Sunday, June 29, 2014

Hindi Motivational Stories..................सावधानी और दयालुता

सावधानी और दयालुता

          चित्तौड़ के बड़े राजकुमार चन्द्रस शिकार खेलने निकले थे। अपने साथियों के साथ वे दूर निकल गये थे। उन्होंने उस दिन श्रीनाथ द्वारे में रात बिताने का निश्चय किया था। जब शाम होने पर वे श्रीनाथद्वारे की ओर लौटने लगे, तब पहाड़ी रास्ते में एक घोड़ा मरा हुआ पड़ा दिखायी दिया। राजकुमार ने कहा - ' किसी यात्री का घोड़ा यहाँ मर गया है। घोड़ा आज का ही मरा है। यहाँ से आगे ठहरने का स्थान तो श्रीनाथद्दारा ही है। वह यात्री वहीं गया होगा। '

    श्रीनाथद्दारे पहुँचकर राजकुमारने सब से पहले यात्री की खोज की। उनके मन में एक ही चिन्ता थी कि यात्रा में घोड़ा मरने  यात्री को कष्ट होगा। राजकुमार उसे दूसरा घोड़ा दे देना चाहते थे। लेकिन जब सेवकों ने बताया कि यात्री यहाँ नहीं आया है, तब राजकुमार और चिन्तित हो गये। वे कहने लगे - 'अवश्य वह यात्री मार्ग भूलकर कहीं भटक गया है। वह इस देश से अपरिचित होगा। और रात्रि में वन में पता नहीं, वह कहाँ जायेगा। तुम लोग टोलियाँ बनाकर जाओ और उसे ढूंढ़कर ले आओ।

      राजकुमार की आज्ञा पाकर उनके सेवक मशालें जलाकर तीन,तीन चार-चार की टोलियाँ बनाकर यात्री को ढूंढने निकल पड़े। बहुत भटकने पर उन में से एक टोली के लोगों को किसी ने पुकारा। जब उस टोली के लोग पुकारने वाले के पास पहुँचे, तब देखा कि एक बूढ़ा और एक नवयुवक एक घोड़े पर बहुत-सा सामान लादे पैदल चल रहे है। वे लोग बहुत घबराये और थके हुए थे। राजकुमार के सेवकों ने कहा - ' आप लोग डरे नहीं। हम लोग आपको ही ढूंढने निकले है। '

           बूढ़े ने बड़े आश्चर्य से कहा - ' हम लोग तो अपरिचित है। विपति के मारे घर-द्दार छोड़कर श्रीनाथजी की शरण लेने निकल पड़े थे।  और आज ही रस्ते में हमारा घोड़ा गिर पड़ा और मर गया। यहाँ हमलोग रास्ता भूलकर भटक पड़े। और आप लोग हम लोगों को भला कैसे ढूंढने निकले ?  तब सेवकों ने कहा - ' हमारे राजकुमार ने आपका मरा घोड़ा देख लिया था। वे प्रत्येक बात में बहुत सावधानी रखते है। और उन्होंने जान लिए की घोडा मरा है तो यात्री भटक गया होगा। इस लिए उन्होंने हम लोगो को भेजा आप लोगोँ को ढूंढने।

   एक राजकुमार इतनी सावधानी रखें और ऐसे दयालु हो, यह दोनों यात्रियों को बहुत अदभुत लगा। श्रीनाथद्दारे आकर उन्होंने राजकुमार के प्रति कृत्यज्ञता प्रकट की। राजकुमार चन्द्रस बोलो - ' यह तो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सावधान रहे और कठिनाई में पड़े लोगों की सहायता करे। मैंने तो अपने कर्तव्य का ही पालन किया है। '

सीख - हर मनुष्य के दिल में इस तरह सब के लिए दया और प्रेम जागे तो सन्सार स्वर्ग हो जाएगा।

