीने को जल देना और हो सके तो भोजन करना बड़े पुण्य का काम है। और इस के विपरीत जो अपने घर आये अतिथि को फटकारता और निराश करके लौटा देता है, उसके सारे पुण्य नष्ट हो जाते है। महाराज संकृति के पुत्र महाराज रन्तिदेव बड़े ही अतिथि-सेवा भावी थे। महाराज रन्तिदेव इतने बड़े अतिथि-सेवी थे कि अतिथि की इच्छा जानते ही उसकी आवशक वस्तु उसे दे देते थे। उनके यहाँ रोज हजारों अतिथि आते थे। इस प्रकार बाँटते-बाँटते महाराज का सब धन समाप्त हो गया। वे कंगाल हो गये।

    महाराज रन्तिदेव निर्धन हो जाने पर राजमहल छोड़ दिया। स्त्री-पुत्र के साथ वे जंगल के रस्ते यात्रा करने लगे। क्षत्रिय को भिक्षा नहीं माँगना चाहिए, इस लिए वन के कन्द, मूल, फल आदि से वे अपना तथा परिवार का काम चलते थे। बिना माँगे कोई कुछ दे देता तो ले लेते थे। इस तरफ वह एक दिन ऐसे वन में पहुँच गए जहा उन्हें जल तक नहीं मिला और वह जंगल इतना बड़ा था की वहाँ से बाहर निकलने में ही उन्हें कई दिन लग गए पुरे 48 दिन तक वह और उनका परिवार भूखे प्यासे भटकते रहे और 49 वे दिन वे एक बस्ती में आ गए जहाँ उन्हें एक मनुष्य ने बड़े आदर के साथ उनका स्वागत किया और घी से बना खीर, हलवा और शीतल जल लाकर दिया।

   महाराज रन्तिदेव बड़ी शान्ति से वह सब सामान लेकर भगवान को भोग लगाया। 48 दिनों के बाद उपवास से मरने-मरने को रहे महाराज के मन में उस समय भी यही दुःख था कि जीवन में पहली बार आज किसी अतिथि को भोजन कराये बिना उन्हें भोजन करना पड़ेगा। और उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आये वे भूखे थे। उन्होंने भोजन माँगा। राजा रन्तिदेव बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने बड़े आदर से ब्राह्मण को भोजन कराया। जब ब्राह्मण भर पेट भोजन करके चले गये, तब बचे भोजन को राजा ने परिवार के सभी को एक जैसा बांटकर दे दिया। अपना भाग लेकर वे भोजन करने जा रहे थे कि एक भूखा शूद्र आ गया। राजाने उसे भी भोजन कराया। लेकिन शूद्र के जाते ही एक और अतिथि आ पहुँचा। उसके साथ कुछ कुत्ते थे जो बहुत भूखे थे। राजा ने उस अतिथि तथा कुत्तों को भी भोजन कराया। अब उनके पास सिर्फ थोड़ा सा पानी बचा था। जैसे ही राजा पानी पीने लगे उसी समय एक चाण्डाल वह आया और कहा - महाराज मेरा प्यास के कारण प्राण निकले जा रहे है अगर दो बून्द पानी मिल जाता तो आपकी बड़ी कृपा होगी।

  महाराज रन्तिदेव की आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की -' प्रभो ! यदि मेरे इस जल-दान का कुछ पुण्य हो तो उसका फल मैं यही चाहता हूँ कि संसार के दुःखी प्राणियों का दुःख दूर हो जाय। ' और फिर बड़े प्रेम से महाराज ने उस चाण्डाल को वह बचा हुआ पानी पिला दिया।

   चाण्डाल के जाते ही महाराज भूख और प्यास के मारे बेहोश होकर गिर पड़े। लेकिन उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्मा, विष्णु, शंकर और धर्मराज प्रगट हो गये। और यही लोग चाण्डाल, ब्राह्मण, शूद्र आदि रूप में रन्तिदेव की परीक्षा लेने आये थे। और रन्तिदेव की अतिथि-सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये।

