संतोषम् परम् सुखम्
एक विदेशी पर्यटक गर्मी के दिनों में भारत आया। उसने फलो की दूकान पर देखा कि विक्रेता दोपहर में आराम से बैठा था। न तो ग्राहक ही आ रहे थे और न ही ग्राहकों को बुलाने की चेष्टा ही कर रहा था। विदेशी को आश्चर्य हुआ। उसने कहा - ऐसे तुम्हारे फल कैसे बिकेंगे ?
दुकानदार बोला - साहब, दुकान का तो सबको पता है। आवाज़ क्या लगाना जिसको आना होगा वह आयेगा।
विदेशी - ऐसे कैसे आयेंगे, आवाज़ देंगे तो माल अधिक बिकेगा।
दुकानदार ने पूछा - फिर ....
विदेशी ने कहा - फिर तुम्हारी अच्छी कमाई होगी उससे और अधिक माल ला सकोगे, तुम्हारी दुकान बड़ी हो जायेगी।
दुकानदार प्रश्न करता गया फिर.……
विदेशी ने कहा - फिर तुम अपने साथ एक और सहायक रखना इसमें मजदूरों कि भी मदद ले सकते हो। अच्छी कमाई से तुम साहूकार बन जाओगे। उसके चुप होते ही दुकानदार ने फिर वही प्रश्न किया
दुकानदार ने कहा -…… फिर ……
विदेशी ने कहा - फिर तुम आलीशान मकान बना लेना, गाड़ियाँ खरीद लेना, ड्राईवर रखना।
दुकानदार अभी भी पूछा फिर … …
विदेशी ने कहा - फिर तुम आराम से मजे की ज़िन्दगी जी सकोगे।
दुकानदार बोला - साहब, वह तो मै अभी भी आराम से, मजे से बैठा हूँ। इतना घूम - फिर कर आने की क्या जरुरत है ! विदेशी निरुत्तर था। वह व्यर्थ की भाग दौड़ में उसे फॅसा नहीं सका।
सीख - संतोष सभी गुणों का राजा है। इसे सर्वोतम धन भी कहा जाता है।
" जब आवे संतोष धन , सब धन धूरि समान "
भारतीय संस्कृति का यह आदर्श रहा है कि जो भी मिला है उसे ईश्वरीय देन समझ, अपने निर्धारित भाग्य का हिस्सा मान, उसी में राजी रहा जाये।
" साई इतना दीजिये, जामे कुटुम्ब समाय।
आप भी भूखा न रह , साधु ना भूखा जाय।।
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