Monday, October 27, 2014

Hindi Motivational Stories - "जीवन"

जीवन

जीवन के कुछ पहलू शयद हम जीवन के अंतिम शान तक नहीं जान पाते। जो दिखता है इन आँखों से हम उसे ही सत्य मान लेते है। और कभी समय के अंतराल में हम उसे असत्य मान लेते है। सत्य और असत्य ,सही और गलत , अच्छा और बुरा इन सब के बीच मन बहुत बार चिन्तन करता है। और बहुत समझ के साथ हम चलते भी है। लेकिन फिर भी कुछ है जो अभी समझना बाकी है। मन की ये जिज्ञासा हर बार जगती है और बुझती है। और हम कभी उसे सुनते है और कभी उसे अनसुना  करते है।

जीवन के इन ही पहलूओं में हम ख़ुशी और गम का अनुभव करते है। और मन की उलझन भी यही है। और इस लड़ाई में हम भुत और भविष्य की कल्पना करते है। और योग कहता है वर्त्तमान में जीयो। और व्यक्ति वर्त्तमान में रहता हुवे भी भुला है की उसे जीना है। हर पल हर शान को जीना है। एक बात मुझे यहाँ ऐसा समझ में आ रहा है। जहा तक ज्ञान की बात है कुछ न कुछ ज्ञान हर एक के पास है जरूर लेकिन ये अलग बात है की व्यक्ति उस ज्ञान का समरण या उसे प्रैक्टिस में कितना लता है। ज्ञान हमें मीडिया से मिलता है माता पिता से मिलता है, गुरु से मिलता है संग से मिलता है, पढ़ाई से मिलता है, खुदरत से मिलता है, भगवान से मिलता ही , किताबो से मिलता है  और आज कल तो इलेक्ट्रॉनिक गैजेट से भी मिलता है। चलो और भी बहुत विकल्प है जहा से ज्ञान हम ले सकते है। और ज्ञान की बात या समझ की बात इस में भी अंतर होता है। इस विषय में चर्चा हो सकती है ये फिर कभी। लेकिन जीवन जीना ये  एक कला है।  तो हम सब को आज इस विषय पर चर्चा करनी होगी। वर्त्तमान के इस समय सीमा को देखे तो लगता है। की हम को जीवन जीने की कला को अब प्रैक्टिस में लाना होगा। ऐसा नहीं की में तो अच्छा हूँ और मेरे साथी भी अच्छे है और मैं सब के साथ अच्छा रहता हूँ , नहीं ये सिर्फ ऊपर की बात है ,क्यों ऐसा में कह रहा हूँ  ये एडजस्टमेंट है। लेकिन जीवन जीने की कला इस से आगे है। जहा आपको सहारे या सपोर्ट की जरुरत नहीं लगती।

हर पल हर दिन नया हो अपने आप में एक अनोखा अनुभव आपका रूहानी अस्तित्व आपकी अनोखी पहचान हर कर्म के साथ चलते फिरते चाहे घर में या बाहर हो। किसी को आपका साथ मिले तो वो अपने को  भाग्यशाली माने और आप उसका धन्यवाद माने। कोई मालिकपण नहीं लेकिन ईश्वर और उसकी रचना को हर पल हर शान सलाम ऐसा धन्यवाद का गीत आपके साथ अनहद नाद की तरह बजता रहे ।  

Wednesday, October 15, 2014

Hindi motivational Stories................तीन दिन का राज्य

तीन दिन का राज्य


एक राजकुँवर थे। स्कूल में पढ़ने के लिये जाते थे। वहाँ प्रजा के बालक भी पढ़ने जाते थे। उनमें से पॉँच-सात बालक राजकुँवर के मित्र हो गये।  वे मित्र बोले - " आप राजकुँवर हो राजगद्दी के मालिक हो। आज आप प्रेम और स्नेह करते हो , लेकिन राजगद्दी मिलने पर ऐसा ही प्रेम निभायेंगे, तब हम समझेंगे कि मित्रता है , नहीं तो क्या है ? ये हम समझ जायेंगे। " राजकुँवर बोले कि अच्छी बात है। समय बीतता गया। सब बड़े हो गये। राजकुँवर को राजगद्दी मिल गयी। एक-दो वर्ष में राज्य अच्छी प्रकार जम गया। राजकुँवर ने अपने मित्रों में से एक को बुलाया और कहा कि तुम्हे याद है कि तुमने कहा था - " राजा बनने के बाद मित्रता निबाहो, तब समझे। ' 'अब तुम्हें तीन दिन के लिए राज्य दिया जाता है। आप राजगद्दी पर बैठो और राज्य करो। ' वह बोला - ' अन्नदाता ! वह तो बचपन की बात थी। मैं राज्य नहीं चाहता। ' बहुत आग्रह करने पर उस मित्रने तीन दिन के लिये राज्य स्वीकार कर लिया।