Saturday, June 28, 2014

Hindi Motivational Stories..........................रघुपति सिंह की सचाई

रघुपति सिंह की सचाई 


     ये उस समय की बात है जब अकबर बादशाह की सेना ने राजपूताने के चित्तौड़ गढ़ पर अधिकार कर लिया था। महाराणा प्रताप अरावली पर्वत के वनों में चले गये थे। महाराणा के साथ राजपूत सरदार भी वन में जाकर छिप गये थे। महाराणा और उनके सरदार अवसर मिलते ही मुग़ल-सैनिकों पर टूट पड़ते थे और उन में मार-काट मचाकर फिर वनों में छिप जाते थे।

   महाराणा प्रताप के सरदारों में से एक सरदार का नाम रघुपति सिंह था। वह बहुत ही वीर था। अकेले ही वह चाहे जब शत्रु की सेना पर धावा बोल देता था और जब तक मुग़ल-सैनिक सावधान हों, तब तक सैकड़ों को मारकर वन-पर्वतों में भाग जाता था। मुग़ल-सेना रघुपति सिंह के मारे घबरा उठी थी। मुग़लों के सेना पति ने रघुपति सिंह को पकड़ने वाले को बहुत बड़ा इनाम देने की घोषणा कर दी। इस की योजना बनाई गयी।

   रघुपति सिंह वनों और पर्वतों में घुमा करता था। एक दिन उसे समाचार मिला कि उसका लड़का बहुत बीमार है और घड़ी-दो-घड़ी में मरने वाला है। रघुपति का ह्रदय पुत्र प्रेम से भर आया, वह वन में से घोडे पर चढ़कर निकला और अपने घर की ओर चल पड़ा। पुरे चित्तौड़ को बादशाह के सैनिकों ने घेर रखा था। प्रत्येक दरवाजे पर बहुत कड़ा पहरा था। पहले दरवाजे पर पहुँचते ही पहरेदार ने कड़ककर पूछा - कौन है ? रघुपति सिंह झूठ नहीं बोलना चाहता था, उसने अपना नाम बता दिया। इस पर पहरेदार बोला - 'तुम्हें पकड़ने के लिये सेना पति ने बहुत बड़ा इनाम घोषित किया है। मैं तुम्हें बन्दी बनाऊँगा। ' रघुपति सिंह - 'भाई ! मेरा लड़का बीमार है। वह मरने ही वाला है। मैं उसे देखने आया हूँ। तुम मुझे अपने लडके का मुँह देख लेने दो। मैं थोड़ी देर में ही लौटकर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। ' पहरेदार सिपाही बोला - ' यदि तुम मेरे पास न आये तो ?' रघुपति सिंह - मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अवश्य लौट आऊँगा। '

  पहरेदार ने रघुपति सिंह को नगर में जाने दिया। वे अपने घर गये। अपनी स्त्री और पुत्र से मिले और उन्हें आश्वासन देकर फिर पहरेदार के पास लौट आये। पहरेदार उन्हें सेनापति के पास ले गया। सेनापति सब बातें सुनकर पूछा - 'रघुपति सिंह ! तुम नहीं जानते थे की पकड़े जाने पर हम तुम्हें फाँसी दे देंगे ? तुम पहरेदार के पास दोबारा क्यों लौट आये ? ' रघुपति सिंह ने कहा - 'मैं मरने से नहीं डरता। राजपूत वचन देकर उससे टलते नहीं और किसी के साथ विश्वासघात  भी नहीं करते।

   सेनापति रघुपति सिंह की सच्चाई देखकर आश्चर्य में पड़ गया। उस ने पहरेदार को आज्ञा दी - ' रघुपति सिंह को छोड़ दो। ऐसे सच्चे और वीरको मार देना मेरा ह्रदय स्वीकार नहीं करता। '

सीख - सच्चाई का जीवन में कितना महत्व है ये इस कहानी से पता चलता है। इस लिये जीवन में सदा सच्चाई को धारण करो। 

  

Friday, June 27, 2014

Hindi Motivational stories....... रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )

रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )

