Tuesday, November 11, 2025

*शीर्षक – बेगमपुर का बादशाह*



1–जिनका गंभीरता और सरलता का स्वभाव होता है।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।

चेहरा कोई बनावटी नहीं नजरें भी नूरानी है।

आत्म चिंतन का बोध है। 

ज्ञान भी रूहानी है ।

ऐसी पवित्र आत्मा का जीवन बेमिसाल होता है ।

वो सदा मुस्कुराता रहता है।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।


2–जिनमें दिव्यता और मधुरता की खान होती है।

उनकी एक अलग पहचान होती है।

उनमें प्रेम और सद्भावना होती है।

उनके हृदय में सर्वप्रति शुभकामना होती है।

वो इस समाज का मसीहा और शहंशाह होता है।

उसे किसी बात का गम नहीं ।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।

जो सादा मुस्कुराता रहता है ।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।


3–जिनमें सहनशीलता का भाव होता है।

वह दिल से बड़ा उदार होता है।

वाणी में मधुरता दिल में प्रेम का भाव होता है।

वो बड़ा ही नर्मचित और आदर्श का स्वभाव होता है।

वह सब की नजरों में सम्मान पाते हैं।

रूहानी मुस्कान में सदा मुस्कुराते हैं ।

उनके मस्तक में लाइट और माइंट का ताज होता है।

ऐसी महान आत्मा हर पल मालामाल होता है ।

वो सदा मुस्कुराता रहता है।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।

जिनका गंभीरता और सरलता का स्वभाव होता है।

वो बेगमपुर का बादशाह होता है।


 *ओम शांति* 

रचनाकार– *सुरेश चंद केसरवानी* 

(प्रयागराज शंकरगढ़)

मोबाइल नंबर –9919245170

शीर्षक – पछतावे में क्या जीना




1–जिंदगी पछतावे में क्या जीना।

किसी के दिखावे में क्या जीना।

जिंदगी एक प्रेम की मूरत है।

नफरत के साए में क्या जीना।

जिंदगी पछतावे में क्या जीना।


2– जिंदगी एक प्रेम का कच्चा घड़ा है।

ना कोई दुनिया में छोटा बड़ा है।

जब से जाना यह जीवन का घड़ा किराए का।

चलो घर हम चले किराए में क्या जीना।

जिंदगी पछतावे में क्या जीना।


3–आज जिस रास्ते में हम खड़े हैं।

कहीं पानी कहीं पत्थर पड़े हैं।

हौसला है तो पार होना है।

जख्म इन आंसुओं से क्या सीना।

जिंदगी पछतावे में क्या जीना।


4–जिसको देखो उदास बैठा है।

जिंदगी से निराश बैठा है।

यही अज्ञानता में जीना है।

इसी का नाम विष पीना है।

विष के साए में क्या जीना।

जिंदगी पछतावे में क्या जीना।

किसी के दिखावे में क्या जीना।

जिंदगी एक प्रेम की मूरत है। 

नफरत के साए में क्या जीना।  

 

     ओम शांति* 

कवि –सुरेश चंद्र केसरवानी 

(प्रयागराज शंकरगढ़)