वह मित्र राजगद्दी पर बैठा और उस दिन खान-पान ऐशे-आराम में मगन हो गया। दूसरे दिन सैर-सपाटा आदि में लगा रहा। रात हुई तो बोला- ' हम राजमहल में जायेँगे। ' सब बड़ी मुश्किल में पड़ गये। रानी बड़ी पतिव्रता थी। वह मित्र तो अड़ गया कि सब कुछ मेरा है, मैं राजा हूँ तो रानी भी मेरी है। रानी ने अपने कुलगुरु ब्राह्मण देवता से पुछवाया कि अब मैं क्या करुँ ? गुरूजी महाराज ने उस तीन दिन के लिए राजा बने मित्र से पूछा कि आप महलों में जाना चाहते है तो राजा की तरह जाना होगा। इसलिये आपका ठीक तरह से श्रृंगार होगा। और एक के बाद एक व्यक्ति आते गये और अलग-अलग श्रृंगार करते रहे दर्जी ,नाई ,इत्र लगने वाला ऐसा करते करते पूरी रात बीत गयी। सुबह हो गयी  और अखरी दिन था समय पूरा हो गया। और फिर राजा को राजगद्दी मिल गयी। राजा ने अपने दूसरे मित्र को बुलाया और आग्रह किया और तीन दिन के लिये राज्य दे दिया और बोला कि मैं, मेरी स्त्री, मेरा घर - ये सब तो मेरे है। मैं भी आपकी प्रजा हूँ। बाकी सारा राज्य आपका है। वह मित्र तीन दिन के लिये राजा बन गया।

राज्य मिलते ही उस मित्र ने पूछा कि मेरा कितना अधिकार है ? मन्त्री ने जवाब दिया - " महाराज ! सारी फौज, पलटन, खजाना और इतनी पृथ्वी पर आपका राज्य है। ' उसने दस-बीस योग्य अधिकारियों को बुलाकर कहा कि हमारे राज्य में कहाँ-कहाँ, क्या-क्या चीज की कमी है, किस को क्या-क्या तकलीफें है - पता लगाकर मुझे बताओ। उन्होंने आकर खबर दी - फलाँ-फलाँ गॉव में पानी की तकलीफ है, कुआँ नहीं है, धर्मशाला नहीं है , पाठशाला नहीं है।उस राजाने हुक्म दिया ये सब काम तीन दिन में पुरे हो जाना चाहिये। खजांची को कहा इन्हें जो चाहिये वो दे दो और हर गॉव की जरुरत तीन दिन में पूरी  हो जाय। जितना भी खर्च हो वो तुरंत पूरी कर दो। तीन दिन पुरे होते-होते समाचार आने लगा की इतना काम हुआ है इतना बाकी है। राजा ने जल्दी पूरी करने का आदेश दिया। और मित्रने राज्य वापस राजा को दे दिया। राजा बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि हम तुम्हें जाने नहीं देंगे, अपना मन्त्री बनायेँगे। हमें राज्य मिला, लेकिन हमने प्रजा का इतना ध्यान नहीं रखा, जितना आपने तीन  दिन में रखा है। अब राजा तो नाम मात्र के रहे और वह मित्र सदा के लिये उनका विश्वास पात्र मन्त्री बन गया।

सीख - इसी प्रकार हमें बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था - ऐसे तीन दिन भगवन ने हमें राज्य दिया है। अब जो रूपया-संग्रह और भोग भोगने में लगे है, उनकी तो हजामत हो रही है। और जो दूसरे मित्र की तरह सेवा कर रहे है, उनको भगवन कहते है-

"मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुट मणि।।" 

इसलिये अब सेवा करो और भगवन को याद करते रहो। उसका दिया हुआ सब कुछ है दुसरो की सेवा में लगाने से भगवन के विश्वास पात्र बनेंगे। और उसके धाम में निवास करेंगे। और अब निर्णय अपने को करना है की हजामत करवानी है या परमात्मा का साथ उनके धाम में रहना है। 