वाराणसी के यहाँ एक रिक्शा वाले का लड़का बना (I.A .S. ऑफिसर )  नाम है गोविंद जैस्वाल जो पहले ही परीक्षा में 48 रैंक से पास हुआ 474 विद्यार्थियों में।
 उनका परिवार गरीब था और वो ऐसे जगह पर रहकर पढ़ाई किया जिस के बारे में हम सोच भी नहीं सकते है उनके घर के आसपास हमेशा कारखानों की व जनरेटर्स की आवाज़े आती थी।
  गोविन्द अपने कानो में कपास रख कर पढ़ाई की और जब उसकी कॉलेज की पढ़ाई   पूरी हुई तो आगे की पढ़ाई के लिए पिताजी ने गाँव की जमीन बेचकर 40,000 रुपये दिए और दिल्ली भेजा। 
उसके बाद उसकी बहन ने उसका ध्यान दिया और उस समय अस -पास के लोग उनका मजाक उड़ा देते थे। और गोविंद उन्हें नज़र अंदाज़ कर अपने पढ़ाई पर ध्यान देते रहे।  
बहुत परेशानी के बाद भी हार नहीं मनी और 
आखिर वो दिन आया गोविंद की खड़ी मेहनत रंग लाया और 
आज वो एक I.A .S. ऑफिसर बना। 



Hindi Motivational Stories......................... शरणागत

शरणागत 

  भारत में एक ये भी प्रथा थी। जब कोई व्यक्ति मुसीबत के समय में वह  किसी राजा के शरण में जाता है तो राजा उस की रक्षा के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देता और उस शरण आये व्यक्ति की रक्षा करता। ये उस समय की बात है जब दिल्ली के सिंहासन पर अलाउदीन बादशाह का राज था। और बादशाह का सब से प्रिया सरदार था मुहम्मदशाह। मुहम्मदशाह पर बादशाह की बड़ी कृपा थी और इसी से वह बादशाह का मुँहलगा हो गया था।

    एक दिन बातें करते समय हँसी में मुहम्मदशाह ने कोई ऐसी बात कह दी कि बादशाह क्रोध से लाल हो उठा। उसने मुहम्मदशाह को फाँसी पर चढ़ा देने की आज्ञा दे दी। बादशाह की आज्ञा सुनकर मुहम्मदशाह के तो प्राण सुख गये। किसी प्रकार मुहम्मदशाह दिल्ली से भाग निकला। अपने प्राण बचाने के लिये उसने अनेक राजाओं से प्रार्थना की, किन्तु किसी ने उसे शरण देना स्वीकार नहीं किया। बादशाह को अप्रसन्न करने का साहस किसी को नहीं हुआ। विपत्ति का मारा मुहम्मदशाह इधर-उधर भटक रहा था। अन्त में वह रणथम्भौर के चौहान राजा हमीर के राज-दरबार में गया। उसने राजा से अपने प्राण बचाने की प्रार्थना की। राजा ने कहा - 'राजपूत का पहला धर्म है शरणागत की रक्षा। आप मेरे यहाँ निश्चिन्त होकर रहो। जब तक मेरे शरीर में प्राण है, कोई आपका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। '

    मुहम्मदशाह रणथम्भौर में रहने लगा। और कुछ ही दिनों में बादशाह अलाउदीन को इस का पता लगा तो उसने राजा हमीर के पास संदेश भेजा - 'मुहम्मदशाह मेरा भगोड़ा है। उसे फाँसी का दण्ड हुआ है। तुम उसे तुरंत मेरे पास भेज दो। ' राजा हमीर ने उत्तर भेजा - 'मुहम्मदशाह मेरी शरण आया है मैंने उसे रक्षा का वचन दिया है। मुझे चाहे सारे संसार से युद्ध करना पड़े, भय या लोभ में आकर मैं शरणागत  का त्याग नहीं करूँगा। '

   अलाउदीन को राजा का पत्र पढ़कर बहुत क्रोध आया। उसने इसे अपमान समझा। उसने उसी समय सेना को रणथम्भोर पर चढाई करने को कहा। छोटे छोटे दलों के समान पठानो की बड़ी भारी सेना चल पड़ी। रणथम्भोर के किले को उस सेना ने दस मील तक चारों ओर से घेर लिया। अलाउदीन ने राजा के पास फिर संदेश भेजा कि वह मुहम्मदशाह को भेज दे। बादशाह समझाता था कि राजा हमीर बादशाह की भारी सेना देखकर डर जाएगा, और मुहम्मदशाह को हवाले करेगा। किन्तु राजा हमीर ने स्पष्ट कह दिया - ' मैं किसी भी प्रकार शरणागत को नहीं दूँगा। '