सीख - इस कहानी से यही सीख मिलता है कि अगर अपने एक भी गुण जीवन में धारण कर लिए और उस पर अटल रहे, चाहे कुछ भी हो जाय यहाँ तक की आपको उसके लिए अपने प्राण ही क्यों न देने पड़े। तो आपका कल्याण निश्चित है। आपको भगवान का दर्शन होगा और उनका प्यार मिलेगा , जैसे रंतिदेव को उनके अतिथि-सेवा के प्रभाव से भगवान ने उन्हें दर्शन दिया।

   

   

Wednesday, June 18, 2014

Hindi Motivational Stories............................गोभक्ति और गुरुभक्ति

गोभक्ति और गुरुभक्ति 

  अयोध्याके चक्रवर्ती सम्राट महाराज दिलीप के कोई संतान नहीं थी। एक बार वे अपनी पत्नी के साथ गुरु वसिष्ठ जी के आश्रम में गये और पुत्र के लिये महर्षि से प्रार्थना की। महर्षि वसिष्ठ ने ध्यान करके राजा के पुत्र न होने का कारण जान लिया और बोले - 'महाराज! आप देवराज इन्द्र से मिलकर जब स्वर्ग से पृथ्वी पर आ रहे थे तो रास्ते में खड़ी कामधेनु को देखा ही नहीं। उनको प्रणाम नहीं किया। इस लिए कामधेनु ने आपको शाप दे दिया है कि उनकी संतान की सेवा किये बिना आपको पुत्र नहीं होगा। '

   महाराज दिलीप बोले - 'गुरुदेव! सभी गाये कामधेनु की संतान है, गो-सेवा तो बड़े पुण्य का काम है। मैं गायों की सेवा करूँगा। ' वसिष्ठ जी ने बताया - 'मेरे आश्रम जो नन्दिनी नाम की गाय है, वह कामधेनु की पुत्री है। आप उसी की सेवा करें।

   महाराज दिलीप सबेरे ही नन्दिनी के पीछे-पीछे वन में गये। नन्दिनी जब खड़ी होती तो वे खड़े रहते, वह चलती तो उसके पीछे चलते, उसके बैठने पर ही वे बैठते, उसके जल पिने पर ही वे जल पीते वे उसके शरीर पर एक मक्खी तक बैठने नहीं देते थे। संध्या समय जब नन्दिनी आश्रम लौटती तो उसके पीछे-पीछे महाराज लौट आते। महारानी सुदक्षिणा उस गौ की पूजा करती थी। रात को उसके पास दीपक जलती थी और महाराज गोशाला में गाय के पास भूमि पर ही सोते थे। इस तरह सेवा कार्य का  एक महीना पूरा हुआ और एक दिन वन में महाराज कुछ सुन्दर पुष्पों को देखने लगे और इतने में नन्दिनी आगे चली गयी। कुछ ही क्षण में ही गाय के डकारने की बड़ी करुणा ध्वनि सुनायी पड़ी। महाराज उस ध्वनि की तरफ दौड़ कर वहाँ पहुँचे तो देखते है कि एक झरने के पास एक बड़ा भरी सिंह उस सुन्दर गाय को दबाये बैठा है। सिंह को मारकर गाय को छुड़ाने के लिए महाराज ने धनुष्य चढ़ाया, किंतु जब तरकस से बाण निकलने लगे तो दाहिना हाथ तरकस में ही चिपक गया।
   
 आश्चार्य में पड़े महाराज दिलीप से सिंह ने मनुष्य की भाषा में कहा - 'राजानं ! मैं कोई साधारण सिंह नहीं हूँ। मैं भगवान शिव का सेवक हूँ। अब आप लौट जाइये। जिस काम के करने में अपना बस न चले, उसे छोड़ देने में कोई दोष नहीं होता।  मैं भूखा हूँ। यह गाय मेरे भाग्य से यहाँ आ गयी है। इस से मै अपनी भूख मिटाऊंगा। '