Monday, September 29, 2014

Hindi Motivational Stories.....................................आदर्श माँ

आदर्श माँ 


                        एक गाँव की सच्ची घटना है। उस गाँव में हिन्दु और मुसलीम दोनों रहते थे। मुसलमान के एक घर बालक हुआ, पर बालक की माँ मर गयी। वह बेचारा बड़ा दुःखी हुआ। एक तो स्त्री के मरने का दुःख और दूसरा नन्हे-से बालक को पालन कैसे करुँ- इसका दुःख। उसके पास में ही हिन्दू रहता था। उसका भी दो - चार दिन का ही बालक था। उसकी स्त्री को पता लगा तो उसने अपने पति से कहा उस बालक को ले आओ, मैं पालन करुँगी। अहीर उस मुसलमान के बालक को ले आया। अहीर की स्त्री ने दोनों बालको का पालन किया। उनको अपना दूध पिलाती, स्नेह से रखती, प्यार करती। उसके मन में बेदभाव नहीं था कि ये मेरा बालक है और ये दूसरे का बालक है।

    जब बालक बड़ा हुआ पढने लिखने  लायक हो गया तो स्त्री ने उस मुसलमान को बुलाकर कहा कि अब तुम अपने बच्चे को ले जाओ और पढ़ाओ- लिखाओ, जैसी मर्जी आये वैसे बनाओ। मुसलमान ने बच्चे को पढ़ाया -लिखाया और बच्चा भी पढ़-लिखकर एक हॉस्पिटल में नौकरी भी करने लगा। कुछ सालों के बाद अहिरे की स्त्री को छाती में बहुत पीड़ा महसूस हुआ तो उसे उसी हॉस्पिटल में भर्ती किया। डॉक्टर ने कहा खून की कमी है अगर उन्हें खून चढ़ाया जाय तो यह ठीक हो जायेगी। खून कौन दे ? परीक्षा की गयी। मुसलमान का वह लड़का जो वहाँ काम करता था। देवयोग से उसका खून मिल गया। उस माईने तो उसको पहचाना नहीं पर उस लड़के ने उसे पहचान लिया हाँ येही मेरी पालन करने वाली माँ है। बचपन में इसका ही दूध पीकर मैं  बड़ा हुआ, इसी कारण खून में एकता आ गयी। डॉक्टर ने कहा इसका खून चढ़ाया जा सकता है। उस से पूछा गया क्या तुम अपना खून दे सकते हो ? लड़के ने कहा हाँ मैं खून तो दे दूँगा पर मैं दो सौ रुपये लूँगा। अहिरे ने उसको दो सौ रुपये दे दिये। खून माईको चढ़ा दिया गया और उसका शरीर ठीक हो गया और वह अपने घर चली गयी।

      कुछ दिनों बाद वह लड़का अहिरे के घर गया और माँ के चरणो में हज़ार-दो-हज़ार रुपये रखकर कहा ' आप ही मेरी माँ है मैं आपका ही बच्चा हूँ। आपका ही दूध पीकर मैं बड़ा हुआ हूँ। ये रुपये आप ले ले। उसने लेने से माना करने पर लडके ने हॉस्पिटल की बात याद दिलायी। कि खून के दो सौ रुपये इसलिये लिए थे कि मुफ़्त में आप खून न लेती और खून न लेने से आपका बचाव नहीं होता। यह खून तो वास्तव में आपका ही है। ये शरीर भी आपका है। मेरे रुपये शुद्ध कमाई के है। आपकी कृपा से मैं लहसुन और प्याज भी नहीं खता हूँ। अपवित्र , गन्दी चीजें मेरी अरुचि हो गयी है। अंतः ये रुपये आपको लेने ही पड़ेंगे।  ऐसा कहकर उसने रुपये से दिये।

   अहिरे की स्त्री बड़े शुद्ध भावना वाली थी, जिस से उसके दूध का असर ऐसा हुआ कि वह लड़का मुसलमान होते हुए भी अपवित्र चीज नहीं खाता था।