   बस फिर क्या था ! युद्ध प्रारम्भ हो गया। बादशाह की सेना बहुत बड़ी थी, किन्तु राजपूत वीर तो मौत से भी दो -दो हाथ करने को तैयार थे। भयंकर युद्ध महीनों चलता रहा। दोनों ओर के हज़ारों वीर मारे गये। अंत में एक दिन मुहम्मदशाह ने स्वयं राजा हमीर से कहा - 'महाराज ! मेरे कारण आप बहुत दुःख उठा चुके। मुझ से अब आपके वीरों का नाश नहीं देखा जाता। मैं बादशाह के पास चला जाना चाहता हूँ। ' राजा हमीर बोले - ' मुहम्मदशाह ! तुम फिर ऐसी बात मत कहना। जब तक मेरे शरीर में प्राण है, तुम यहाँ से बादशाह के पास नहीं जा सकते। राजपूत का कर्तव्य है शरणागत-रक्षा। मैं अपने कर्तव्य का पालन प्राण देकर भी करूँगा।

   जैसे-जैसे समय बीतता गया, राजपूत सेना के वीर घटते गये। रणथम्भोर के किले में भोजन-सामग्री कम होने लगी। उधर अलाउदीन की सेना में दिल्ली से आकर नयी-नयी टुकड़ियां बढ़ती ही जाती थी। अंत में रणथम्भोर के  किले की सब भोजन-सामग्री समाप्त हो गयी। राजा हमीर ने ' जौहर-व्रत ' करने का निश्चय किया। राजपूत स्त्रिया जलती चिता में कूद गयी और केसरिया वस्त्र पहनकर सब राजपूत वीर किले का फाटक खोलकर निकल पड़े। शत्रुअों से लड़ते-लड़ते वे मारे गये। मुहम्मदशाह भी राजा हमीर के साथ ही युद्ध- भूमि में आया और युद्ध में मारा गया। विजय बादशाह अलाउदीन जब रणथम्भोर के किले में पहुँचा तो उसे केवल जलती चिता की राख और अंगारे मिले।

सीख - शरणगत की रक्षा के लिये अपने सर्वस्व का बलिदान करने वाले वीर महापुरुष संसार की इस पवित्र भारत-भूमि पर ही हुए है। शरणगत की रक्षा का ये सब से बड़ा उदहारण है। और आज के समय में सब को माया ने अपने जाल में फंसा लिया है। माया जाल से बचने के लिये हम सब अब ईश्वर की शरण लेना होगा। तब ही हम सुख शांति से जी पाएँगे।

Sunday, June 22, 2014

Hindi Motivational Stories.................................कर्ण की उदारता

कर्ण की उदारता

     एक बार भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के साथ बातचीत कर रहे थे। भगवान कृष्ण उस समय कर्ण की उदारता की बार-बार प्रशंसा कर रहे थे,  यह बात अर्जुन को अच्छा नहीं लगी। अर्जुन ने कहा - 'श्यामसुन्दर ! हमारे बड़े भाई धर्मराज जी से बढ़कर उदार तो कोई है नहीं, फिर आप उनके सामने कर्ण की इतनी प्रशंसा क्यों करते है ?' भगवान ने कहा - ' ये बात मैं तुम्हें फिर कभी समझा दूँगा। '

   कुछ दिनों के बाद अर्जुन को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठर के राजभवन के दरवाजे पर ब्राह्मण का वेश बनाकर पहुँचे। उन्होंने धर्मराज से कहा - ' हमको एक मन चन्दन की सुखी लकड़ी चाहिये। आप कृपा करके माँगा दे। ' उस दिन जोर की वर्षा हो रही थी। कहीं से भी लकड़ी लाने पर वह अवश्य भीग जाती। महाराज युधिष्ठर ने नगर में अपने सेवक भेजे, किन्तु संयोग की बात ऐसी कि कहीं भी चन्दन की सुखी लकड़ी सेर-आध-सेर से अधिक नहीं मिली। युधिष्ठर ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की - ' आज सुखा चन्दन मिल नहीं रहा है। आपलोग कोई और वस्तु चाहें तो तुरन्त दी जा सकती है। '