मोबाइल नंबर – 9919245170

Monday, November 10, 2025

*शीर्षक– किसी भी समस्या का रोना हल नहीं है।*


1– किसी भी समस्या का रोना हल नहीं है।

शारीरिक सुंदरता का सोना हल नहीं है। 

वाणी में हो मधुरता नैनों में नम्रता हो।

जो करना हो कर लो आज जीवन में कल नहीं है।

किसी भी समस्या का रोना हल नहीं है। 

2 – दुनिया बहुत बड़ी है।

लाखों यहां धनी है।

चढ़ जाओ चाहे जितना ऊंचा

आना तो फिर जमी है।

अब लोग चंद्रमा पर जमीं तलाशते हैं।

बुद्धि विवेक खोना इसमें कोई हल नहीं है।

किसी भी समस्या का रोना हल नहीं है। 

शारीरिक सुंदरता का सोना हल नहीं।

3– प्यार–प्यार तो हम इंसान हैं इंसान से किया करते हैं।

प्यार तो हम पत्थरों के भगवान से किया करते हैं।

मगर कुछ इंसान यहां इस प्यार को बदनाम किया करते हैं।

जिस इंसान में पवित्रता का नाम तक नहीं है।

उस इंसान का गंगा में हांथ धोना हल नहीं है।

किसी भी समस्या रोना हल नहीं है। 

शारीरिक सुंदरता का सोना हल नहीं है।

वाणी में हो मधुरता नैनों में नम्रता हो।

जो करना कर लो आज जीवन में कल नहीं है।

4– दशानन थे तीन भाई तीनों विवेक पाई।

रावण ने अपनी लंका को सोने से जड़ाई।

विभीषण ने राम को ही अपना सोना चुन लिया है।

कुंभकरण जैसा सोना भी जीवन का हल नहीं है।

किसी भी समस्या रोना हल नहीं है।

शारीरिक सुंदरता का सोना हल नहीं है।

वाणी में हो मधुरता नैनों में नम्रता हो। 

जो करना हो कर लो आज जीवन में कल नहीं है।

        *ओम शांति* 

कवि– *सुरेश चंद्र केसरवानी* (प्रयागराज शंकरगढ़)

मोबाइल नंबर –9919245170

Sunday, November 9, 2025

*शीर्षक – दीवारें चार होती है*

 

 दीवारें चार होती है मगर छत एक होता है

 यू बातें चार होती हैं मगर सच एक होता है 

पहुंचना है अगर मंजिल में चाहे हम जिधर भटके मगर सचखंड की दुनिया का पथ भी एक होता है दीवारें चार होती हैं मगर छत एक होता है 

आज उलझा हुआ इंसान है झूठी पहली में 

कोई उलझा हुआ है दोस्त में कोई सहेली में 

नहीं बजती किसी के घर में अब सुख चैन की बंसी

 क्योंकि हर घर में एक दूजे से यूं मतभेद होता है

  दीवारें चार होती है मगर छत एक होता है

 आज इंसान भल इंसान से क्यों दूर होता है 

सगा भाई सगे भाई से क्यों दूर होता है 

भरी दुर्भावना इंसान में है कूटकर भीतर 

यही कारण बेटा मां बाप से भी दूर होता है

 दीवारें चार होती है मगर छत एक होता है 

आज यूं मर रहा इंसान रातों दिन कमाता है

 मगर फैशन की दुनिया में नहीं संतोष पता है 

उलझ  जाता है जब अपने ही कुछ उल्टे विचारों में 

वही इंसान फिर इंसान से हैवान होता है 

दीवारें चार होती हैं मगर छत एक होता है

 यूं बातें चार होती है मगर सच एक होता है

 पहुंचना है अगर मंजिल में चाहे हम जिधर भटके 

मगर सचखंड की दुनिया का पथ भी एक होता है 

दीवारें चार होती हैं मगर सच एक होता है

          ओम शांति* 

कवि –सुरेश चंद्र केसरवानी  (प्रयागराज शंकरगढ़) 

मोबाइल नंबर– 9919245170

Friday, November 7, 2025

*शीर्षक जिंदगी का सफर*


जिंदगी कब कहां रुक जाएगी विश्राम के लिए 

भले हमसे है वो नाराज  हम ही बोल देते हैं

 बंद है प्यार की खिड़की जुबा भी बंद है उनके 

आज हम प्रेम की  खिड़की को फिर से खोल देते हैं हम ही बोल देते हैं 

जिंदगी कब कहां रुक जाएगी विश्राम के लिए भले हमसे है वह नाराज हम ही बोल देते हैं 

चलो अच्छा हुआ कुछ दूरियां थी पर वह अपने हैं 

मैं अपनापन दिखाकर आज उनसे बोल देते हैं

 मिटाकर दूरियां दिल की मोहब्बत की निगाहों से 

आज हम दिल का रिश्ता दिल से फिर यूं जोड़ लेते हैं हम ही बोल देते हैं

 जिंदगी कब कहां रुक जाएगी विश्राम के लिए भले हमसे है वह नाराज हम ही बोल देते हैं

 हमें सब कुछ पता है जिंदगी की नाव कागज की 

चलो हम ज्ञान गंगा की नदी में छोड़ देते हैं 

लगेगी या किनारे या भंवर में डूब जाएगी

 यह धारा है बहुत गहरी लहर भी खूब आएगी

 मगर चिंता नहीं पतवार है प्रभु के ही हाथों में 

उन्हीं के नाम से इस नाव को हम छोड़ देते हैं हम ही बोल देते हैं 

जिंदगी कब कहां रुक जाएगी विश्राम के लिए भले हमसे हैं वो नाराज हम ही बोल देते हैं 

कौन देखा है कल की बात हम परसों की करते हैं 

यही अज्ञानता है बात हम बरसों की करते हैं 

मगर हम जानते हैं जिंदगी पल भर का खेला है यह मेला है झमेला है मगर सुंदर ये मेंला है