सीख - हम सब का पालन माता, बहनो ने ही किया पर उनका गुणगान नहीं करते लेकिन अहिरे की स्त्री का करते है, क्यों कि अपने बच्चे का तो हर कोई पालन करते है। जानवर भी अपने बच्चे की सम्भल करता है। लेकिन दूसरे के बच्चे को अपने बच्चे जैसा समझ पालन कर फिर उन्हें सौप देना ये बड़ी बात है और उसका असर बच्चे पर कितना प्रभावशाली रहा ये हमने सुना। इसलिए अहिरे की स्त्री का हम आप गुणगान करते है।

Sunday, September 21, 2014

Hindi Motivational Stories...........................बाते छोटी पर बड़े काम की

बाते छोटी पर बड़े काम की 

1. एक साधु थे। वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे। माँगना तो दूर रहा, यदि कोई उनसे पूछता कि रोटी लोगे तो वे साफ 'ना ' कह देते, भले ही वे दो-तीन दिन से भूखे क्यों न हो। हाँ !. उनके सामने कोई रोटी रख देता तो वे खा लेते थे।

2.  ऋषिकेश की बात है। एक साधु बाहर गये हुए थे। पीछे से कोई उनकी कुटिया में ठण्डाई की सामग्री रख गया। साधु ने आकर उसे देखा तो वे कुटिया के भीतर नहीं गये, बाहर ही रहे। जब तक चीटियाँ उस सामग्री को खा नहीं गयी, तब तक वे साधु कुटिया के बाहर ही रहे।

3. ऋषिकेश की ही एक बात है श्रीस्वामीज्योति जी महाराज की फटा  कुर्ता देखकर एक साधु सुई-धागा ले आया। महाराज जी ने कहा सुई-धागा यही रख दो, मैं खुद सिल लूँगा। महाराज जी ने अपने हाथो से सिलाई कर ली। और दूसरे दिन वह साधु आया तो महाराज ने उसको सुई-धागा लौटा दिया। वह साधु बोला कि इसकी फिर कभी भी जरुरत पड़ सकती है, इसलिये पास में सुई-धागा रहना चाहिये। महाराज जी ने कहा कि इस " चाहिये ". को मिटाने लिये ही तो हम यहाँ  जंगल में आये है। इस सुई-धागे को यहाँ से ले जाओ। यह 'चाहिये ' हमें नहीं चाहिये।

4. एक संन्यासी थे। एक बार मेले में उन्होंने अपनी स्त्री को देखा तो पूछ बैठे कि तुम यहाँ कब आयी ? स्त्री ने उत्तर दिया कि आपने संन्यास ले लिया, क्या अब भी मेरे को पहचानते हो ? उत्तर सुनकर संन्यासी को चेत भी हुआ और लज्जा भी आयी तब उन्होंने अपना सिर झुका लिया। फिर उन्होंने जीवन भर सिर झुकाये रखा, कभी किसी को सिर उठाकर नहीं देखा। और मुक्ती को प्राप्त हुवे।

5 . समुद्र-तटकी  दीवार पर एक सज्जन बैठे थे। उन्होंने देखा कि एक जवान आदमी हाथ में धोती-लोटा लिये आया। उसने धोती-लोटा किनारे पर रख दिया और कपड़े उतारकर स्नान के लिये समुंद्र में घुस गया।  इतने में समुद्र की एक बड़ी लहर आयी और उसको अपने साथ ले गयी। धोती-लोटा किनारे पड़ा रह गया और वह आदमी फिर समुद्र से बाहर नहीं आया। दीवार पर बैठे सज्जन यह सब देख रहे थे। उनको जीवन की क्षणभुंगरता का साक्षात्कार हो गया था। वे भी दीवार से उतरकर अज्ञात स्थान की ओर चल दिये और भगवन के भजन में लग गये। फिर कभी लौटकर घर नहीं गये।

  त्याग में विचार कैसा ? कोई मरता है तो क्या विचार करके मरता है ?