   महाराज दिलीप बड़ी नम्रता से बोले - ' आप भगवान शिव के सेवक है, इसलिये मैं आपको प्रणाम करता हूँ। सत्पुरूषों के साथ बात करने तथा थोड़े क्षण भी साथ रहने से मित्रता हो जाती है। आपने जब अपना परिचय मुझे दिया ही है तो मेरे ऊपर इतनी कृपा और कीजिये कि इस गौ को छोड़ दीजिये और इसके बदले में मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लीजिये। ' सिंह ने महाराज को बहुत समझाया कि एक सम्राट को गाय के बदले अपना प्राण नहीं देने चाहिए। किन्तु महाराज दिलीप अपनी बात पर ढूढ बने रहे। एक शरणागत गौ महाराज के देखते देखते मारी जाय, इस से उसे बचाने में अपना प्राण दे देना उन्हें स्वीकार था। अंत में सिंह ने महाराज की बात मान ली और महाराज का चिपका हाथ तरकस से छूट गया। महाराज धनुष और तरकस अलग रख दिया और सिर झुकाकर वे सिंह के आगे बैठ गये।

   महाराज दिलीप समझते थे कि अब सिंह उनके ऊपर कूदेगा और उन्हें खा जायेगा। परन्तु उनके ऊपर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। नन्दिनी उन्हें मनुष्य की भाषा में पुकारकर कहा - 'महाराज ! आप उठिये। यहाँ कोई सिंह नहीं है, यह तो मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिये माया दिखायी है। और अभी आप पत्ते के दोने में दुहकर मेरा दूध पी लीजिये। आपको गुणवान तथा प्रतापी पुत्र होगा। '

  महाराज ऊठे। उन्होंने उस कामधेनु गौ को प्रणाम किया और साथ जोड़कर बोले - 'माता ! आपके दूध पर पहले आपके बछड़े का अधिकार है। उसके बाद बचा दूध गुरुदेव का है। आश्रम लौटने पर गुरुदेव की आज्ञा से ही मैं थोड़ा-सा दूध ले सकता हूँ। ' महाराज की गुरुभक्ति तथा धर्म-प्रेम से नन्दिनी और भी प्रसन्न हुई। शाम को आश्रम लौटने पर महर्षि वसिष्ठ की आज्ञा से महाराज ने नन्दिनी का थोड़ा-सा दूध पिया। समय आने पर महाराज दिलीप के पास प्रतापी पुत्र हुआ।

 सीख - गुरु की आज्ञा और पूरी निष्ठा से कार्य जो करते है और उसके सयम- नियम, मर्यादा और अपनी क़ुरबानी तक देने के लिए जो तैयार रहते है। उनकी हर इच्छा पूरी होती है वे ही महान बनते है।