     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ' सुखा चन्दन नहीं मिलता तो  न सही। हमें कुछ और नहीं चाहिये। '

   वहाँ से अर्जुन को साथ लिये उसी ब्राह्मण के वेश में भगवान कर्ण के यहाँ पहुँचे। कर्ण ने बड़ी श्रद्धा से उनका स्वागत किया। भगवान ने कहा - ' हमें इसी समय एक मन सुखी लकड़ी चाहिये। '

   कर्ण ने दोनों ब्राह्मणों को आसन पर बैठाकर उनकी पूजा की। फिर धनुष चढ़ाकर उन्होंने बाण उठाया। बाण मार - मारकर कर्ण ने अपने सुन्दर महल के मूल्यवान किवाड़, चौखटें, पलंग आदि तोड़ डाले और लकड़ियों का ढेर लगा दिया। सब लकड़ियाँ चन्दन की थी। यह देखकर श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा - 'तुमने सुखी लकड़ियों के लिये इतनी मूल्यवान वस्तुऍ क्यों नष्ट की ?

  कर्ण हाथ जोड़कर बोले - ' इस समय वर्षा हो रही है। बाहर से लकड़ी माँगने में देर होगी। आप लोगों को रुकना पड़ेगा। लकड़ी भीग भी जायगी।  ये सब वस्तुऍ तो फिर बन जायेगी, किन्तु मेरे यहाँ आये अतिथि को निराश होना पड़े या कष्ट हो तो वह दुःख मेरे हृदय से कभी दूर नहीं होगा। '

 भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण को यशस्वी  होने का आशीर्वाद दिया और वहाँ से अर्जुन के साथ चले आये। लौटकर भगवान अर्जुन से कहा - 'अर्जुन ! देखो, धर्मराज युधिष्ठर के भवन के द्धार, चौखटे भी चन्दन की है। चन्दन की दूसरी वस्तुएँ भी राजभवन में है। लेकिन चन्दन माँगने  पर भी उन वस्तुअों को देने की याद धर्मराज को नहीं आयी और सुखी लकड़ी माँगने पर भी कर्ण ने अपने घर की मूल्यवान वस्तुऍ तोड़कर लकड़ी दे दी। कर्ण स्वभाव से उदार है और धर्मराज युधिष्ठर विचार करके धर्म पर स्थिर रहते है। मैं इसी से कर्ण की प्रशंसा करता हूँ। '

 सीख - हमें यह शिक्षा मिलती है की परोपकार, उदारता, त्याग तथा अच्छे कर्म करने का स्वाभाव बना लेना चाहिये। जो लोग नित्य अच्छे कर्म नहीं करते और सोचते है की कोई बड़ा अवसर पर महान कार्य करेंगे उनको अवसर आने पर भी सूझता ही नहीं। और जो छोटे-छोटे अवसरों पर भी त्याग तथा उपकार करने का स्वाभाव बना लेता है, वही महान कार्य करने में भी सफल होता है।

Friday, June 20, 2014

Hindi Motivational Stories............................. लिखित मुनि की सचाई

लिखित मुनि की सचाई

  ये बहुत पुरानी पुराणों की कहानी है जिस में सच्चाई को समझने और उसका दण्ड ख़ुशी से स्वीकार करने की एक कला को बताया है और ये योगी या तपस्वी सहज कर सकते है। उत्तर दक्षिण में एक गाँव में शंख और लिखित नाम के दो मुनि थे। दोनों सगे भाई थे। दोनों अलग - अलग आश्रम बनाकर रहते थे और भगवान का भजन करते थे। ये दोनों मुनि धर्मशास्त्र के बड़े भरी विद्वान थे। इन्होने स्मृतियाँ बनायीं है। शंख मुनि बड़े  भाई थे और लिखित छोटे।
 