Friday, September 19, 2014

Hindi Motivational stories................................त्याग के आदर्श

त्याग के आदर्श 

1. एक साधु थे। उनसे किसी ने पूछा कि  ' आपके पास एक पैसा भी नहीं है , फिर आप भोजन कहाँ पाते हो ? ' साधु ने कहा कि ' भिक्षा पा लेते है। ' उसने फिर पूछा कि कभी भिक्षा न मिले तो ? साधु बोला - ' तो फिर भूख को ही पा लेते है। ' भूख को पाने का तात्पर्य है कि आज हम भोजन नहीं करेंगे, क्यों कि भूख का ही भोजन कर लिया। 

2. एक सज्जन साइकिल में चढ़कर कही जा रहे थे। साइकिल सड़क के बीच में थी। पीछे से एक ट्रकवाला आया और ट्रक रोककर बोला कि  " अरे। बीच में क्यों चलते हो ? या इस तरफ चलो, या  उस तरफ !' सज्जन को जागृति आयी चेत हो गया कि जीवन में भी मैं ऐसे ही बीच में चल रहा हूँ , अब एक तरफ हो जाना चाहिये। वे सब कुछ छोडकर साधु बन गये। 

सीख - बातें बहुत छोटी पर समझ में आ जाये तो जीवन परिवर्तन हो जायेगा पुरुष से आप महापुरुष बन जायेंगे। 


Thursday, September 18, 2014

Hindi Motivational Stories....... ..............सौ रुपये की एक बात

सौ रुपये की एक बात

एक सेठ था। वह बहुत ईमानदार तथा धार्मिक प्रवृत्तिवाला था। एक दिन उसके यहाँ एक बूढ़े पण्डितजी आये। उनको देखकर सेठ की उन पर श्रद्धा हो गयी। सेठने आदरपूर्वक उनको बैठाया और प्रार्थना की कि मेरे लाभ के लिये कोई बढ़िया बात बताये। पण्डितजी बोले कि बात तो बहुत बढ़िया बताऊँगा, पर उसके दाम लगेंगे ! एक बात के सौ रुपये लगेंगे। सेठ ने कहा कि आप बात बताओ, रुपये मैं दे दूँगा। पण्डितजी बोले - ' छोटा आदमी यदि बड़ा हो जाय तो उसको बड़ा ही मानना चाहिये, छोटा नहीं। ' सेठ ने मुनीम से पण्डित जी को सौ रुपये देने के लिये कहा। मुनीम ने सौ रुपये दे दिये। सेठ ने कहा - और कोई बात बताये। पण्डितजी बोले - 'दूसरे के दोष को प्रगट नहीं करना चाहिये। 'मुनीम ने सौ रुपये दे दिये  सेठ ने कहा और कोई बात , पण्डितजी  - '  जो काम नौकरो से हो जाय, उसको करने में अपना समय नहीं लगाना चाहिये। ' मुनीम ने इस का भी सौ रुपये दिये सेठ ने कहा एक और बात सुना दो , पण्डितजी ने कहा - ' जहाँ एक बार मन हट जाय, वहाँ फिर नहीं रहना चाहिये। ' मुनीम ने इस के भी सौ रुपये दिये। पण्डितजी चले गये। सेठ चारों बातें याद कर ली और उनको घर में तथा दुकान में कई जगह लिखवा दिया।

कुछ समय के बाद सेठ के व्यपार में घाटा लगना शुरू हो गया। घाटा लगते-लगते ऐसी परिस्तिथि आयी कि सेठ को शहर छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ा। साथ में मुनीम भी था। चलते-चलते वे एक शहर के पास पहुँचे। सेठ ने मुनीम को शहर में कुछ खाने-पीने का सामान लाने के लिये भेजा। देवयोग से उस शहर के राजा की मृत्यु हो गयी थी। उसकी कोई संतान नहीं थी। लोगो ने ये निश्चय किया था। जो भी व्यक्ति उस दिन उस शहर में सब से पहला प्रवेश करेगा उसे राजा बना दिया जायेगा। और जैसे ही मुनीम उस शहर में पहुँचा तो लोगो ने उसे हाथी पर बैठाकर धूमधाम से महल में ले गये और राजसिंहासन पर बैठा दिया।

इधर सेठ मुनीम के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था। जब बहुत देर हो गयी, तब सेठ मुनीम का पता लगाने के लिये खुद शहर में गया। शहर में जाने पर सेठ को पता लगा कि मुनीम तो यहाँ का राजा बन गया है। सेठ महल में जाकर उससे मिला। राजा बने हुवे मुनीम ने सेठ को सारी कहानी बता दी। तब सेठ को पण्डितजी की बात याद आ गयी। 'छोटा आदमी बड़ा हो जाय तो उसे बड़ा ही समझना चाहिये। ' सेठ ने राजा को प्रणाम किया। राजाने उसको मन्त्री बनाकर अपने पास रख लिया।