Hindi Motivational Stories...................... योग का विज्ञान

योग का विज्ञान 

  एक बहुत समझदार व्यापारी थे। एक बार वे बहुत सारे गहने और पैसे लेकर दूसरे शहर जा रहे थे। जब स्टेशन पर टिकट ले रहे थे, तो उन्होंने जान लिया कि एक चोर भी उनके पीछे-पीछे चल रहा है। गाड़ी में भी वह उनके सामने की सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद एक स्टेशन आया, व्यापारी नीचे उतरे, मौका मिलते ही चोर ने उनका सारा सामान खोलकर देखा परन्तु कुछ भी नहीं मिला। जब गाड़ी चली तो व्यापारी आकर सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर बाद फिर एक सेटशन आया, व्यापारी फिर नीचे उतरे और प्लेटफार्म पर टहलने लगे। चोर ने भी फिर से सारा सामान खोजा परन्तु कहीं भी पैसे और गहने नही मिले। उसे बहुत आश्चर्य हुआ। इसके बाद सेठ का उतरने का स्टेशन आ गया। उन्होंने चोर से पूछा, तुम्हारे मन में एक प्रशन है ना ? चोर ने कहा, आपको कैसे मालूम है ? मुझे मालूम है, सेठ ने कहा, जब-जब मैं नीचे उतरा तब-तब तुम ने मेरा सामान चेक किया कुछ ढूंढा, तुम्हें वो पैसे और गहने चाहिये ना ? हाँ सेठ, मैंने स्टेशन पर देखा था, आपके पास गहने और पैसे है जरूर, परन्तु इतना ढूंढने पर भी मुझे वो नहीं मिले, अब बता दीजिये, आपने कहाँ छिपाये ? सेठ ने खड़े होते हुये कहा, अपना तकिया उठा, मैंने सारे पैसे और गहने इस तकिये के नीचे ही तो छिपाये थे, मुझे पक्का पता था कि तू सब कुछ ढूंढेगा, पर स्वयं के तकिये के नीचे नहीं ढूंढेगा इसलिये मैंने उन्हें यही छिपा दिया।

सीख - हर विपरीत स्तिथी में घबरा ने बजाय समझ से काम लेना चाहिये। जिस से हमारा नुकसान भी न हो और समाने वाले को मौका भी न मिले।


Tuesday, June 17, 2014

Hindi Motivational Stories.................. प्रार्थना की सार्थकता

प्रार्थना की सार्थकता 

           एक प्रार्थना सभा के पश्चात् एक वकील साहब ने गाँधी जी से पूछा कि बापू आप प्रार्थना करने में इतने घंटे व्यतीत करते है, अगर इतना ही समय आपने देश की सेवा में लगाया होता तो अभी तक आपने देश की कितनी सेवा कर ली होती ? गाँधी जी अचानक गम्भीर हो गये फिर बोले - वकील साहब आप भोजन करने में कितना समय लगाते है ? वकील साहब ने कहा बीस मिनट लगाता हूँ। इस पर गाँधी जी ने कहा कि वकील साहब आप भोजन करने में इतना समय बर्बाद करते है। अगर इतना ही इस समय आप काम करते तो मुक़दमे की काफी तैयारी कर ली होती। वकील साहब ने चकित होकर कहा कि - महात्मा जी अगर मैं भोजन नहीं करूँगा तो मुक़दमे की तैयारी कैसे करूँगा ? इस पर गाँधीजी ने कहा - वकील साहब ! जिस प्रकार आप बिना भोजन के मुकदमे की तैयारी नहीं कर सकते, वैसे ही मैं भी प्रार्थना के बिना देश की सेवा नहीं कर सकता। प्रार्थना ही मेरी आत्मा का भोजन है। इस से मेरी आत्मा को शक्ति मिलती है जिस से मैं देश की सेवा करता हूँ।

      गाँधी जी की प्रार्थना सभा में जीवन दर्शन छिपा हुआ था। जैसे अन्न के थोथे छिलकों से शरीर को पुष्ट नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सारहीन लालसाएँ आत्मा को स्वस्थ नहीं कर सकती। यदि शरीर को समय पर भोजन न दिया तो वह दुर्बल हो जाता है और भूखा प्यास से व्याकुल हो कर रोटी पानी के लिए तड़पने लगता है। यही बात आत्मा पर भी लागू होती है। इसे एकान्त में प्रार्थना करने की आवश्यकता होती है। इस से सार्थक बल मिलता है।

सीख - इस कहानी से हमें ये समझ मिलती है की जिस भी कार्य को करना है  उसके लिए पहले शक्ति धारण करो फिर कार्य में लग जाओ तो वह कार्य सफल होगा। 