   एक बार लिखित मुनि अपने बड़े भाई शंख मुनि से मिलने के उनके आश्रम गये। शंख मुनि उस समय वन में गये थे। और लिखित मुनि को भूख लगी थी तो उसने आश्रम के पास में लगे वृक्ष का पक्का हुआ फल तोड़कर खाने लगे और उसी समय शंख मुनि वहाँ आ गये। अपने छोटे भाई को देख उन्हें प्रसन्नता हुई और हाथ में फल देख कर उन्हें कुछ खेद भी हुआ। उन्होंने पूछा "लिखित !  ये फल तुम्हें कहा से मिला ? ' लिखित मुनि ने कहा -'भैया ! यह तो आपके आश्रम के वृक्ष से मैंने तोड़ा है। ' शंख मुनि ने कहा - कोई बिना पूछे किसी की वस्तु ले तो उस कार्य को क्या कहा जायेगा ? लिखित मुनि ने कहा - चोरी  शंख मुनि ने कहा - चोरी करने वाले को क्या करना चाहिये ? लिखित मुनि ने कहा - उसे राजा के पास जाकर अपनी बात बताना चाहिये और जो दण्ड मिले उसे भोगना चाहिये। अगर कोई ऐसा नहीं करता तो मरने के बाद यमराज के दूत उन्हें पकड़कर नरक में डाल देते है। और बहुत दुःख देते है।

  शंख मुनि ने कहा - ' तुमने मुझ से पूछे बिना मेरे आश्रम के फल लेकर चोरी का पाप किया है। अब तुम राजा के पास जाकर इस पाप का दण्ड ले लो और उसके बाद ही यहाँ आओ। '

        लिखित मुनि वहाँ से राजा के पास गये और सारी बात बता दी और अपनी अपराध का सजा सुनाने के लिए कहा राजा ने कहा -'जैसे राजा दण्ड देता है, वैसे ही क्षमा भी कर सकता है, मैं आपका अपराध क्षमा करता हूँ। लिखित मुनि बोले -' धर्मशास्त्र के नियम मुनिलोग बनाते है। राजा को तो प्रजा से उन नियमो का पालन कराना चाहिये। मैं  क्षमा लेने नहीं आया, दण्ड लेने आया हूँ। मेरे बड़े भाई ने स्नेहवश, मेरा कर्तव्य सुझाकर मुझे यहाँ भेजा है। मुझे अपराध का दण्ड दो। '

  राजा को मुनि की बात मानना पड़ा। उन दिनों चोरी के अपराध का दंड था चोर के दोनों हाथ काट लेना।  राजा की आज्ञा से जल्लादने मुनि के दोनों हाथ काट लिये। हाथ काट जाने से लिखित मुनि को दुःख नहीं हुआ।  वे बड़ी प्रसन्नता से शंख मुनि के आश्रम में लौट आये और बोले -'भैया ! मैं अपराध का दण्ड ले आया। '

          शंख मुनि छोटे भाई को ह्रदय से लगाया और कहा - तुमने बहुत अच्छा किया। आओ, अब स्नान करके दोपहर की संध्या करें।  नदी के जल में स्नान करने जब में डूबे तो तैरने के लिए जब लिखित मुनि ने अपने हाथ बढ़ाये तो दोनों हाथ पुरे निकल आये। वे समझ गए कि यह उनके बड़े भाई की कृपा का फल है। उन्होंने बड़ी नम्रता से पूछा -' भैया ! जब मेरे हाथ उगा देने थे तो आपने ही उन्हें यहाँ क्यों नहीं काट लिया ? '

     शंख मुनि बोले - 'दण्ड देना राजा का काम है। दूसरा कोई दण्ड दे तो वो पाप होगा।  लेकिन कृपा करना तो सदा ही श्रेष्ठ है। इसलिये तुम्हारे ऊपर कृपा करके मैंने तुम्हारे हाथ ठीक कर दिये। '

 सीख - बिना पूछे किसी की कोई भी वास्तु लेना चोरी है, यह बात इस कहानी से समझ में आती है। और साथ में सजा देना राजा का काम है कोई और दे तो पाप हो जाता है। कृपा करना श्रेष्ठ है और हर कोई  ये कर सकता है। और ऐसा कृपा करने के लिए पहले बहुत तपस्या करना पड़ता है। 