राजा के घुड़्सलका जो अध्यक्ष था, उसका रानी के साथ अनैतिक सम्बन्ध था। सेठजी को इस बात का पता चला सेठ ने देखा वे दोनों एक साथ बैठ कर बाते कर रहे है। सेठ को पण्डितजी बात याद आयी। 'दूसरे के दोष को प्रगट नहीं करना है। ' सेठ के पास् शाल थी उसे उसने  रस्सी पर डाल दिया ताकि दूसरा कोई न देखे पर जब रानी वहाँ से लौट रही थी तो रस्सी पर शाल देख कर उसको शंका हुआ और उसने पता लगाया ये शाल किस का है। रानी को पता चला की ये शाल सेठ का है। तो रानी ने सोचा मेरी बात राजा तक ना बता दे इस डर से वह राजा के पास गयी और सेठ के खिलाफ रानी ने उलटी सुल्टी बाते बताकर बोली आज मन्त्री की नीयत ठीक नहीं थी। उसने मेरे साथ बुरा व्यवहार करना चाहा पर मैंने जब चिल्लाया तो मन्त्री वहाँ से चला गया लेकिन मैंने ये उसकी शाल चीन ली देखो। राजा को रानी की बात लग गयी उसने तुरन्त निर्णय ले लिए मन्त्री को मार डालने की। और राजा ने मॉस वाले को बता दिया की कल जो भी मेरी चिट्टी लेकर आयेगा उसे मार देना।

राजा ने दूसरे दिन मन्त्री को भुलाया और कहा ये चिट्टी लो और मॉस लेकर आओ। सेठ तो ब्राह्मण था वह मॉस को छूता तक नहीं। सेठ को फिर पण्डितजी बात याद आयी - जो काम नौकरो से हो जाये उसको करने में समय नहीं गवाना है। इस लिए सेठ मॉस लाने के लिए एक नौकर को भेज दिया और इधर राजा को अपने गुप्तचरों द्वारा मालूम हुआ की रानी की ही गलती थी। और उसका घुड़्सलका से तालुकात है। तब राजा को बहुत पश्चताप हुआ की उसने गलती से अपने ईमानदार सेठ को मार दिया। और बाद में राजा को इस बात का पता लगा की सेठ जिन्दा है तो वह झट सेठ से मिलने आये और माफ़ी माँगी और पुनः मन्त्री पद संभालने को कहा। पर सेठ ने उन्हें पण्डितजी की बात याद दिलायी और कहा में तो पण्डितजी की बातो  के अनुसार चलता हूँ उनकी वजह से मेरे प्राण बच गए। पण्डितजी ने ये भी कहा था। 'जब कही से दिल हट जाय तो वहाँ फिर नहीं रहना चाहिये। ' इस लिए मैं यहाँ से जा रहा हूँ।

सीख - जीवन में ज्ञान की बातो को धारण करने से फायदा ही होता है। इसलिये परमात्मा की राय को समझों और अपने जीवन को अनमोल बना दो। 

Friday, September 12, 2014

Hindi Motivational Stories.......................................विलक्षण साधना

विलक्षण साधना


    रामायण में इस बात का ज़िक्र है। शबरी भगवान राम की परम भक्त थी। वा पहले ' शाबर ' जाति की एक भोली- भाली लड़की थी। शाबर जाति के लोग कुरूप होते थे। परन्तु शबरी इतनी कुरूप थी कि शाबर-जाति के लोग भी उसको स्वीकार नहीं करते थे। माँ-बाप को बड़ी चिन्ता होने लगी कि लड़की का विवाह कहाँ करे। ढूंढ़ते- ढूंढ़ते आखिर  उनको शाबर-जाति का एक लड़का मिला। माँ-बाप ने रात में ही शबरी का विवाह कर दिया और लडके को कहा कि भैया, तुम अपनी स्त्री को रातो  तो रात ले जाना। लड़का मान गया और वह अपनी स्त्री शबरी को लेकर चल दिया। आगे-आगे लड़का चल रहा था पीछे शबरी चल रही थी। चलते-चलते वे दण्डक वन में आ पहुँचे। वहाँ सूर्योदय हुआ। तो लडके के मन में आया अपनी स्त्री को देखूँ तो सही, मेरी स्त्री कैसी है। लडके ने पीछे मुड़कर शबरी को देखा तो उसकी कुरूपता देखकर वह डर के मारे वहाँ से भाग गया कि यह तो कोई डाकण है, मेरे को खा जायेगी ! अब शबरी बेचारी दण्डकवन में अकेली रह गयी। वह पीहर से तो आ गयी और ससुराल का पता नहीं। अब वह कहाँ जाय !