Hindi Motivational Stories......................गुरु और शिष्य

गुरु और शिष्य

  एक गुरु थे। जब वे बूढ़े हुए तो उनको चिन्ता होने लगी कि मेरे जाने के बाद मेरा स्थान कौन लेगा।और एक दिन, एक व्यक्ति उनके पास आया, वह स्वाभाव से बड़ा चंचल था। वह बोला, गुरु जी मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूँ, आपके पास रहना चाहता हूँ। गुरु उसे अपने पास रहने देते है। थोड़े दिन वह गुरु के आश्रम में रहता है। और कुछ ही दिनों के बाद वह आश्रम और गुरु के साथ रहने के बाद सोचने लगता है मैं तो अब अच्छा बन गया हूँ। गुरु के पास एक जादू की छड़ी होती है जिस से दुसरो के अन्दर के अवगुण दिखाई देते थे।

    एक दिन वह गुरु से जिद्द करके उन से एक वरदान माँगता है और उस वरदान में वह गुरु की छड़ी माँग लेता है। गुरु न चाहते भी उसे छड़ी देते है। और कहते है - कि इस छड़ी को तुम अपने पास रखना। इस से तुम्हें सब जानने को मिलेगा। अब वह छोड़ी लेने के बाद उसका मन बार-बार उसका उपयोग करके देखने का विचार करने लगा। और वह छड़ी लेकर सब को लगा कर देखता है और उसमें सब के अवगुण, दोष दिखाई देता है तो सारा दिन उसे देखता रहता। गुरु उस पर बहुत शिक्षा व सावधानियाँ सिखाने में मेहनत करते है। लेकिन उसका एक अवगुण था आश्रम में आने वाले हर शिष्य की कमी-कमजोरियाँ देखना और वर्णन करना। सब को कहता कि आप लोग बहुत अवगुणी हो। जिस की वजह से गुरु और आश्रम में आने वाले परेशान थे।

      एक दिन शिष्यों ने गुरु को उस लडके के बारे में बताया, शिकायत किया, गुरु ने उन लोगो को समझा बुझाकर  भेज दिया। उस के बाद गुरु ने लडके को अपने पास बिठाकर बहुत समझाया और यह तक कहा - कि तुम मेरी शिक्षा के लायक नहीं हो, अंतः तुम यहाँ से चले जाओ। परन्तु उस लडके ने कहा - कि गुरु जी मैं सुधर जाऊँगा। आपको छोड़कर नहीं जाऊँगा। गुरु जी ने उसे क्षमा कर दिया। परन्तु उसकी पर-निन्दा की आदत नहीं छूटी।

   एक दिन उस लड़के के मन में ख्याल आता है कि अभी तक यह छड़ी सभी शिष्यों पर आजमाई है क्यों न आज इसे गुरु जी पर आजमाया जाय। यह सोचकर वह गुरु के पास जाता है, उस समय गुरु जी सो रहे थे। वह छड़ी लगा कर देखता है तो उस दिन गुरु जी के मन में उसके प्रति क्रोध दिखाई देता है। जो वह उस छड़ी से देखता है। यह क्या ! सब में दोष है लेकिन मैं जिसको गुरु बनाया उन में भी दोष है तो क्या इनको गुरु बनाना चाहिए ? चलो इस आश्रम से, यहाँ रहना ठीक नहीं है।

   सवेरा होता है वह गुरु के पास जाता है विदा लेने और सारी बात बता देता है, गुरु जी उसको कहते है, ठीक है तुम जाओ लेकिन जाने से पहले तुम यह छड़ी खुद को भी लगाकर देखो। वह छड़ी खुद पर लगता है, तो देखता है कि वह छड़ी पूरी ही अवगुण बुराई से भर गयी है। तो उसको खुद पर शर्म आती है और कहता है कि आप में तो एक-दो दोष है लेकिन मैं तो अभी भी पूरा अवगुणों से भरा हुआ हूँ। और फिर बहुत पश्चाताप करता है। गुरु से कहता है -  आगे से मैं ऐसे कर्म नहीं करूँगा। ऐसा वायदा करता हूँ। …

