Wednesday, December 3, 2025

शीर्षक –मानव की दुर्दशा


1–आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है।

आज अपने आप में ही मस्त है।

आज अपनी जिंदगी से त्रस्त है।

है गृहस्ती में मगर वह ग्रस्त है।

आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है।


2–आज टेंशन से भरी है जिंदगी।

रोज करता है प्रभु की बंदगी।

दौड़ता दिन-रात है और प्रस्त है। 

मंजिलों से दूर है और त्रस्त है।

आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है।


3– हर जगह विस्तार करता जा रहा।

आपसी टकरार करता जा रहा।

स्वार्थ की अंधी भरी इस जिंदगी में।

रात दिन रफ्तार करता जा रहा।

धन जुटाने में वो कितना व्यस्त है।

आपसी मतभेद में वो ग्रस्त है। 

आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है।


4– जिंदगी की इस अंधेरी दौड़ में।

एक अपनी आशियाना ठौर में।

कुछ बचाने में यूं शायद व्यस्त है।

कुछ लुटाने में यू शायद मस्त है।

आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है।


5– जिंदगी जीने का मतलब भूल कर।

मानवी संदर्भ को भी भूल कर।

गुनगुनाते है अंधेरी रात में।

मौत को भी ले लिया है हाथ में।

डर नहीं जीने ना मरने की उसे।

वो तो अपनी मस्तियों में मस्त है। 

आज मानव बेवजह: ही व्यस्त है। 

आज अपने आप में ही मस्त है।


*ओम शांति** 

रचनाकार *–सुरेश चंद्र केशरवानी* 

(प्रयागराज शंकरगढ़)

मोबाइल नंबर –9919245170

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