Hindi Motivational Stories....................... एक दयालु नरेश

एक दयालु नरेश

          एक राजा बड़े धर्मात्मा और दयालु थे। किन्तु उन से भूल से कोई एक पाप हो गया था। जब उनकी मृत्यु हो गयी, तब उन्हें लेने यमराज के दूत आये। यमदूतों ने राजा को कोई कष्ट नहीं दिया। यमराज ने उन्हें  कहा था कि वे राजा को आदरपूर्वक नारको के पास से आनेवाले रास्ते से ले आवें। राजा भूल से जो पाप हुआ था, उसका इतना ही दण्ड था।

    यमराज के दूत राजा को लेकर जब नर्क के पास पहुँचे तो नर्क में पड़े प्राणियों की चीखने, चिल्लाने, रोने की आवाज़ सुनकर राजा का ह्रदय घबरा उठा। और वे वहाँ से जल्दी-जल्दी जाने लगे। और उसी समय नर्क में पड़े जीवों ने पुकारकर प्रार्थना की - ' महाराज ! आपका कल्याण हो ! हम लोगों पर दया करके आप कुछ क्षण और यहाँ खड़े रहिये। आपके शरीर को छू कर जो ह्वा हमारी तरफ आ रही है उस से हम लोगो की जलन और पीड़ा एकदम दूर हो जाती है। हमें बड़ा सुख मिल रहा है। ' राजा ने उन जीवों की बात सुनकर कहा - ' मित्रो ! यदि मेरे यहाँ खड़े रहने से आप लोगो को सुख मिलता है तो मैं पत्थर की भाँति अचल होकर यही खड़ा रहूँगा। मुझे यहाँ से अब आगे नहीं जाना है। '

     यमदूतों ने राजा से कहा - ' आप तो धर्मात्मा है। आपके खड़े होने का यह स्थान नहीं है। आपके लिए तो स्वर्ग में उत्तम स्थान बनाये गए है। यह तो पापी जीवों के रहने का स्थान है। आप यहाँ से जल्दी चलो। ' राजा ने कहा - ' मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए। भूखे-प्यासे रहना और नरक की आग में जलते रहना मुझे अच्छा लगेगा, यदि अकेले मेरे दुःख उठाने से उन सब लोगो को सुख मिले। प्राणियों की रक्षा करने से उन्हें सुखी करने में जो सुख है वैसा सुख तो स्वर्ग या ब्रह्मलोक में भी नहीं है। '

             उसी समय वहाँ धर्मराज तथा इंद्रा आये। धर्मराज ने कहा..... 'राजन,! मैं आपको स्वर्ग ले जाने के लिये आया हूँ। अब आप चलो '  राजा ने कहा - ' जब तक ये नरक में पड़े जीव इस कष्ट से नहीं छूटेंगे, मैं यहाँ से कही नहीं जाऊँगा। ' धर्मराज बोले - ' ये सब पापी जीव है। इन्होंने कोई पुण्य नहीं किया है। ये नरक से कैसे छूट सकते है ?' राजा ने कहा - ' मैं अपना सब पुण्य इन लोगों को दान कर रहा हूँ। आप इन लोगों को स्वर्ग ले जाये। इनके बदले मैं अकेले नरक में रहूँगा।  '  राजा की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने कहा - 'आपके पुण्य को पाकर नरक के प्राणी दुःख से छूट गये है। देखिये ये लोग अब स्वर्ग जा रहे है। अब आप भी स्वर्ग चलिये। '

राजा ने कहा - ' मैंने तो अपना सब पुण्य दान कर दिया। अब आप मुझे स्वर्ग में चलने को क्यों कहते है ?
देवराज हँसकर बोले - 'दान करने से वस्तु घटती नहीं, बढ़ जाती है। आपने इतने पुण्यों का दान किया, यह दान उन सब से बड़ा पुण्य हो गया। अब आप हमारे साथ पधारें। दुःखी प्राणियों पर दया करने से नरेश अनन्तः काल तक स्वर्ग का सुख भोगते रहे।

सीख - दया धर्म का मूल है। अगर हम दुसरो पर दया करेंगे तो उसका पुण्य तो मिलेंगा ही। इस लिए हर प्राणी मात्र पर दया कर उनकी सेवा करना हमारा अपना परम धर्म है।