सीख - पर चिन्तन पतन की जड़ है - इस लिये हमें अगर जीवन में उन्नति करनी है तो दूसरों के अवगुण के बजाय खुद के अवगुण देखना है और अपने में सुधार करना है। अगर देखना ही  सब के गुणों को देखो और प्रभु का गुणगान करो।


  

Monday, June 16, 2014

Hindi Motivational Stories.... .........बुद्धिमान बंजारा

बुद्धिमान बंजारा 

   एक बंजारा था। वह बैलों पर मुल्तानी मिट्टी लादकर दिल्ली की तरफ जा रहा था। रास्तें में कई गाँवो से गुजरते समय उसकी बहुत सी मिट्टी बिक गयी। बैलों की पीठ पर लदे बोरे आधे तो खाली हो गये और आधे भरे रह गये। अब वे बैलों की पीठ पर टिके कैसे ? क्यों कि भार एक तरफ हो गया। नौकरों ने पूछा कि क्या करे ? बंजारा बोला - अरे ! सोचते क्या हो, बोरों के एक तरफ रेत भर लो। यह राजस्थान की जमीन है, यहाँ रेत बहुत है। नौकरों ने वैसा ही किया। बैलों की पीठ पर एक तरफ आधे बोरे में मुल्तानी मिट्टी हो गयी और दूसरी तरफ आधे बोरे में रेत हो गई।

    दिल्ली से एक सज्जन सामने से आ रहे थे। उन्होंने बैलों पर लदे बोरों में एक तरफ रेत झरते हुए देखी तो वे बोले कि बोरों में एक तरफ रेत क्यों भरी है ? नौकरों से कहा - सन्तुलन बनाने के लिए। वे सज्जन बोले - अरे ! यह तुम क्या मूर्खता करते हो ? तुम्हारा मालिक और तुम एक से ही हो। बैलो पर मुफ़्त में ही भर ढ़ो कर उनको मार रहे हो। मुल्तानी मिट्टी के आधे-आधे दो बोरों को एक ही जगह बांध दो तो कम-से-कम आधे बैल तो बिना भार के खुले चलेंगे। नौकरों ने कहा आपकी बात तो ठीक जँचती है, पर हम वही करेंगे, जो हमारा मालिक कहेगा। आप जाकर हमारे मालिक से यह बात कहो और उनसे हमें हुक्म दिलवाओ। वह मालिक (बंजारे ) से मिला और उस से बात कही। बंजारे ने पूछा कि आप कहाँ के है ? कहाँ जा रहे है ? उसने कहा कि में भिवानी का रहने वाला हूँ। रुपये कमाने के लिए दिल्ली गया था। कुछ दिन दिल्ली में रहा, फिर बीमार हो गया। जो थोड़े रुपये कमाये थे, वे खर्च हो गये। व्यापार में घाटा लग गया। पास में कुछ रहा नहीं तो विचार किया कि घर चलना चाहिए।

               उसकी बात सुनकर बंजारा नौकरों से बोला कि इनकी सहमति मत लो। अपने जैसे चल रहे है, वैसे चलो। इनकी बुद्धि तो अच्छी दिखती है, पर उसका नतीजा ठीक नहीं निकलता, अगर ठीक निकलता तो ये धनवान हो जाते। हमारी बुद्धि भले ही ठीक न दिखे , पर उसका नतीजा ठीक होता है। मैंने कभी अपने काम में घाटा नहीं खाया। और बंजारा अपने बैलो को लेकर दिल्ली पहुँचा। वहाँ उसने जमीन खरीद कर मुल्तानी मिट्टी और रेत दोनों को अलग-अलग ढेर लगा दिया और नौकरों  कहा कि बैलों को जंगल में ले जाओ और जहाँ चारा-पानी हो, वहाँ उनको रखो। यहाँ उनको चारा खिलायेंगे तो नफा कैसे कमायेंगे ? मुल्तानी मिट्टी बिकनी शुरू हो गयी।