   दण्डकवन में रहनेवाले ऋषि शबरी को अछूत मानकर उसका तिरस्कार करने लगे। वहाँ "मतंग " नाम के एक वृद्ध ऋषि रहते थे, उन्होंने शबरी को देखा तो उस पर दया आ गयी। उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी। दूसरे ऋषियों ने विरोध किया कि अपने एक अछूत जाति की स्त्री को शरण दी है। मतंग ऋषि उनकी बात नहीं सुनी और शबरी को अपने बेटी की तरह अपने पास रखा। और शबरी उनकी सेवा बहुत दिल से करती। आश्रम के सब लोग जब सो जाते थे, तब शबरी आश्रम की साफ सफाई करती और ऋषि जहाँ से आना जाना करता उस रास्ते को फूलो से सजा देती। उनके लिए पानी लाकर रखना। सब ऋषि मुनि शबरी का तिरस्कार किया करते थे, इसलिए वह छिपकर, डरते - डरते उनकी सेवा करती थी। वह डरती थी कही मेरा साया ऋषियो पर पड़े तो वे अशुद्ध हो जायेंगे। आखिर एक दिन वह समय आ पहुँचा, जो सब के लिए अनिवार्य है ! मतंग ऋषि का शरीर छूटने का समय आ गया। जैसे माँ-बाप के मरते समय बालक रोता है, ऐसे शबरी भी रोने लग गयी ! मतंग ऋषि ने कहा कि बेटा ! तुम चिन्ता मत करो। एक दिन तेरे पास भगवान राम आयेंगे ! मतंग ऋषि शरीर छोड़कर चले गये।

   अब शबरी भगवान राम के आने की प्रतीक्षा करने लगी ! प्रतीक्षा बहुत ऊँची साधना है। इस में भगवान का विशेष चिन्तन होता है। भगवान का भजन-ध्यान करते है तो वह इतना सजीव साधना नहीं होता, निर्जीव-सा होता है। परन्तु प्रतीक्षा में सजीव साधना होती है। रात में किसी जानवर के चलने से पत्तों की खड़खड़ाहट भी होती तो शबरी बाहर आकर देखती कि कहीं राम तो नहीं आ गये। वह प्रतिदिन कुटिया के बाहर पुष्प बिछाती और तरह-तरह के फल लाकर रखती। फलों में भी चखकर बढ़िया-बढ़िया फल रामजी के लिये रखती। रामजी नहीं आते तो दूसरे दिन फिर ताजे फल लाकर रखती। उसके मन में बड़ा उत्साह था कि रामजी आयेंगे तो उनको भोजन कराऊंगी।

  प्रतीक्षा करते करते एक दिन शबरी की साधना पूर्ण हो गयी ! मुनि के वचन सत्य हो गये। भगवान राम शबरी की कुटिया में पधारे -  दूसरे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि प्रार्थना करते है कि महाराज ! हमारी कुटिया में पधारों। पर भगवान कहते है कि नहीं, हम तो शबरी की कुटिया में जायेंगे।

  जैसे शबरी के ह्रदय में भगवान से मिलने की उत्कण्ठा लगी है, ऐसे ही भगवान के मन में शबरी से मिलने की उत्कण्ठा लगी है ! भगवान का स्वभाव है कि जो उनको जैसे भजता है, वे भी उसको वैसे ही भजते है - "ये यथा माँ प्रपधन्ते तास्तथेव भजाम्यहम् " ( गीता ४ /११ )

  शबरी के आनन्द की सीमा नहीं रही ! वह भगवान के चरणों में लिपट गयी।  जल लाकर उसने भगवान के चरण धोये।  फिर आसन बिछाकर उनको बिठाया। फल लाकर भगवान के सामने रखे और प्रेमपूर्वक उनको खिलाने लगी। शबरी पुराने ज़माने की लम्बी स्त्री थी। रामजी बालक की तरह छोटे बन गये। और जैसे माँ बालक को भोजन कराये, ऐसे शबरी प्यार से राम जी को फल खिलाने लगी और रामजी भी बड़े प्यार से उनको खाने लगे।

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहूँ आनि। 
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि। ।