 इसी मेले में उनसे आज हम कुछ बोल देते हैं

 भले हमसे हैं वह नाराज हम ही बोल देते हैं 

जिंदगी कब कहां रुक जाएगी विश्राम के लिए भले हमसे है वह नाराज हम ही बोल देते हैं 

        *ओम शांति* 

 रचनाकार – सुरेश चंद्र केशरवानी (प्रयागराज शंकरगढ़)

Tuesday, November 4, 2025

चीखना और चिल्लाना नहीं चाहिए - कवी सुरेश चंद्र केसरवानी



चीखना और चिल्लाना नहीं चाहिए ।
किसी का दिल दुखाना नहीं चाहिए। 
अपनी भी एनर्जी व्यर्थ में गवाना नहीं चाहिए।
बे मौसम की बरसात में नहाना नहीं चाहिए।।
आपसी टकरार को बढ़ाना नहीं चाहिए।
किसी की हालत पर मुस्कुराना नहीं चाहिए। 
दुख:हर्ता सुख कर्ता एक परमात्मा है। 
उनसे कोई राज छिपाना नहीं चाहिए।
चीखना और चिल्लाना नहीं चाहिए।
किसी का दिल दुखाना नहीं चाहिए। 
अपनी भी एनर्जी व्यर्थ में गवना नहीं चाहिए।
और बेवजह मुस्कुराना नहीं चाहिए।
हम जहाँ पर है , जिस स्थिति में है यही सत्य है।
यही मेरा परिवार है ,यही खेल है। 
क्योंकि कल्प कल्पान्तर का यह मेल है ।
अपने कर्मों का दोषार्पण किसी पे लगाना नही चाहिए। 
चीखना और चिल्लाना नहीं चाहिए।
किसी का दिल दुखाना नहीं चाहिए ।
अपनी भी एनर्जी व्यर्थ में गवना नहीं चाहिए।
बे मौसम की बरसात में नहाना नहीं चाहिए।।
कुछ लोग कह रहे हैं, जिंदगी बहुत बड़ी है।
भगवान का रहा है, जिंदगी एक सांस की लड़ी है।
कुछ लोग कह रहे हैं, जिंदगी तो एक घड़ी है ।
भगवान कह रहा है, उस घड़ी की सेकंड वाली सुई की छड़ी है ।
कितना व्यर्थ में सोचेगा, कितना तू कमाएगा । 
स्थूल धन कमाएगा , मिट्टी में मिल जाएगा । 
शरीर को सजाएगा, व्यर्थ में चला जाएगा । 
जो भी तुम्हारे पास है, सब भगवान की अमानत है ।
किसी की अमानत को अपना बताना नहीं चाहिए । 
चीखना और चिल्लाना नहीं चाहिए ।
किसी का दिल दुखाना नहीं चाहिए ।
अपनी भी एनर्जी व्यर्थ में गवना नहीं चाहिए ।
बे मौसम की बरसात में नहाना नहीं चाहिए ।।

लेखक : कवी सुरेश चंद केसरवानी ,  
        प्रयागराज, शंकरगढ़



दो रोटी दोपहर को खाता दो ही रोटी शाम को - सुरेश चंद्र केसरवानी




 दो रोटी दोपहर को खाता

दो ही रोटी शाम को

फिर भी माया के चक्कर में भूल गया तू राम को

सोच जरा इस जग में बंदे आए थे किस काम को

जिसने तुम्हें जहां में भेजा भूल गया उस राम को

दो रोटी दोपहर को खाता

दो ही रोटी शाम को

जिस को अपना तू समझता है

जिस पे तू रात दिन मारता है

ये तो कजग के टुकड़े है

ना आए तेरे काम को

क्यूँ भूल गया तू राम को

दो रोटी दोपहर को खाता

दो ही रोटी शाम को

 

 

जिस देंह पे नातू करता है

वो तो मिट्टी का ढेला है

जिसको अपना तू समझता है

कुछ पल के लिए ये मेला है

वह पल भी तुझको पता नहीं

कब जाएगा विश्राम को

क्यों भूल गया तू राम को

दो रोटी दोपहर को खाता

दो ही रोटी शाम को

अब गफलत मत कर जीवन से

चलना है निज धाम को

अब रहना नहीं किराए के घर में

चलना है अपने धाम को

अब सुबह शाम तू सुमिर ले बंदे

एक प्रभु श्री राम को

क्यों भूल गया तू राम को

दो रोटी दोपहर को खाता

दो ही रोटी शाम को

फिर भी माया के चक्कर में भूल गया तू राम को


लेकखसुरेश चंद्र केसरवानी (प्रयागराज)