    उधर दिल्ली का बादशाह बीमार हो गया। वैध ने सलाह दी कि अगर बादशाह को राजस्थान के धोरे (रेत की टीले ) पर रहें तो उनका शरीर ठीक हो सकता है। रेत में शरीर को निरोग करने की शक्ति होती है। अंतः बादशाह को राजस्थान भेजे। राजस्थान क्यों भेजे ? वहाँ की रेत यही माँगा लो। ठीक बात है। फिर किसी ने कहा रेत यही मिल जायेगी। अरे ! ते दिल्ली का बाज़ार है, यहाँ सब कुछ मिलता है। मैंने एक जगह रेत का ढेर लगा हुआ देखा है। अच्छा! तो फिर जल्दी रेत मँगवा लो। बादशाह के आदमी बंजारे के पास गये और उस से पूछा कि रेत क्या भाव है ? बंजारा बोला कि चाहे मुल्तानी मिट्टी खरीदों, चाहे रेत खरीदो, एक ही भाव है। दोनों बैलों पर बराबर तुलकर आये है। बादशाह के आदमियों ने वह सारी रेत खरीद ली।

 सीख - इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि जिनकी बुद्धि अच्छी हो और जिस ने जीवन में उन्नति किया हो कुछ कमाया हो उसकी बात माननी चाहिए। ऐसे ही जो संत महात्मा जिन्होंने अपने जीवन में  दुःख अशांति पर काबू पा लिया हो और सुख शांतिमय जीवन जी रहे हो उनकी बात सुनना चाहिए।

     

Hindi Motivational Stories................... कल्याणकारी संत

कल्याणकारी संत 


   एक नगर में एक जुलाहा रहता था। वह स्वाभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा वफादार था। उसे क्रोध तो कभी आता ही नहीं था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर पहुँचे कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता ?   उन में एक लड़का धनवान माता-पिता का पुत्र था। वहाँ पहुँचकर वह बोला - यह साड़ी कितने की दोगे ? जुलाहे ने कहा - दस रुपये की।

     तब लडके ने उसे चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिया और एक टुकड़ा हाथ में लेकर बोला - मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका क्या दाम लोगे ? जुलाहे ने बड़ी शान्ति से कहा पाँच रुपये। लडके ने उस टुकड़े के भी दो भाग करते हुए पूछा इस का दाम ? जुलाहे अब भी शांत था। उसने बताया - ढाई रुपये। लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े करता गया। अंत में बोला - अब मुझे यह साड़ी नहीं चाहिए। यह टुकड़े मेरे किस काम के ? जुलाहे ने शांत भाव से कहा - बेटे ! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे। अब लडके को शर्म आई और कहने लगा - मैंने आपका नुकसान किया है। अंतः मैं आपकी साड़ी के दाम दिये देता हूँ। पर संत जुलाहे ने कहा कि जब अपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूँ ? लडके का धनभिमान जागा और वह कहने लगा कि मैं बहुत आमिर आदमी हूँ। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूँगा तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर तुम यह घाटा कैसे सहोगे ? और नुकसान मैंने  किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।

    संत जुलाहे मुस्कुराते हुए कहने लगे - तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते। सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल हो जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा ? जुलाहे की आवाज़ में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दया और सौम्यता थी। लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आँखे भर आई और वह संत के पैरो में गिर गया।

    जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर उसकी पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा - बीटा, यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता तो  है उस में मेरा काम चल जाता। पर तुम्हारी ज़िन्दगी का वही हाल होता जो उस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभ नहीं होता। साड़ी एक गई, मैं दूसरी बना दूँगा। पर तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गई तो दूसरी कहाँ से लाओगे तुम ? तुम्हारा पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।

 सीख - यह पर संत की उँची सोच और परक शक्ति ने लडके का जीवन बदल दिया। ये वही जुलाहा था जो दक्षिण भारत का महान संत तिरूवलुवर।